इतिहास गौरी लंकेश: निडर पत्रकार और दक्षिणपंथी राजनीति की आलोचक| #IndianWomenInHistory

गौरी लंकेश: निडर पत्रकार और दक्षिणपंथी राजनीति की आलोचक| #IndianWomenInHistory

दुनिया में ऐसे कई पत्रकार हैं जो अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाते हैं, सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं। वह सिर्फ एक विचारधारा का समर्थन नहीं करते बल्कि वह खुद ही एक विचारधारा बन जाते हैं। गौरी उन कुछ गिने–चुने पत्रकारों में से एक थीं।

गौरी लंकेश का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं। गौरी लंकेश एक मुखर पत्रकार थीं, जो उस देश में अपने काम से उन मुद्दों के लिए आवाज़ उठा रही थीं, जो मीडिया की स्वतंत्रता के लिहाज से शायद दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में से एक बन गया है। जब भी पत्रकारिता में बेखौफ़ और सशक्त पत्रकारों की बात होगी, तो गौरी लंकेश का नाम हमेशा लिया जाएगा। 55 वर्षीय गौरी अपने अल्पसंख्यक और दलित समुदाय समर्थक विचारधारा के लिए जानी जाती थीं और वह कन्नड़ पत्रकारिता में उन कुछ महिला संपादकों में से एक थीं, जो वामपंथी विचारधारा के प्रति रुझान रखती थीं। वह दक्षिणपंथी हिंदुत्व राजनीति की मुखर आलोचक थीं।

उनका जन्म 29 जनवरी, 1962 में कर्नाटक के बैंगलोर में हुआ था। गौरी लंकेश के पिता का नाम पी. लंकेश था, जो एक कवि–पत्रकार थे। उन्होंने कन्नड़ भाषा के साप्ताहिक टैब्लॉयड लंकेश पत्रिके की स्थापना की थी। पी. लंकेश अपनी लंकेश पत्रिके चलाते थे, जिसमें वह विज्ञापनों को नहीं डालते थे। वह स्वतंत्र पत्रकार थे और विज्ञापनों के ज़ोर से सच को नहीं छुपाते थे। गौरी की मां का नाम इंदिरा लंकेश था। उनके 2 भाई–बहन थे- इंद्रजीत और कविता। गौरी ने बैंगलोर के सेंट्रल कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी और दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की थी। 

55 वर्षीय गौरी अपने अल्पसंख्यक और दलित समुदाय समर्थक विचारधारा के लिए जानी जाती थीं और वह कन्नड़ पत्रकारिता में उन कुछ महिला संपादकों में से एक थीं, जो वामपंथी विचारधारा के प्रति रुझान रखती थीं। वह दक्षिणपंथी हिंदुत्व राजनीति की मुखर आलोचक थीं।

शुरुआती जीवन और काम 

बेंगलुरु में पली-बढ़ी गौरी ने 80 के दशक के मध्य में दैनिक समाचार पत्र द टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए काम किया। पहले वह अपने शहर में काम की और फिर दिल्ली में। वह 1989 में बेंगलुरु लौट आईं और 90 के दशक के अंत में कन्नड़ भाषा के टेलीविजन पर स्विच करने से पहले, जो अब बंद हो चुकी है, अंग्रेजी भाषा की पत्रिका संडे के लिए रिपोर्टिंग करने लगीं। यहां उन्होंने संवाददाता के रूप में 9 साल काम किया। उन्होंने अपने पिता पी. लंकेश द्वारा शुरू किए गए कन्नड़ साप्ताहिक ‘लंकेश पत्रिके’ में एक संपादक के रूप में काम किया और गौरी लंकेश पत्रिके नाम से अपना साप्ताहिक भी चलाया। वह अंग्रेजी और कन्नड़ भाषा की अच्छी जानकार थी और इन दोनों भाषाओं पर इनकी पूरी पकड़ थी। 

तस्वीर साभार: Times Of India

गौरी ने विभिन्न न्यूज़‌ एजेंसियों में काम किया है। उनके पिता पी. लंकेश की मृत्यु के बाद गौरी और उनके भाई इंद्रजीत ने लंकेश पत्रिके के प्रकाशक मणि से मुलाकात की और उनसे कहा कि वे प्रकाशन बंद करना चाहते हैं। मणि ने उन्हें इसपर दोबारा सोच-विचार करने को मना लिया और ये विचार बदलने को वे राजी हो गए। गौरी तब लंकेश पत्रिके की संपादक बनीं, जबकि उनके भाई इंद्रजीत ने प्रकाशन के व्यावसायिक मामलों को संभाला। लेकिन कुछ समय बाद ही 2001 की शुरुआत में, अखबार की विचारधारा को लेकर गौरी और इंद्रजीत के बीच मतभेद विकसित हो गए। ये मतभेद फरवरी 2005 में तब सार्वजनिक हो गए, जब गौरी की मंजूर की गई पुलिसकर्मियों पर नक्सली हमले के बारे में एक रिपोर्ट पत्रिका में प्रकाशित हुई। मतभेद के बाद गौरी ने अपनी पत्रिका गौरी लंकेश पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया।

गौरी हमेशा से ही अपने संपादकीय के ज़रिए लोगों को समाज में बढ़ रहे असहिष्णुता, खुले आम फैलाई जा रही सांप्रदायिकता और धर्म का झांसा देकर फैलाए जा रहे नफरत की कट्टर आलोचक थीं। वह सांप्रदायिकता, भगवाकरण, वर्ण व्यवस्था इन सबके खिलाफ थीं और बड़ी ही बेबाकी से इन सारी चीज़ों की आलोचना भी करती थीं।

गौरी की राजनीतिक विचारधारा

 गौरी हमेशा से ही अपने संपादकीय के ज़रिए लोगों को समाज में बढ़ रहे असहिष्णुता, खुले आम फैलाई जा रही सांप्रदायिकता और धर्म का झांसा देकर फैलाए जा रहे नफरत की कट्टर आलोचक थीं। वह सांप्रदायिकता, भगवाकरण, वर्ण व्यवस्था इन सबके खिलाफ थीं और बड़ी ही बेबाकी से इन सारी चीज़ों की आलोचना भी करती थीं। 2012 में, मैंगलोर में सांप्रदायिक समूहों पर प्रतिबंध की मांग करते हुए एक विरोध प्रदर्शन में भाग लेते हुए, उन्होंने कहा था कि हिंदू धर्म एक धर्म नहीं है बल्कि ‘समाज में पदानुक्रम की प्रणाली’ है जिसमें ‘महिलाओं को दोयम दर्जे का प्राणी माना जाता है’। वह प्रेस की स्वतंत्रता की वकालत करने के लिए जानी जाती थीं। वह भारतीय जनता पार्टी की, उनकी रूढ़िवादिता की भी कड़ी आलोचक रही हैं। वह वामपंथी विचारधारा धारा को मानने वाली पत्रकार थी और एक बराबर समाज की कामना भी करती थीं। 

गौरी पर दर्ज हुआ मानहानि का मुकदमा

नवंबर 2016 में, उन्हें 2008 में प्रकाशित एक लेख के लिए आपराधिक मानहानि का दोषी ठहराया गया था। भाजपा सांसद प्रह्लाद जोशी और उमेश धूसी ने लेख के खिलाफ आपत्ति जताई थी, जिसके नतीजन उन्हें छह महीने की सजा और जुर्माना लगाया गया था। हालांकि उसी दिन उन्हें जमानत मिल गई थी।

तस्वीर साभार: Hindustan Times

वह अपने खिलाफ मामला खारिज करने की मांग करते हुए, मामले को उच्च न्यायालय में ले गईं। साल 2016 में हाई कोर्ट ने केस खारिज करने से इनकार कर दिया और निचली अदालत में सुनवाई जारी रखने के निर्देश दिए। हालांकि उच्च न्यायालय ने मामले पर चार सप्ताह की रोक लगा दी, और निचली अदालत को छह महीने के भीतर मुकदमा पूरा करने का निर्देश दिया।

साल 2016 में हाई कोर्ट ने केस खारिज करने से इनकार कर दिया और निचली अदालत में सुनवाई जारी रखने के निर्देश दिए। हालांकि उच्च न्यायालय ने मामले पर चार सप्ताह की रोक लगा दी, और निचली अदालत को छह महीने के भीतर मुकदमा पूरा करने का निर्देश दिया।

भाजपा, आरएसएस और गौरी

गौरी हमेशा से ही हिंदुत्व राजनीति की विरोधी रही हैं। साथी ही, भाजपा और आरएसएस के विचारधाराओं की कट्टर आलोचक रही हैं। गौरी खुले तौर पर जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मणवाद की कड़ी आलोचक रही हैं। केंद्र सरकार और उनके बीच हमेशा मतभेद रहे हैं। जहां केंद्र में बीजेपी सरकार हिंदुत्व विचारधारा को बढ़ावा देती रही है, गौरी समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देती हैं जिसमें सभी लोगों को बिना किसी  भेदभाव के समान अधिकार मिले और शांतिपूर्ण जीवन जी सके। वह स्वतंत्र मीडिया की वकालत करती थीं और ऐसा मानती थीं कि भारत जैसे लोकतंत्र में मीडिया को स्वतंत्र होना ही चाहिए। उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी की प्रकार का दवाब नहीं होना चाहिए।

गौरी लंकेश की हत्या

5 सितंबर 2017 की शाम तकरीबन 8 बजे के करीब बेंगलुरु के राजराजेश्वरी नगर स्थित उनके घर के बाहर गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी। पुलिस के मुताबिक हमलावर या तो लंकेश का काम से घर लौटते समय पीछा कर रहे थे या पड़ोस में उसके आने का इंतजार कर रहे थे। बीबीसी ने इसे हाल के वर्षों में सबसे हाई-प्रोफ़ाइल पत्रकार की हत्या बताया। न्यूयॉर्क टाइम्स ने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा फॉलो किए जाने वाले कई खातों ने लंकेश की हत्या के जवाब में “घृणित” ट्वीट पोस्ट किए थे, जिससे भारत में बहस छिड़ गई।

तस्वीर साभार: Columbia Journalism Review

‘मैं गौरी हूं’ के नारे के साथ पूरे भारत में विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो गए थे। उनकी मौत के एक महीने के भीतर, उनके काम को मरणोपरांत अन्ना पोलितकोवस्काया पुरस्कार प्रदान किया गया था, जिसका नाम एक रूसी पत्रकार के सम्मान में रखा गया था जिनकी 2006 में मॉस्को में हत्या कर दी गई थी। यह पुरस्कार रीच ऑल वूमेन इन वॉर द्वारा संस्थापित किया गया था। गौरी से पहले यह पुरुस्कार केवल 11 महिलाओं को मिली थी। वह 12वीं महिला हैं और पहली भारतीय महिला थीं जिन्हें इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

गौरी हमेशा से ही हिंदुत्व राजनीति की विरोधी रही हैं। साथी ही, भाजपा और आरएसएस के विचारधाराओं की कट्टर आलोचक रही हैं। गौरी खुले तौर पर जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मणवाद की कड़ी आलोचक रही हैं।

आज भी गौरी लंकेश का नाम क्यों प्रासंगिक है

दुनिया में ऐसे कई पत्रकार हैं जो अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाते हैं, सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं। वह सिर्फ एक विचारधारा का समर्थन नहीं करते बल्कि वह खुद ही एक विचारधारा बन जाते हैं। गौरी उन कुछ गिने–चुने पत्रकारों में से एक थीं। एक महिला पत्रकार होना आम बात नहीं है और हिंदुत्व, ब्राह्मणवाद, जातिवाद जैसी मजबूत विचारधाराओं की कट्टर आलोचक होना और भी मुश्किल। गौरी उस समय पत्रकारिता के जरिए सामाजिक अन्याय और मीडिया की स्वतंत्रता की बात कर रही थी जो आज भी प्रासंगिक है। मीडिया की बात करें, तो रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स 2023 की रिपोर्ट अनुसार  प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में  भारत 180 देशों में से 161वें स्थान पर है।

साल 2022 में भारत 150वें स्थान पर था। इन आंकड़ों से यह साफ मालूम पड़ता है कि भारत में पत्रकारों की स्वतंत्रता को कितना खतरा है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के बावजूद, पत्रकारों की जान जा रही है। 2014 के बाद से भारत में पत्रकारों की स्थिति काफी चिंताजनक हो गई हैं। 2014 के बाद से बहुत से पत्रकारों को उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस्तेमाल करने के लिए जेल में डाला गया। हालांकि जिन विचारधाराओं की आलोचक गौरी थीं, वह आज भी समाज में बड़ी आसानी से देखने को मिल रही है। गौरी लंकेश की मौत को कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनकी मौत इस बात को चीख–चीख कर कहती है कि प्रेस की आज़ादी पर दवाब डाला जा रहा है और आज पहले से कहीं ज्यादा हमें अच्छे, जिम्मेदार और समावेशी पत्रकारिता की जरूरत है।  

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