संस्कृतिकिताबें पोखर भर दुख: बाज़ारवाद, सामंतवाद से छली स्त्रियों की अनकही संवेदना

पोखर भर दुख: बाज़ारवाद, सामंतवाद से छली स्त्रियों की अनकही संवेदना

बाज़ारवाद की बुराइयों को उसके हर रोज बढ़ते खतरे को मृदुला देखती हैं। पोखर के नष्ट होने के परिणाम को भी जानती है और कहती हैं कि सौदागरों ने नोच लिया उसके प्रेम के सांचे को।

मृदुला सिंह की कविताओं में लोकजीवन में स्त्री का दुख-सुख अपने गहन और गझिन संवेदना के साथ उपस्थित है। छत्तीसगढ़ के अम्बिकापुर में होलीक्रॉस वीमेंस कॉलेज में अध्यापन का काम करती मृदुला सिंह ने स्त्री और हाशिये के लोगों की पीड़ा को अपने शब्दों में उतारा है। छत्तीसगढ़ के सरगुजा में रहकर आदिवासी जनजीवन को मृदुला ने बहुत करीब से देखा औऱ अपनी कविताओं में दर्ज किया है। उनकी कविताएं को पढ़ते हुए पता चलता है कि आदिवासी स्त्रियों के कठिन जीवन संघर्ष और उनकी जिजीविषा को देखकर उसे कविता में दर्ज करना मृदुला जानती हैं। 

‘पोखर भर दुख’ में बाज़ारवाद और पूंजीवाद के बढ़ते कदम से राह में पड़नेवाले एक पोखर यानी तालाब के नष्ट होने का दुख है। कविता में पोखर कवि की राह में पड़ता है। आवाजाही की राह पर एक पोखर का पड़ना जीवन में नमी का होना होता है । कविता में वह कहती हैं,

वो मेरे रास्ते के साथी
तुम्हें देखकर ही सीखती आयी हूं
दुर्दिनों में खुश रहने का राग
तुम्हारे वजूद को नष्ट कर देना
जीवन में नमी को नष्ट कर देना है

बाज़ारवाद की बुराइयों को उसके हर रोज बढ़ते खतरे को मृदुला देखती हैं। पोखर के नष्ट होने के परिणाम को भी जानती है और कहती हैं कि सौदागरों ने नोच लिया उसके प्रेम के सांचे को। स्त्री के दुख साथ धरती का दुख जैसे एकमेव हो जाता है। मृदुला की कविताओं में। कविता में वह लिखती हैं,

आते-जाते देखती हूं रास्ते का उदास पोखर
और उसपर गुजरने मौसमो को भी
कुमुद का बड़ा प्रेमी पुरइन पात पर लिये प्रेम उसका अंतस में सोख लिया करता है
और पी लिया करता है धरती का दुःख भी तपिश के दिनों में

बाज़ार की भेंट चढ़े पोखर को मृदुला किसी प्रेमी मन के दुख की तरह देखती हैं जहां उदासी और उजाड़ है। बाज़ार धरती की छाती पर रोज़ उग रहा है लेकिन राज्य और समाज किसी मे भी इसकी कोई चिंता नहीं दिखती। मृदुला इस दुख इस कविता में आगे के अंश में लिखती हैं,

कार्तिक बीता औऱ बाजार को भेंट हुए कमल कमलिनी
कमलनाल के ठूंठों से बिधी बची रही पोखर की छाती
रोपी गयी सुंदरता अस्थायी थी
जो बिक गयी बाजार
अब कौन आएगा इस ठाँव
ठूँठ की बस्ती में भला कौन ठहरता है
गाय गोरू आते हैं पूछते हैं हाल
दादुर मछली और घोंघे बतियाते हैं मन भर
पांत में खड़े बगुले किनारे से सुनते हैं उसके मन का अनकहा
नया फरमान आया है कि यहाँ अब बनेगा बारातघर
फालतू जगह घेरे है
स्विमिंग पूल तो हैं फिर शहर में पोखर का क्या काम।

‘सपनों का कॉपीराइट’ कविता में मृदुला उन गरीब और लाचार लड़कियों के सपने को जैसे अपनी आँख से देख रही हैं। जानती हैं कि हर लड़की की आँख में गुलाबी सपने पलते हैं क्योंकि सपनों पर किसी का कॉपीराइट नहीं उसे अमीर गरीब कोई भी मनुष्य समान रूप से देख सकता है और उन सपनों को पाने की चाह भी रख सकता है। कविता में मृदुला लिखती हैं, 

झोपड़पट्टी की लड़कियां भी लड़कियां ही हैं
उनके सपनों में भी उतरते हैं गुलाबी रंग
ये अलग बात है कि उनके हिस्से में आते हैं सिर्फ सियाह रंग
किसी रेशमी पोशाक की कतरनें बटोरती
ये जिजीविषा से भरी गुलाबी रंग चुनती हैं
भरना चाहती हैं फ्रॉक की सुराखों को
जैसे ढकना चाह रही हों ईश्वर की सच्चाई
नीली स्कर्ट और गुलाबी रिबन बांधे
स्कूल जाती हुई ये लड़कियां जगती आँखों के स्वप्न में उतार लाती हैं आसमान अपनी हथेलियों पर इनके बस्ते किताबें, कलम सब गुलाबी हो जाते हैं मन ही मन वार्षिक उत्सव मनाती उत्साह से कहतीं हैं वंदेमातरम
तब पुतलियों में उभर आती हैं नाजुक गुलाबी पंखुड़ियां

संघर्ष करती लड़कियों की जिजीविषा को मृदुला चिन्हित करती हैं और जानती हैं कि वो अपने सपनों को पाने के लिए कैसे दृढ़ संकल्प हैं। लड़कियां अपने सपने सहजने के लिए खुद को तैयार कर रही हैं राह के रोड़े उनके इरादों को कमजोर नहीं कर सकते। आज जीवन के हर क्षेत्र में सपने देखने वाली लड़कियां अपने अधिकार के लिए लड़ रही हैं।

कविता लिखना मृदुला के लिए जैसे जीवन से जुड़ने का सहज उपक्रम की उपस्थिति है। कवि अपने परिवेश के दृश्यों को अंतकरण में जगह देता है, वहीं से संवेदना निसृत होकर बहती है। मृदुला अपनी कविताओं में प्रकृति से साम्य दिखती हैं। वह प्रकृति के साथ अपने जीवन के सुख-दुख को जोड़ती चलती हैं इसलिए फूलों का खिलना उन्हें खुशी से भर देता है और उनका मुरझाना उन्हें उदास करता है। फूलों के खिलने का दृश्य देखिये कविता के इस अंश में- 

खिल गए देखते ही देखते अनगिनत गुलाबी कमल
पोखर भी मुस्कुराने लगा
कमलिनी कितनी ख़ुश थी
पीले वल्वों से सजे घाट
मेल मुलाक़ातों से उभरी ख़ुशी
बच्चों की खिलखिलाहट देखकर

मृदुला की कविताएं लोकजीवन के हर कोने अंतरे में झांकती रहती हैं और उन्हें दृश्य सहित दर्ज करती हैं। सामाजिक परिवेश में जन सरोकारों को मृदुला खूब समझती हैं। यही उनकी कविताओं की ताकत है। ज़ाहिर सी बात है अपने परिवेश के जीवन संघर्ष को दर्ज करने के लिए वहां एक मजबूत वैचारिक आग्रह उपस्थित रहेगा जो कि जनपक्षधरता और जनसरोकारों के लिए बेहद जरूरी बात है। उनकी ‘कामगार औरतें’ कविता में वह लिखती हैं,

देवारी में ख़र्च कर देतीं हैं
सारे पैसे हाड़तोड़ मेहनत के
शराबी मर्द देता है गालियां दूसरे पहर तक
मुस्कुरातीं हैं दीये भर
ये कामगार स्त्रियां समेटतीं हैं पुरानी साड़ी का आँचल ढांप लेती है अधखुली छाती
छुपा लेती है अपना दुख

स्त्रियों के लिए दुनिया कितनी कठिन है जब वो घर से बाहर निकलती हैं काम करने के लिए तो कितनी तरह की बुराइयों से उनका वास्ता पड़ता है और जल्दी ही सीख लेती हैं इन कठिनाई के बीच सर्वाइव करना। उसी पुरुषों के आधिपत्य से बनी दुनिया में वे अपने लिए जगह बनाती हैं। एक स्त्रीजीवन इन चुनौतियों को झेलते झेलते खुद बदरंग न हो जाए, उसकी सारी सजलता कहीं खो न जाए स्त्री इन परिस्थितियों से भी संघर्ष करना और उन्हें बचाना जानती हैं। ‘खुरदरी हथेलियों में उगा नया ग्लोब’ में वह लिखती हैं,

रीता ऑटो वाली मिली थी जब पहली बार
उस रात उसकी पहली सवारी थी मैं
उसने दिखाई थी मुझे
जीवन की कुछ परछाइयां
चौक चौराहों से भागती स्ट्रीट लाइटों के बीच

संग्रह में एक कविता है” गुल्लक में जमा प्रतिरोध ” जिसमें एक नन्ही सी बच्ची के मन की कोमल संवेदना को मृदुला शब्द देती हुई खुद भी जैसे उस बच्ची से एकमेव होने लगती हैं। कितने नन्हे बच्चे माता पिता की छाया से छूट जाते हैं  कवि मृदुला ने कुछ ऐसा ही कठिन जीवन देखा है वो जानती हैं ऐसे बच्चों का दुख उनका अंतर्द्वंद्व और उनका अकेलापन भी । ये कविता मृदुला के उसी जीवन की कराह से चलती है ।

मां ! 
सालभर की बच्ची को छोड़
चल दी तुम वहां 
जहां से कोई  नहीं लौटता
न आता कोई संदेश 
कोई तस्वीर भी नहीं तुम्हारी
हां ,आईना ज़रूर कहता है 
कि मैं तुम सी ही दिखती हूँ

हाशिये के जन मृदुला की कविताओं के नायक, नायिकाएं हैं उनके श्रम से कैसे ये संसार चलता है और कैसे वही श्रमिक जन जीवन भर दुख और संताप झेलते हैं ‘बापू के चश्मे के पार की नायिकाएं’ कविता में उन्होंने दर्ज किया है,

कल सड़क पर देखा मैंने
सच का करूण चेहरा
स्वच्छता मिशन की खांटी नायिकाएं 
ठसम ठस्स कचरे से भरे रिक्शे 
खींचते चल रही थी जाँघर खटाते 
क्या यह सबका पाप धोने वाली
पुराणों से उतरी गंगाएं हैं ?
नहीं ये औरतें हैं 
इसीलिए लोग इन्हें कचरावाली कहते हैं
मां कहलाने के लिए तो 
नदी होना ज़रूरी है

आज जब हमारा समाज पिछड़ी सोच मान्यताओं के चंगुल में फंसता जा रहा है धर्म, संस्कृति के नाम तमाम तरह के अन्याय को रोपा जा रहा है। बाजारवाद , पूंजीवाद सब मिलकर धरती और मानवीयता को नष्ट करने के राह पर चल रहे हैं ऐसे में मृदुला सिंह की कविताएं हमें बताती हैं कि अंधेरा किधर है और जीवन कहां है।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content