संस्कृतिकिताबें एक शौहर की खातिरः समाज में प्रगतिशीलता के दोहरेपन को बयां करती कहानी

एक शौहर की खातिरः समाज में प्रगतिशीलता के दोहरेपन को बयां करती कहानी

ये लघु कहानी अपने छोटे आकार के बावजूद अपने भीतर कितनी ही पहलुओं को समेटे हुए है। इस कहानी की नायिका के हवाले से इस्मत ने कुछ जगहों पर उन घरेलू और पुरुषों के निजी कामों जैसे 'उनके कपड़ों का ख्याल रखना’, 'उनके खाने-पीने का ख्याल रखना' का जिक्र किया है जिनकी उम्मीद पत्नियों से की जाती है।

प्रगतिशील लेखक संघ (प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन) से जुड़ी इस्मत चुग़ताई अपने समय के दूसरे प्रगतिशील लेखक-लेखिकाओं से इतर घर के बाहर होने वाली गैरबराबरी और शोषण की बजाय घरों की चारदीवारी के भीतर व्याप्त सामाजिक रूढ़ियों और गैरबराबरी का जिक्र बड़ी बारीकी से किया। इस्मत की कहानियां जितनी यथार्थवादी हैं उतनी ही रोचक हैं। इस्मत की ज्यादातर कहानियों का विषय मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवारों की औरतों के रोजमर्रा के जीवन की घटनाएं हैं। उनकी कहानियों के झरोखों से उनके जीवन की झलक देखी जा सकती है।

इस्मत ने अपने निजी जीवन में भी बिल्कुल उसी तरह का बागी रुख अख्तियार किया जैसी बगावत की उनकी लेखन शैली में दिखती है। बहनों की शादी के बाद अपने भाइयों के साथ पली-बढ़ी इस्मत ने ना केवल हर कदम पर अपने भाइयों के लिंग आधारित श्रेष्ठता को चुनौती दी तथा गुल्ली डंडा, फुटबॉल और घुड़सवारी सहित वो सारे काम किए जिन्हें करने की लड़कियों को मनाही थी; बल्कि अपने जिद्द से अपने माता-पिता को मजबूर किया कि वे उनकी उच्च शिक्षा के लिए मान जाए। उनके लिए बराबरी का लक्ष्य केवल घरेलू ज़िंदगी तक सीमित ना होकर भावनाओं विचारों के स्तर तक का है। निजी जीवन की तरह ही इस्मत ने अपनी कहानियों के माध्यम से भी समाज में प्रचलित स्त्री और पुरुष के बीच होने वाली गैरबराबरी पर बेबाकी से सवाल उठाए हैं।

एक ट्रेन में बिना पुरुषों के अपने बच्चों के साथ, भारी भरकम ढेर सारा सामान लेकर यात्रा करती महिलाएं आधुनिक युग की बात लग सकती है लेकिन समाज में जड़े जमाए पितृसत्ता ने आत्मनिर्भर दिख रही इन महिलाओं की पहचान को पूरी तरह से इनके शौहरों की पहचान से जोड़ रखा है।

इस्मत की इसी तरह की एक लघु कहानी है ‘एक शौहर की ख़ातिर’ यह लघु कहानी रेल से जोधपुर से बम्बई का अकेले सफर कर रही है एक महिला के यात्रा के अनुभवों पर आधारित है। इस तरह यह कहानी यात्रा के शुरुआत के साथ शुरू होती है और यात्रा की समाप्ति पर खत्म होती है। वैसे तो इस कहानी द्वारा इस्मत ने आधुनिक कहे जाने वाले समाज में भी औरत की पहचान को पुरुष से जोड़कर ही देखने की प्रवृत्ति को चिन्हित किया है। लेकिन कहानी के नायिका के शब्दों के हवाले से इस्मत पितृसत्ता को चुनौती देती दिखती हैं। यह कहानी बखूबी दर्शाती है कि कैसे प्रगतिशील कहा जाने वाला आधुनिक युग भी पितृसत्ता से मुक्त नहीं है।

एक ट्रेन में बिना पुरुषों के अपने बच्चों के साथ, भारी भरकम ढेर सारा सामान लेकर यात्रा करती महिलाएं आधुनिक युग की बात लग सकती है लेकिन समाज में जड़े जमाए पितृसत्ता ने आत्मनिर्भर दिख रही इन महिलाओं की पहचान को पूरी तरह से इनके शौहरों की पहचान से जोड़ रखा है। साथ ही बार-बार उठने वाले सवाल कि कहां जा रही हो? ससुराल? या मायके? या मियां के पास? चिल्ला-चिल्लाकर गवाही देते हैं कि महिलाओं का मायका होता है, ससुराल होता है लेकिन उनके अपने “घर” नहीं होतें!

ismat chughtai ek shohar ki khatir
तस्वीर साभारः Rekhta

नायिका एक पढ़ी लिखी औरत है जो अपने एक इंटरव्यू के सिलसिले में अकेले बम्बई जा रही है। ट्रेन के जी उगता देने वाले अकेलेपन से परेशान होकर नायिका बोगी में यात्रियों के आने की दुआएं मांगती है। बोगी में आते ही उसकी तीनों महिला सहयात्रियों ने एक ही सवाल से बातचीत की शुरुआत की कि नायिका कहां जा रही है? और इस कहां का मतलब गंतव्य शहर ना होकर माइका, ससुराल या पति के पास है। अगला सवाल शादी का है, नायिका इन सवालों से खीझ कर हर सहयात्री को अलग-अलग जवाब देती है। पहली सहयात्री को जब पता चलता है कि नायिका अविवाहित है तो वो उसे तरस भरी निगाहों से देखती, अच्छे शौहर फांसने के दांव पेंच बता डालती है।

ऐसे नसीहतों से बचने के लिए नायिका दूसरी सहयात्री को कह देती है कि वो शादीशुदा है लेकिन इस सहयात्री को यह भी जानना है कि नायिका का पति क्या करता है और जब उसे पता चलता है कि वो कुली है, तो वह आश्चर्य से भर जाती है कि कुली से शादी कैसे हो सकती है? या नायिका को कुली से प्यार कैसे हो सकता है? कहानी के ये संवाद समाज के आरोपित वर्गीय विभाजन को दिखाता है। प्रेम जैसे सम्बन्ध भी वर्गीय अवधारणा से मुक्त नहीं हैं। जिसके तहत एक ऐसी स्त्री जो पढ़ी लिखी है या मध्यम वर्गीय दिख रही है उसकी शादी एक कुली से नहीं हो सकती, ना ही उसे कुली से प्रेम हो सकता है।

तीसरी सहयात्री के सवाल शौहर से होते हुए बच्चों तक जातें हैं। इस्मत की यह कहानी आज तक जारी उस सामाजिक व्यवस्था की अभिव्यक्ति प्रस्तुत करती है। जिसके तहत स्त्रियों का जीवन का केंद्र विवाह और बच्चे हैं। टिकट चेकर का नायिका को बताते हुए मुस्कुराने को, सहयात्रियों द्वारा ये मान लिया जाता है कि वो पुरुष नायिका को जानने वाला ही होगा। क्योंकि हमारे समाज में महिलाओं और पुरुषों के मध्य होने वाली बातचीत जैसी सामान्य क्रिया को भी बहुत सारे दायरों में बांधने की लगातार कोशिश रही है। कहानी का अंत होता है नायिका के बम्बई पहुंचने पर, शौहर और बच्चों को लेकर किए गए तमाम सवालों से परेशान नायिका अपने गंतव्य स्टेशन पहुंच कर, अधिक सामान तौलवा कर बिल्टी लेने जाती हैं, तो क्लर्क का भी वही सवाल
होता है, आपका नाम…? पति का नाम…?’-‘चुगद(महा मूर्ख)’ नायिका ने गुस्से में दांत भीचते हुए जवाब देती है। और क्लर्क ‘मिसेज़ चोखे’ के नाम से रसीद बना देता है। जिसपर चिढ़कर नायिका ने क्लर्क के मुंह पर अपना बटुआ और एक मोटी किताब दे मारती है। और यह सब हुआ केवल एक शौहर के खातिर!

बोगी में आते ही उसकी तीनों महिला सहयात्रियों ने एक ही सवाल से बातचीत की शुरुआत की कि नायिका कहां जा रही है? और इस कहां का मतलब गंतव्य शहर ना होकर माइका, ससुराल या पति के पास है। अगला सवाल शादी का है, नायिका इन सवालों से खीझ कर हर सहयात्री को अलग-अलग जवाब देती है।

ये लघु कहानी अपने छोटे आकार के बावजूद अपने भीतर कितनी ही पहलुओं को समेटे हुए है। इस कहानी की नायिका के हवाले से इस्मत ने कुछ जगहों पर उन घरेलू और पुरुषों के निजी कामों जैसे ‘उनके कपड़ों का ख्याल रखना’, ‘उनके खाने-पीने का ख्याल रखना’ का जिक्र किया है जिनकी उम्मीद पत्नियों से की जाती है। कहानी के एक अंश में नायिका स्त्रियों के भीतर शौहरों के लिए होने वाली धुन से खीझते हुए सोचती है, “हिन्दोस्तान के शौहर इस क़दर मर्ख़ने… नाकें काट लें, तलाक़ें दे दें, बड़ी मुश्किल से मिलें… और मिलें तो निखट्टू, जुआ खेलें… मगर बीवियां हैं कि वारी जा रही हैं… जिसे देखिए अपने या पराए शौहर का रोना रो रही है। कुंवारियां हैं तो शौहर के गीत गा रही हैं… ब्याहियां हैं तो प्रीतम पर फ़िदा… और ये प्रीतम कुत्ते ख़ून थुकवाए दे रहे हैं… इन मज़ालिम माशूक़ाना पर तो ये हाल है अगर ज़रा लाड कर लेते तो ना जाने क्या होता… मैंने सोचा मियाओं के ज़ुल्म में भी कुछ मस्लिहत है।”

ये पंक्तियां, पितृसत्ता ने जिस प्रकार यह व्यवस्था बनाए रखने के लिए स्त्रियों का, उनके भावनाओं का इस्तेमाल किया है उसकी द्योतक हैं। संस्कृति, मर्यादा और परम्परा जैसे बड़े बड़े शब्दों का इस्तेमाल कर के महिलाओं को इस तरह पाला जाता है कि वो कब इस खेल की मोहरा बन जाती हैं उन्हें पता भी नहीं चलता। इस लघु कहानी में वर्णित एक महत्वपूर्ण अन्य पहलू है, आज भी औरत और मर्द के संबंधों को रहस्यात्मक बना उसे सामान्य नहीं रहने दिया जाना। एक स्त्री और पुरुष अगर बिना किसी सामाजिक रूप से वैध माने जाने वाले रिश्ते के, केवल दो इंसानों की तरह आपस में बातचीत कर लें तो इसे भी संदेहात्मक तरीके देखा जाता है। बीसवीं सदी में लिखी यह कहानी इक्कीसवीं सदी के ढाई दशक बीतने के बाद आपको अपने या अपने आस पास के लोगों के जीवन से मेल खाती नज़र आएगी। यह इस्मत के उनके समय से आगे होने के साथ-साथ, हम सबके लिए समान सामाजिक जीवन के लक्ष्य की दिशा में कितना कम आगे बढ़े है उसका भी गवाह है।


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