आज भी सैद्धांतिक रूप से मुख्यधारा का नारीवाद अपने भीतर की खामियों को दूर करने की राह पर है। ये वे खामियां हैं जिसकी जड़ें भारतीय नारीवाद के विकास के इतिहास में उभरकर आनी शुरू हुईं। इतिहास में मुख्यधारा के नारीवादी विमर्श में दलित महिलाओं को जोड़ने का सवाल और बहस इन्हीं खामियों से संबंधित हैं। भारतीय समाज में दलित महिलाओं के साथ सदियों के शोषण, अपमान, भेदभाव और उत्पीड़न में न केवल उनका ‘महिला होने’ का कारण शामिल है बल्कि ‘तथाकथित निचली जाति से होने’ का कारण भी बराबर शामिल है। जैसे अफ्रीकन-अमेरिकन समाज में ब्लैक महिलाएं एक महिला होने की वजह के साथ-साथ नस्लवाद जैसी वजह से भी दोहरे भेदभाव का सामना करती हैं। ऐसे दोहरे भेदभाव की प्रवृति दलित महिलाओं के साथ भी दिखाई देती है। दलित महिलाओं को लैंगिक भेदभाव, छुआछूत और जाति आधारित अत्याचारों के कारण तथाकथित उच्च जाति के लोगों द्वारा तो प्रताड़ित किया ही गया, साथ ही अपने पुरुषों के द्वारा भी सताया गया है जिसकी असल वजह ‘ब्राह्मणवादी व्यवस्था’ है।
सत्तर के दशक में नारीवाद अपने शुरुआती दौर में केवल तथाकथित उच्च जाति और पढ़ी-लिखी महिलाओं तक ही सीमित था। अस्सी के दशक में उभरे अधिकांश नारीवादी विद्वानों और महिला कार्यकर्ताओं ने महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार में लैंगिक आधार के कारक को मानक बना दिया। यह वह समय था जब नारीवाद दलित महिलाओं की स्थितियों पर बारीकी से गौर करने में असफल रहा। जब दलित संगठनों ने मुख्यधारा के नारीवाद की इस अनदेखी पर सवाल उठाने शुरू किए तो इस विचार को गढ़ने की कवायद शुरू होने लगी कि दलित महिलाओं के अनुभवों में कोई विशेष बात शामिल नहीं है। ऐसे में दलित महिलाओं को एक बड़ी ऐतिहासिक घटना से बाहर रखने की स्थिति ने शोषणकारी सामाजिक स्तरीकरण/पदानुक्रम/हायरार्की के तहत जाति जैसी संस्था को और मजबूत किया। इस चूक ने दलित महिलाओं को यह अहसास कराया कि भारतीय नारीवादी आंदोलन में दलित महिलाओं के मुद्दों को मुख्यधारा की चर्चाओं से जोड़ने के लिए कोई स्थान नहीं है लिहाज़ा इन महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न में उनकी जाति सबसे पहली अत्यंत गंभीर पहलुओं में शामिल है।
नारीवादी इतिहासकार उमा चक्रवर्ती ‘ग्रेडेड पितृसत्ता’ और ‘दलित पितृसत्ता’ जैसे शब्दों का जिक्र कर पितृसत्ता को बहुल बनाने का प्रयास करती हैं, यह तर्क देते हुए कहती हैं कि दलित महिलाएं पितृसत्ता को अनोखे तरीके से अनुभव करती हैं।
ऊपर बहस के परिणाम से रूप में, यहां से शुरू होती है भारतीय मुख्यधारा के नारीवाद के भीतर कई सैद्धांतिक बहसों के बीच अपने अस्तित्व की स्वतंत्र पहचान को दर्ज करने की शुरुआत करने वाले ‘दलित नारीवाद’ की अपनी एक बुलंद आवाज़ है। दलित नारीवाद के सिद्धांतकार मानते हैं कि दलित नारीवाद ‘होमोजेनस’ न हो होकर कई पहचान का समावेशन करता है जैसे लिंग, जाति, सेक्सुअलिटी जो इसे ‘हेटेरोजेनस’ बनाता है। भारत में दलित नारीवाद के विकास के इतिहास का उद्भव तमाम सार्वजनिक बहसों से होता हुआ अकादमिक विमर्श का हिस्सा कैसे बनता है इसे समझना आवश्यक है।
‘मुख्यधारा का नारीवाद’ बनाम ‘दलित नारीवाद’
![](https://hindi.feminisminindia.com/wp-content/uploads/2025/02/Featured-Part-2-RitikaB-2.png-1024x576.webp)
भारत में सत्तर के दशक में मुख्यधारा का नारीवाद आंदोलन की तीव्र होती लहर में दलित महिलाओं की स्थितियों को संबोधित करने में चूक करता रहा। राष्ट्रीय महिला सम्मलेन (1982) ने साल 1994 में हुए पांचवें सम्मलेन तक दलित महिलाओं के मुद्दों को सम्मिलित नहीं किया। वे अभी भी दलित महिलाओं के मुद्दों को तथाकथित उच्च जाति से संबंध रखने वाली महिलाओं के मुद्दों के अंतर्गत रखकर ही उन पर सामान्य राय बना रहे थे। 1990 के दशक में उभरता दलित नारीवाद भारतीय समाज को समझने के लिए जिस महत्वपूर्ण सैद्धांतिक अवधारणा का उपयोग करता है वह ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के प्रभाव की अवधारणा है। दलित आंदोलन ने इस अवधारणा के जरिये नारीवादी आंदोलन का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश जो कि भारतीय नारीवादी आंदोलन के बीच से गायब थी।
भारत में नब्बे के दशक में दलित नारीवादी की शुरुआत से काफी पहले कई दलित महिला संगठनो और राजनीतिक आंदोलनों की बड़े पैमाने पर भागीदारी रही है। इन्होंने भारतीय नारीवाद की विफलताओं और इससे जुड़ी गंभीर आलोचनाओं और बहसों को शुरू किया। साल 1980 के मध्य में युवा दलित नारीवादियों ने ‘महिला संसद’ का गठन किया। साल 1990 के दशक तक आते-आते ‘नैशनल फेडरेशन ऑफ दलित वुमेन’ को महाराष्ट्र में और साल 1995 में राष्ट्रीय स्तर पर नई दिल्ली में गठित किया गया। साल 1990 में ‘ऑल इंडिया दलित वीमेन फोरम’ का गठन किया गया। ‘नैशनल फेडरेशन ऑफ दलित वुमेन’ ने मुख्यधारा के नारीवाद की सैद्धांतिक नींव पर सवाल उठाए। फेडरेशन का तर्क था कि मुख्यधारा के नारीवाद से जुड़े विमर्श में प्राथमिक रूप से केवल ‘वर्ग और लिंग’ से जुड़े सवालों को ही स्थान दिया गया है। उनके दृष्टिकोण में ‘जाति और लिंग’ से संबंधित प्रश्न की अनदेखी की गई है।
मुख्यधारा के नारीवादियों ने अपने मुद्दों और समस्याओं को ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ के इर्द-गिर्द रखा पर वहीं दलित महिलाओं की स्थिति को ‘दलित पितृसत्ता’ के खांचे में स्थित करने की कोशिश की। दलित नारीवादियों ने विद्वानों के इस विभाजन को गैरजिम्मेदार मानते हुए तर्क दिया कि मुख्यधारा के नारीवाद जाति-वर्ग विशेषाधिकार का आनंद उठाते हैं और दलित महिलाओं के मुद्दों को नारीवाद के लिए केंद्रीय नहीं समझते क्योंकि दलित महिलाओं से जुड़े मुद्दे उनकी समस्या नहीं हैं। दलित महिलाओं के मुद्दे की जड़ ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ है, न कि ‘दलित पितृसत्ता’। दलित पितृसत्ता के प्रभाव की जड़ें प्रत्यक्ष रूप से ब्राह्मणवादी पितृसत्ता में ही निहित हैं।
‘दलित पितृसत्ता’ जैसी अस्पष्ट अवधारणा को ज़िम्मेदार ठहरना
मुख्यधारा के नारीवाद ने ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ के पूरक एक अलग शब्द ‘दलित पितृसत्ता’ को गढ़ने की कोशिश की। राजनीतिक विद्वान गोपाल गुरु ने 1995 में दलित महिलाओं पर उनकी जाति के भीतर मौजूद पितृसत्ता का ज़िक्र किया। वर्तमान दलित नारीवाद के विद्वानों का कहना है कि मुख्यधारा का नारीवाद इसी विचार को और पोषित कर आगे बढ़ा रहे हैं। ‘दलित पितृसत्ता’ को ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ से अलग एक अवधारणा के रूप में विकसित करने की कोशिश की गई, लेकिन इस विचार को दलित नारीवादियों द्वारा निरर्थक और भ्रामक माना गया। क्योंकि इस विचार के द्वारा मुख्यधारा का नारीवाद दलित नारीवाद के मुद्दों से बचने की कोशिश कर रहा था। जिसे दलित नारीवाद गलत ठहराते हुए विरोध कर रहा था।
नारीवादी समाजशास्त्री वी. गीता दलित पुरुषों द्वारा पितृसत्तात्मक प्रथाओं को संदर्भित करती हैं। वह अपने इस संदर्भ में कहती हैं कि दलित पुरुषों को उच्च जाति के पुरुषों द्वारा शोषण के तहत ताने भी सहने पड़ते हैं। अपनी महिलाओं की रक्षा करने में सक्षम न होने की दशा में उनकी ‘मर्दानगी’ को ठेस पहुंचती है। बदले में इसका परिणाम यह होता है कि वे अपने परिवार में भी आक्रामक व्यवहार करने लगते हैं। दलित महिलाओं के बारे में वी. गीता का यह विश्लेषण दलित नारीवादियों ने बेहद उथला और आधारहीन करार दिया। नारीवादी इतिहासकार उमा चक्रवर्ती ‘ग्रेडेड पितृसत्ता’ और ‘दलित पितृसत्ता’ जैसे शब्दों का जिक्र कर पितृसत्ता को बहुल बनाने का प्रयास करती हैं, यह तर्क देते हुए कहती हैं कि दलित महिलाएं पितृसत्ता को अनोखे तरीके से अनुभव करती हैं।
दलित नारीवादियों का मानना था कि सिद्धांतकार दलित महिलाओं की स्थिति के लिए केवल दलित पितृसत्ता को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। वहीं मुख्यधारा का नारीवाद अपनी समस्याओं को ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ के तहत अभिव्यक्त करते हैं। इस तरह से वे अपने ‘वर्ग और लिंग’ की नींव पर आधारित नारीवाद की अवधारणा पर ही केंद्रित रहते हैं और ऐसा करके वे दलित महिलाओं को अपने आंदोलन से अलग रखते हैं।
समाजशास्त्री और नारीवादी विद्वान शर्मिला रेगे ‘दलित नारीवादी दृष्टिकोण’ (दलित फ़ेमिनिस्ट स्टैंडपॉइन्ट) पर बल देती हैं। उनका कहना था कि पुरुषों के नेतृत्व में चलाए गए जाति-विरोधी आंदोलनों से दलित महिलाओं को दूर रखा गया है। वह तर्क देती हैं कि ‘दलित नारीवादी दृष्टिकोण’ दलित नारीवादी बुद्धिजीवियों के कार्यों और प्रयासों के माध्यम से पैदा हो सकता है। वह आंबेडकर की जाति की परिभाषा को समर्थन करते हुए इस तर्क को आगे बढ़ाती हैं कि जब तक महिलाओं की ‘यौनिकता और प्रजनन’ पर पुरुषों का नियंत्रण रहेगा तब तक जाति का सहविवाह (केवल जातियों के भीतर विवाह) बना रहेगा। वह दलित महिलाओं के उत्पीड़न और उन्हें नियंत्रित करने में यौन राजनीति को जाति और लिंग दोनों को गहराई से जोड़ कर परखती हैं।
आंबेडकर का ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ का विचार
![](https://hindi.feminisminindia.com/wp-content/uploads/2025/02/IMG_0961-1024x576.jpg)
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ एक ऐसी महत्वपूर्ण विशेषता है कि कोई भी जाति इससे अछूती नहीं रह सकती। वह आगे तर्क देते हैं कि भारत में हर जाति के लोग ब्राह्मणवादी व्यवस्था द्वारा निर्धारित पितृसत्ता का पालन करते हैं। इसके माध्यम से ही पितृसत्ता एक ‘दिव्य आदेश’ (डिवाइन ऑर्डर) की तरह हमारे ज़ेहन में गढ़ी जाती है जिसके मूल में ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ है। यह ‘दिव्य आदेश’ बाकी जातियों में ‘पुरुषत्व’ का एक आदर्श प्रस्तुत करता है और ‘स्त्रीत्व’ के साथ ‘पावर डायनामिक’ जैसे विचार को स्थापित करता है। ब्राह्मण पितृसत्ता से प्रभावित इन जातियों में, ‘पावर डायनामिक’ दोनों लिंगो के बीच असमान संबंधों की बात करता है जो लिंग हायरार्की और नियंत्रण को बढ़ावा देता है।
आंबेडकर के अनुसार ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ और “वर्ण व्यवस्था’ दोनों गहराई से आपस में जुड़े हुए हैं। ऐसी बहुमुखी व्यवस्था पूरे भारत में फैली हुई है जो कि दलित समाज में संस्कृतीकरण की प्रक्रिया के जरिये हर समुदाय में मजबूती से जमी हुई है। हर जाति का व्यक्ति अपने से ऊपर की जातियों द्वारा भेदभाव अनुभव करता है और साथ ही कमज़ोर पुरुष होने की बातें भी सुनता है। जाहिर है कि यह बात हर समाज में एक अनोखा रूप लेगी और इसके विस्तार की जड़ें ब्राह्मणवादी व्यवस्था में शामिल हैं। वर्तमान के दलित नारीवादी शोधकर्ता पितृसत्ता को जातियों के अनुभवों के आधार पर सीमित करने की इस संस्कृति को ‘फैलसी ऑफ इनफिनिट रग्रेस’ का नाम देते हैं। जैसे अगर किसी विशेष समुदाय के पुरुषों की पितृसत्तात्मक प्रथाओं को उनकी जाति के नाम से नामित करते हैं, जैसे शूद्र पितृसत्ता, महार पितृसत्ता आदि। ऐसी पितृसत्ताएं असंख्य होंगी। ऐसे में मुख्यधारा का नारीवाद ‘दलित पितृसत्ता’ को जिम्मेदार ठहराते हुए ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ से ध्यान भटकाने की कोशिश करते हैं।
दलित नारीवाद में दलित साहित्य की भूमिका
दलित महिला साहित्य सबसे पहले 1960 के दशक में मराठी भाषा में उभरा। देश के अलग-अलग भाग से दलित नारीवादियों ने अपना योगदान दिया। दलित नारीवाद को अधिक प्रभावशाली बनाने में मराठी दलित साहित्य का विशेष योगदान रहा है। बाद में कविताओं और आत्मकथाओं के माध्यम से हिंदी, तेलुगु, कन्नड़ और तमिल भाषाओं में सामने आया। दलित महिलाओं की आत्मकथाएं इसमें सबसे ज्यादा अग्रणी रही। इनमें कुमुद पावड़े की ‘अंतःस्फोट’ (1981), बेबी कांबले की ‘जिणं आमुचं’ (1986), उर्मिला पवार की ‘आयदान’ (1988), शांताबाई कृष्णाजी कांबले की ‘माज्या जल्माची चित्तरकथा’ (1988), तमिल में लिखी गई बामा की ‘करुक्कू’ (1992), कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ आदि ऐसी आत्मकथाएं हैं जिनमें हमें दलित नारीवाद की झलक उजागर होती है। दलित महिलाओं की आत्मकथाओं ने अपने समुदाय के भीतर और बाहर दोनों जगह अपने अस्तित्व के हाशिएकरण से संबंधित मुद्दों को उजागर किया। ये आत्मकथाएं न केवल दलित महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव और शोषण के अनुभवों को सामने रखती हैं बल्कि सदियों से कायम अन्यायपूर्ण यथास्थिति का भी विरोध करती हैं।
याशिका दत्त के शब्दों में दलित नारीवाद की प्रासंगिकता
‘कमिंग आउट एज़ अ दलित’ की लेखिका और पत्रकार यशिका दत्त के साथ हुई बातचीत में वह दलित नारीवाद को बेहद व्यावहारिक और प्रासंगिक शब्दों में हमें बताती हैं। उनका कहना है, “भले ही दलित महिलाओं में नारीवाद दिखाई दे रहा हो या न रहा हो, वे सैद्धांतिक रूप से अपनेआप को अभिव्यक्त कर पाएं या न कर पाएं, भारतीय नारीवादी आंदोलनों में उन्होंने हिस्सा लिया या न लिया हो, जिस तरह दलित महिलाओं में उत्पीड़न के विरूद्ध समझ विकसित हो रही है, वे सहज रूप से नारीवाद को समझती हैं। वे इस विचार को अपने भीतर समाती भी हैं और इसे रोज़ाना जीती हैं।”
जब बात आती है दलित महिलाओं की प्रगति और शिक्षा हासिल करने की इच्छाओं की तो डॉ. बी. आर. आंबेडकर के नारा ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ इन महिलाओं पर भी लागू होता है। याशिका यहां अपने संस्मरण ‘कमिंग आउट एज़ अ दलित’ में अपने माँ के अनुभवों का ज़िक्र करते हुए बताती हैं कि उनकी माँ के भीतर पढ़ने-लिखने और आगे बढ़ने की इच्छा हमेशा से ही प्रखर और स्पष्ट रही थी। उनका परिवार दलित और शिक्षित होते हुए भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था से प्रभावित था जिससे वह कई तरह की रोक-टोक और प्रतिबंधों का सामना किया करती थीं। इन प्रतिबंधों के बीच याशिका की माँ ने 1980 में अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन पूरी की। साथ ही उन्होंने अपनी स्थितियों से समझते हुए इस बात का दृढ़ता से निश्चय किया कि इन रुकावटों की वजह से जो कुछ उनकी माँ नहीं कर पाईं, ऐसी रुकावटें वह अपनी बेटी पर नहीं लागू करेंगी।
याशिका आगे बताती हैं, “अगर उनकी माँ के उदाहरण को नारीवादी नज़रिए से देखेंगे तो न ही उन्होंने नारीवादी परेड में भाग नहीं लिया और अगर आप उनसे नारीवादी होने के बारे में पूछेंगे तो वो बोलेंगी भी नहीं की वो एक नारीवादी हैं। लेकिन उनका जो एक्शन और रवैया है अपने और उनके बच्चों के प्रति उन्हें एक-समान शिक्षित करना वो नारीवादी मूल्यों को ही रिफ्लेक्ट करते हैं। ऐसा केवल एक उदाहरण नहीं है बल्कि पूरे भारत में ऐसे कई किस्से सुनने को मिलेंगे जहां दलित महिलाएं पितृसत्तात्मक समाज से लड़ने और उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज़ उठाने की कोशिशें करती हैं। यह सब शिक्षा की वजह से ही संभव है।”
याशिका बताती हैं, “अगर सवर्ण नारीवाद के इतिहास पर नजर डालें तो दलित महिलाओं के इस तरह के असाधारण कदम को हमेशा नारीवादी नहीं माना गया है। सवर्ण नारीवाद के अपने विकास के कई दशकों तक सवर्ण महिलाओं की समस्याओं और मुद्दों पर ही ध्यान केंद्रित किया चाहे वे कार्यस्थल में समानता से जुड़े हो या सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच से जुड़े मुद्दे हों। भारत की सीमाओं से परे जाकर हमें दलित नारीवाद की झलक देती हैं और अपने अनुभव साझा करती हैं।” वह आगे बताती हैं कि यूएसए में दलित लोगों की आबादी बेहद छोटी है। लेकिन प्रवासी भारतीयों में दलितों के साथ विशेषकर दलित महिलाओं के खिलाफ अभी भी भेदभाव बरता जाता है। प्रवासी भारतीयों में दलित महिलाएं बहुत सक्रिय हैं जैसे कैलिफ़ोर्निया के ऑकलैंड में ‘इक्वलिटी लैब्स’ की शुरुआत करने वाली थेनमोझी सुंदरराजन एक दलित भारतीय अमेरिकी कार्यकर्ता हैं। वहीं प्राची पाटणकर (समाजशास्त्री गेल ओमवेट की बेटी, जिन्होंने जातीय संबंधों के बारे में विस्तार से लिखा) एक बहुजन समाज से आती हैं वह अमेरिका में भेदभाव की प्रकृति के बारे में बात करती हैं। वह इस बारे में भी बात करती हैं कि किस तरह अमेरिका में बढ़ता हिंदू कट्टरवाद जाति से जुड़े विचारों को प्रभावित कर रहा है।
सोर्सः
- Arya, Sunaina, and Aakash Singh Rathore, eds. Dalit Feminist Theory: A Reader. Routledge, 2020. [introduction, indian feminism and dalit patriarchy, dalit women’s agency and phule-ambedkarite feminism]
- John, M. E. (Ed.). (2008). Women’s studies in India: A reader. Penguin Books India. [Dalit women: the conflict and the dilemma]
- Rege, Sharmila. Writing Caste/Writing Gender: Narrating Dalit Women’s Testimonios. New Delhi: Zubaan Books, 2006.
- https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/2918/1/Unit-2.pdf
- https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/40608/1/Unit-2.pdf
- Arya, Sunaina. “Dalit or Brahmanical Patriarchy? Rethinking Indian Feminism.” CASTE: A Global Journal on Social Exclusion, vol. 1, no. 1, Feb. 2020, pp. 217–228. Brandeis University, doi:10.26812/caste.v1i1.54.
- Guru, Gopal. “Dalit Women Talk Differently.” Economic and Political Weekly, vol. 30, no. 41/42, 1995, pp. 2548-2550.
- Chakravarti, Uma. Gendering Caste: Through a Feminist Lens. Revised ed., Sage Publications, 2018.
- FII Poster Series – https://www.instagram.com/p/DDo4gkRtmz0/?igsh=MTFlanh6MXdicG11Nw==