समाजपरिवार बच्चों के पालन-पोषण में पिता की समान जिम्मेदारी क्यों है ज़रूरी  

बच्चों के पालन-पोषण में पिता की समान जिम्मेदारी क्यों है ज़रूरी  

सही मायने में स्तनपान को छोड़कर बच्चे की देखभाल से जुड़े बाकी सभी कामों को पुरुष भी आसानी और ज़िम्मेदारी के साथ कर सकते हैं, जैसे कोई महिला करती है। आज कई युवा जोड़े समाज की बंधी-बधाई भूमिकाओं को चुनौती देते हुए अपने बच्चे का पालन-पोषण मिलकर कर रहे हैं।

बात मेरे स्कूली दिनों की है। मेरी कक्षा में एक लड़की थी। वो अक्सर लंच टाइम में अपना टिफ़िन बॉक्स खोलती और कहती कि उसका लंच उसके पापा ने बनाया है। मेरे लिए उस समय यह आश्चर्य की बात होती थी। आज जब इस बार मैं सोचती हूँ तो लगता है कि शायद आज से कई साल पहले ही उसके पिता पालन-पोषण में अपनी भूमिका निभा रहे थे और मुझे यह सब हैरान करने वाला इसलिए लग रहा था क्योंकि मैंने पालन-पोषण में सहभागिता करने वाले पुरुष न के बराबर देखे थे। मैंने पिता के तौर पर पुरुषों को बच्चों को स्कूल छोड़ते हुए, स्कूल की पैरेंट्स मीटिंग में शामिल होते हुए और बच्चों की फ़ीस जमा करने जैसी सीमित भूमिकाएं निभाते ही देखा था। बेशक ये सब भी पालन-पोषण के अनतर्गत आता है, लेकिन इसके अलावा बच्चे के पालन-पोषण में बहुत-से और काम भी शामिल होते हैं।

सही मायने में स्तनपान को छोड़कर बच्चे की देखभाल से जुड़े बाकी सभी कामों को पुरुष भी आसानी और ज़िम्मेदारी के साथ कर सकते हैं, जैसे कोई महिला करती है। आज कई युवा जोड़े समाज की बंधी-बधाई भूमिकाओं को चुनौती देते हुए अपने बच्चे का पालन-पोषण मिलकर कर रहे हैं। यानी ऐसे परिवार जिनमें बच्चे के पालन-पोषण के लिए केवल महिला ने ही अपने करियर से ब्रेक नहीं लिया, बल्कि पुरुष ने भी लिया। बच्चे की बेहतर परवरिश के लिए कभी-कभी दोनों ने बारी-बारी से भी करियर ब्रेक लिया। ऐसे ही कुछ लोगों और बच्चे के पालन-पोषण मिलकर करने की उनकी यात्रा को समझने के लिए फेमिनिज़म ऑफ़ इंडिया ने कुछ लोगों से बात की। 

मेरी पत्नी मंजूषा ने बच्ची के जन्म होने पर यह कह दिया था कि वह बच्ची की देखभाल के लिए करियर से ब्रेक नहीं लेगी। इसलिए, मैटरनिटी लीव ख़त्म होते ही उसने ऑफ़िस जॉइन किया। जॉइन करने के एक-दो महीने बाद ही उसे जापान से एक अच्छा ऑफ़र आ गया और हम सपरिवार जापान शिफ़्ट हो गए। उसी समय हमने आपसी सहमति से यह फैसला लिया कि मैं घर पर रहकर बच्ची की देखभाल करूंगा और वो अपनी जॉब करेगी।

कहां से मिली सह पालन-पोषण की प्रेरणा?

तस्वीर साभार: Canva

प्रवीण सिंधु भीमा शिंदे पुणे में रहते हैं। वे फ़िलहाल बीबीसी मराठी में काम कर रहे हैं। वे और उनकी पत्नी प्रियंका पिछले डेढ़ साल से मिलकर बच्चे की परवरिश कर रहे हैं। सह पालन-पोषण की प्रेरणा के बारे में प्रवीण बताते हैं, “महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले के सहजीवन संबंध के उदाहरण से, हम पति-पत्नी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हमें एक-दूसरे के विकास के लिए प्रयास करना चाहिए। यह प्रेरणा आधुनिक नारीवाद के मूल्यों से भी जुड़ी हुई है। हम दोनों का मानना ​​है कि समानता जीवन जीने का एक मूल्य होना चाहिए और हमने इसके लिए प्रयास किया।” प्रवीण ने यह भी बताया कि वे और उनकी पत्नी महाराष्ट्र के सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय थे और इन आंदोलनों से ही उनके भीतर समानता का मूल्य पनपा। वहीं पुणे के ही रहनेवाले आशुतोष सिन्हा पिछले नौ सालों से अपनी बेटी के पालन-पोषण में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। वे बताते हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी की गर्भावस्था की पहली तिमाही के दौरान ही उनकी ठीक से देखभाल करने के लिए नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया था।

बच्ची के जन्म के बाद छह महीने तक आशुतोष और उनकी पत्नी मिलकर उसकी देखभाल करते रहे। आशुतोष बताते हैं, “मेरी पत्नी मंजूषा ने बच्ची के जन्म होने पर यह कह दिया था कि वह बच्ची की देखभाल के लिए करियर से ब्रेक नहीं लेगी। इसलिए, मैटरनिटी लीव ख़त्म होते ही उसने ऑफ़िस जॉइन किया। जॉइन करने के एक-दो महीने बाद ही उसे जापान से एक अच्छा ऑफ़र आ गया और हम सपरिवार जापान शिफ़्ट हो गए। उसी समय हमने आपसी सहमति से यह फैसला लिया कि मैं घर पर रहकर बच्ची की देखभाल करूंगा और वो अपनी जॉब करेगी। उस समय मेरी बेटी ग्यारह महीने की थी।” आशुतोष बताते हैं कि उन्होंने कभी भी कामों को इस तरह से नहीं देखा कि यह पुरुष का काम है और यह महिला का। इसलिए उन्हें ऐसा फ़ैसला लेने से दिक्कत नहीं हुई। उन्हें कई लोगों ने सुझाव भी दिया कि बच्ची को डे केयर में डाल दें, लेकिन उन्हें यह भरोसा नहीं हुआ कि डे केयर में उनकी बच्ची की सही देखभाल होगी। करियर से लंबा ब्रेक लेने के बाद आशुतोष दोबारा फुल टाइम जॉब की तैयारी कर रहे हैं। 

बच्चे के जन्म से पहले ही मैं और मेरे पति इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार थे कि हम ज़िम्मेदारियों का बंटवारा करेंगे। बेटे के जन्म होने के बाद छह महीने तक तो उन्होंने पूरी देखभाल का ज़िम्मा लिया क्योंकि वो चाहते थे कि मुझे पूरा आराम मिले। उन्होंने अपने ऑफ़िस से तीन महीने की छुट्टी भी ली थी।

सह पालन-पोषण के बारे में मथुरा की रहनेवाली ऋतु गौतम कहती हैं, “बच्चे के जन्म से पहले ही मैं और मेरे पति इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार थे कि हम ज़िम्मेदारियों का बंटवारा करेंगे। बेटे के जन्म होने के बाद छह महीने तक तो उन्होंने पूरी देखभाल का ज़िम्मा लिया क्योंकि वो चाहते थे कि मुझे पूरा आराम मिले। उन्होंने अपने ऑफ़िस से तीन महीने की छुट्टी भी ली थी। वे मानसिक रूप से तैयार थे कि मुझे कई तरह के हार्मोनल बदलाव होंगे और काफ़ी सपोर्ट की ज़रूरत होगी। मेरे पति जर्मनी से हैं और वहां के लोग शायद इस बात को लेकर भारत के लोगों की तुलना में ज्यादा तैयार होते हैं कि बच्चे को पालना एक व्यक्ति की ज़िम्मेदारी नहीं है। फ़िलहाल मैं अपना बिज़नेस संभाल रही हूं और मेरा बेटा अभी एक साल तीन महीने का है।” 

क्यों ज़रूरी है पालन-पोषण में पुरुष की हिस्सेदारी? 

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

आमतौर पर हमारे समाज में बच्चे का पालन-पोषण मुख्य तौर पर माँ की ज़िम्मेदारी मानी जाती है। पिता की ज़िम्मेदारी यह मानी जाती है कि वह नौकरी करके परिवार के खर्चों को वहन करे। इसी वजह से कई बार महिलाओं को बच्चे के जन्म के बाद अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है। पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी दोनों पार्टनर्स साझा करें इस बारे में प्रवीण सिंधु कहते हैं, “अगर दोनों ही बच्चा चाहते हैं तो दोनों को ही बच्चे की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। प्रकृति ने शिशु को पहले 6 महीने तक स्तनपान कराने की ज़िम्मेदारी महिला को सौंपी है। लेकिन, पहले 6 महीनों को छोड़कर, बाद में, एक पुरुष बच्चे की सारी ज़िम्मेदारी ले सकता है। मेरी पत्नी प्रियंका ने बेटे के छह महीने होने पर नौकरी जॉइन कर ली थी। उस दौरान मैंने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया था और अगले आठ महीनों तक बच्चे की देखरेख की। आज मैं दोबारा काम कर रहा हूँ। फिलहाल प्रियंका ने फिर से करियर से ब्रेक लिया है और छह महीने तक घर पर रहकर बच्चे की देखभाल की। मेरा बेटा अब एक साल आठ माह का हो गया है। इसलिए, उसे कुछ समय डे केयर सेंटर में रखकर प्रियंका फिर से अपनी जॉब शुरू करने वाली हैं।”

बेटे के जन्म होने के बाद छह महीने तक तो उन्होंने पूरी देखभाल का ज़िम्मा लिया क्योंकि वो चाहते थे कि मुझे पूरा आराम मिले। उन्होंने अपने ऑफ़िस से तीन महीने की छुट्टी भी ली थी। वे मानसिक रूप से तैयार थे कि मुझे कई तरह के हार्मोनल बदलाव होंगे और काफ़ी सपोर्ट की ज़रूरत होगी।

पालन-पोषण में पुरुष की सहभागिता क्यों ज़रूरी है इस पर प्रियंका कहती हैं, “आम तौर पर बच्चे के पालन-पोषण में पिता की भूमिका सीमित मानी जाती है, जिससे बच्चे और पिता के बीच भावनात्मक दूरी बनी रहती है। सह-पालन-पोषण में जब पिता भी बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी उठाते हैं, तो दोनों के बीच गहरा भावनात्मक संबंध विकसित होता है। इससे न केवल बच्चे को लाभ होता है, बल्कि पिता भी अपने पालन-पोषण के अनुभव को संपूर्ण रूप से जी पाते हैं।  पालन-पोषण में माता-पिता दोनों की उपस्थिति और सहयोग से बच्चा अधिक आत्मविश्वासी, सुरक्षित और भावनात्मक रूप से मज़बूत बनता है। सह पालन-पोषण समाज में एक नई सोच विकसित करने में भी सहायक हो सकता है। जब परिवार सह-पालन-पोषण को अपनाएंगे, तो यह रूढ़ियों को तोड़ने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने में सहायक होगा। महिलाओं के करियर को प्राथमिकता देने और पिताओं की भूमिका को सशक्त करने से समाज में संतुलन भी बना रहेगा।”

सह पालन-पोषण को लेकर पुरुषों की तैयारी और चुनौतियां  

तस्वीर साभार: Canva

हमारा समाज एक ऐसा समाज है जहां बच्चे को जन्म देने के बाद किसी महिला का नौकरी छोड़ देना बहुत आम-सी बात है। लेकिन अगर पुरुष नौकरी छोड़ दे, तो समाज उसपर उँगलियां उठाने लगता है। इस बारे में आशुतोष बताते हैं, “मेरी पत्नी करियर के जिस मुकाम पर थी उसके लिए ब्रेक लेना सही नहीं होता। इसलिए घर पर रहकर बच्ची की देखभाल का ज़िम्मा मैंने लिया। लेकिन हमारे दश में हाउस हसबैन्ड आसानी से स्वीकार्य नहीं है। मेरे परिवार और लोगों को लगता है कि मैं कुछ काम नहीं करता। मेरा परिवार भी मुझे नकारा मानता है और एक बार एक मित्र ने यहां तक कह दिया था कि मैं कुछ काम क्यों नहीं करता और मेरी बच्ची मुझसे क्या सीखेगी।”  वह बताते हैं कि जब उनकी पत्नी ने बच्ची को छोड़कर दोबारा जॉब पर जाना शुरू किया, तो शुरू के कुछ महीने उनके लिए बहुत चुनौती भरे थे।

जब परिवार सह-पालन-पोषण को अपनाएंगे, तो यह रूढ़ियों को तोड़ने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने में सहायक होगा। महिलाओं के करियर को प्राथमिकता देने और पिताओं की भूमिका को सशक्त करने से समाज में संतुलन भी बना रहेगा।

उन्हें डायपर बदलने जैसे काम में बहुत दिक्कत होती थी। इसके अलावा बेटी उस समय केवल ग्यारह महीने की थी तो उन्हें डर लगता था कि कहीं वे कुछ गलत न कर दें। प्राइमरी केयर गिवर की भूमिका शुरू करने के तीन-महीने तक यह सब चलता रहा। उस दौरान उन्होंने अपनी एक दोस्त से बात की और उसने उन्हें बताया कि बच्ची जल्द ही उनके साथ एडजस्ट कर लेगी। उन्होंने पाया कि बच्ची ने जल्द ही उनके साथ एडजस्ट कर लिया। वहीं चुनौतियों और पितृत्व की तैयारी के विषय पर प्रवीण कहते हैं, “एक पुरुष होने के नाते मुझे एहसास हुआ कि मेरे माता-पिता ने मुझे कई महत्त्वपूर्ण जीवन कौशल नहीं सिखाए थे। अगर मुझे छोटी उम्र से ही ये कौशल सिखाए गए होते तो घर पर रहकर बच्चे की फुल टाइम केयर करने में मुझे आसानी होती।”

एक पुरुष होने के नाते मुझे एहसास हुआ कि मेरे माता-पिता ने मुझे कई महत्त्वपूर्ण जीवन कौशल नहीं सिखाए थे। अगर मुझे छोटी उम्र से ही ये कौशल सिखाए गए होते तो घर पर रहकर बच्चे की फुल टाइम केयर करने में मुझे आसानी होती।

सहभागिता से पुरुषों के दृष्टिकोण में आता है बदलाव 

जब पुरुष भी बच्चे की परवरिश में भागीदारी करते हैं, तो उनमें भी कई किस्म के बदलाव आते हैं। इस बारे में आशुतोष कहते हैं, “बच्ची की प्राइमरी केयर गिविंग करते हुए मैंने पाया कि मैं और ज्यादा संवेदनशील हो गया। मैं कहीं बाहर भी जाता था तो मेरे ध्यान में यही रहता था कि मैं बच्ची की ज़रूरत की क्या चीज़ें ले सकता हूं। इसके अलावा मेरा बच्ची से भावनात्मक लगाव और गहरा हुआ है।” वहीं बेटे की परवरिश करते हुए खुद में सकारात्मक बदलाव के विषय में प्रवीण बताते हैं, “मुझे एहसास हुआ कि घर के काम करते-करते बच्चे की देखभाल करना बेहद मुश्किल होता है। मैं घर के कामों को और अधिक संवेदनशीलता से देखने लगा हूं। अब मैं समाज, संस्था और सरकार हर स्तर पर एक पैरेंट की नज़र से चीज़ों को देख पाता हूं।” कुल मिलाकर पालन-पोषण मिलकर करना बच्चे और उसके माता-पिता दोनों के लिए ही फ़ायदेमन्द है।

इससे उन परिभाषाओं को भी बदलने में मदद मिलती है कि अच्छी परवरिश के लिए पिता को सख्त मिजाज़ का होना चाहिए। जब पिता बच्चे के रोज़मर्रा के कामों को उसके छुटपन से ही करने लगते हैं तो वे बच्चे की ज़रूरतों को समझने लगते हैं और उनका आपसी रिश्ता भी और मज़बूत होता है। आज भी हमारे देश में मातृत्व का तो बहुत महिमामंडन किया जाता है लेकिन पिता बनने के लिए पुरुषों को तैयार नहीं किया जाता। अगर उन्हें इसके लिए तैयार किया जाए तो उनके लिए यह सफ़र आसान हो सकता है। इसके अलावा, सह पालन-पोषण में जब बच्चे अपनी माँ और पिता दोनों को ज़िम्मेदारियां साझा करते देखते हैं, तो उनसे आगे चलकर अपने जीवनसाथी से वैसा ही व्यवहार करने की उम्मीद की जा सकती है और एक बेहतर समान समाज के निर्माण में योगदान दे सकेंगे।  

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