इंटरसेक्शनलजेंडर पितृसत्ता, पारंपरिक भोजन और महिलाओं के बीच संबंध आखिर कब खत्म होगा?

पितृसत्ता, पारंपरिक भोजन और महिलाओं के बीच संबंध आखिर कब खत्म होगा?

महिलाएं कामकाजी हो या न हो, तो भी पारंपरिक भोजन से लेकर, हर दिन के खाना बनाने की जिम्मेदारी थी उनके ऊपर ही है। पारंपरिक भोजन ही नहीं घरों में रोज का खाना बनाने की जिम्मेदारी भी अबतक मूल रूप से महिलाओं की है।

भारत में अमूमन महिलाओं को खाना बनाने से लेकर उसकी उपज तक में शामिल होते हुए देखा गया है। हमारे देश में एक महिला फसल की रोपनी से लेकर उसे  सींचने और कटाई तक में योगदान देती है। इसके साथ ही भोजन बनाने और उसे समाज में विस्तारित करने की जिम्मेदारी भी महिलाएं निभाती हैं। खास तौर पर जब बात पारंपरिक भोजन की हो। पारंपरिक भोजन बनाने की प्रथा देशभर में मौजूद है। समय-समय पर अलग-अलग त्योहारों और खास दिनों पर इन्हें बनाया जाता है, जिसे किसी रीति-रिवाज से जोड़ा जाता है। बिहार के आरा के दनवार गांव में इस परंपरा के अंतर्गत महिलाएं घर में सुबह से ही काम में जुट जाती है। 

इस दिन घर और बाहर के काम को महिलाएं आपस में बांट लेती है, जिसमें कुछ महिलाएं रसोई का काम संभालती है, तो वहीं कुछ देवी मां के मंदिर में पूजा करने जाती है। दनवार गांव की रहने वाली श्वेता इस बारे में बताती हैं, “जिस दिन रोपनी होती है, उस दिन हमारे घर में सभी लोग सुबह 5 बजे जाग जाते हैं। घर के मर्दों को 7 बजे रोपनी के लिए खेत जाना होता है,‌ जिसके कारण घर की सभी महिलाएं रसोई में मिलकर नाश्ता और प्रसाद बनाने  लग जाती हैं। सुबह के नाश्ते के लिए मीठा पुआ, पुरी और सब्जी 7 बजे से पहले तैयार कर लिया जाता है, जिसमें पुरुषों का कोई योगदान नहीं होता।”

जिस दिन रोपनी होती है, उस दिन हमारे घर में सभी लोग सुबह 5 बजे जाग जाते हैं। घर के मर्दों को 7 बजे रोपनी के लिए खेत जाना होता है,‌ जिसके कारण घर की सभी महिलाएं रसोई में मिलकर नाश्ता और प्रसाद बनाने  लग जाती हैं।

देश में महिलाओं से खाना पकाने की उम्मीद

भारतीय खाना केवल पोषण का साधन नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक पहचान और परंपराओं का प्रतीक भी है। लेकिन इस विविधता को बनाए रखने में महिलाओं का ही योगदान दिखता है। वे न केवल पारंपरिक व्यंजनों को तैयार करती हैं, बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी इन विधियों और परंपराओं को संजोने का काम भी करती हैं। श्वेता जब अपने घर में पारंपरिक खाना मर्दों के ना बनने पर सवाल करती हैं, तो उनके घर की महिलाएं कहती हैं, “घर में जो कुछ भी बनता है, वह उनकी(मर्दों) की बदौलत ही आता है। इसके कारण उन्हें हर‌ तरह के खाना बनाने से राहत दी जाती है।”

क्या पारंपरिक भोजन का महत्व सिर्फ महिलाओं के लिए है

भारतीय समाज में पारंपरिक भोजन और महिलाओं का गहरा संबंध है। महिलाओं के बिना भारतीय भोजन की कल्पना करना कठिन है, ये सोच रूढ़िवादी और पितृसत्तमक है। इस कारण जिन घरों में महिलाएं कामकाजी हैं, वहां भी उन्हें वह सहयोग नहीं मिलता जिसकी अपेक्षा होती है। रांची में रहने वाली 40 वर्षीय श्वेतिमा सिन्हा को आंख से बहुत कम दिखता है। बावजूद इसके वह अपने घर में हर काम अंदाज पर और टटोलते हुए करती हैं। वह अपने घर के कामों को करने के लिए सुबह 4 बजे ही जाग जाती हैं। वह बताती हैं, “आंख के कारण बहुत धीरे काम करती हूं, जिसकी वजह से जल्दी जगना पड़ता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

ऐसे में जब पारंपरिक भोजन बनाने की जिम्मेदारी आती है, तब मैं अपनी 84 वर्षीय मां से मदद लेती हूं या फिर मजबूरन पारंपरिक पकवानों को नहीं बनाती।” वह आगे बताती हैं, “आम दिनों में मैं रोटी,सब्जी, चावल, दाल के अलावा कुछ नहीं बनाती। मगर पर्व-त्योहार के समय धुस्का, मिठाई, नमकीन इत्यादि बनाने पड़ते हैं। पुराने समय से ही त्योहारों के मद्देनजर कोई खास पकवान बनाया जाता है। कहते हैं कि यह पकवान भगवान से जुड़ा है, जैसे जन्माष्टमी में हलवा, तीज में गुजिया, छठ में ठेकुआ। मेरे घर में इकलौता आदमी मेरा भाई है, जो कई बार किचन में मेरी मदद कर देता है। मगर त्योहारों में वह बाहरी कामों में व्यस्त रहता है। इस कारण हम त्योहारों के समय बाहर से रेडीमेड पकवान मंगा लेते हैं।”

शादी के पहले मेरी मां ने मुझे पीठा, ठेकुआ, ढकनेसर जैसी चीजें बनाना सिखाया था। शादी के बाद ससुराल में सास ने भी मुझे अपने क्षेत्र के कई पकवानों को बनाना सिखाया। इन दोनों ही घरों से मुझे पति को खिलाने की जिम्मेदारी दी गई।

महिलाएं रसोई संभाल सकती है पर शेफ नहीं बन सकती

देश में जहां बड़े शेफ की गिनती में पुरुषों का ही नाम आता है, वहां आज भी हर घर में खाना बनाने के लिए महिलाओं की ही जिम्मेदारी होती है। पुरुष हलवाइयों को पारिवारिक कार्यक्रमों के मौके पर प्राथमिकता दी जाती है। मगर हर दिन घर में खाना बनाने का जिम्मा महिलाओं के हिस्से में आता है। इस सोच के साथ समाज का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित है, जिसमें महिला और पुरुष दोनों शामिल है। पारंपरिक भोजन को अक्सर माँ के खाने का स्वाद, बचपन की यादें आदि से जोड़ा जाता है, जिसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर खुद ही आ जाती है या दे दी जाती है। मर्दों के लिए खुद काम करने से आसान है कि महिलाओं के श्रम को ग्लोरीफ़ाई किया जाए, जबकि असल में खाने के साथ प्रेम, अपनेपन को जोड़ने वाली सोच ही पितृसत्ता का हिस्सा है जो इस अपनेपन को आगे महिलाओं से जोड़ती है। लेकिन सिर्फ घरों में, कमाई के जगह पर नहीं।

पारंपरिक भोजन के बहाने महिलाओं को रसोई से जोड़ने की प्रथा 

छत्तीसगढ़ में रहने वाली एलआईसी में काम करने वाली अनुराधा पांडे मर्दों के पारंपरिक भोजन न बनाने के सवाल पर सोच में पड़ जाती हैं। वह कहती हैं, “मैंने कभी इस बारे में सोचा हीं नहीं कि आखिर मर्दों को पारंपरिक भोजन से अलग क्यों रखा जाता है।” हालांकि थोड़ा सोच कर उन्होंने बताया, “कई बार यह चीजें शुरुआत से ही मर्दों के अंदर डाली जाती हैं कि किचन का काम औरतों का है, जिसके कारण वह किचन से दूर होकर बाहर के सभी कामों की जिम्मेदारी ले लेते हैं।”

तस्वीर साभार: Freepik

पारंपरिक भोजन को समाज में विस्तारित करने की जिम्मेदारी पर अनुराधा बताती हैं, “जब पारंपरिक भोजन बनाने की बात आती है, तो उसे शुद्धता से जोड़ा जाता है। अमूमन पर्व-त्योहारों या खास मौके पर यह बनाए जाते हैं। ऐसे में महिलाओं को ही इस परंपरा को भी आगे बढ़ाने के जिम्मेदारी समाज ने दी है। इसे बदलने के लिए यह पितृसत्तक समाज नहीं सोचता। मेरे पति भी पारंपरिक भोजन नहीं बनाते, मगर किचन और घर के सारे काम वह हमेशा से ही करते आए हैं।” 

कहते हैं कि यह पकवान भगवान से जुड़ा है, जैसे जन्माष्टमी में हलवा, तीज में गुजिया, छठ में ठेकुआ। मेरे घर में इकलौता आदमी मेरा भाई है, जो कई बार किचन में मेरी मदद कर देता है। मगर त्योहारों में वह बाहरी कामों में व्यस्त रहता है। इस कारण हम त्योहारों के समय बाहर से रेडीमेड पकवान मंगा लेते हैं।

क्यों पारंपरिक भोजन की शुद्धता सिर्फ महिलाओं के जिम्मे है 

ये शुद्धता क्या है? क्या ये त्योहारों में नॉन वेज न खाना है? क्यों इस शुद्धता के लिए सिर्फ महिलाएं जिम्मेदार हैं? अमूमन मर्द बाहर भी खा लेते हैं, मगर घर में कड़ाई से नियमों पालन होता है। अनुराधा आगे बताती हैं, “मेरे पति के ठीक उलट मेरे ससुर हैं। उन्होंने आज तक किचन में कदम तक नहीं रखा है।” पटना के दानापुर में रहने वाली सिमरन शादीशुदा है। वह अपने घर में सबसे बड़ी बहू है। शादी के बाद घर के हर एक काम की जिम्मेदारी सिमरन के ऊपर आ गई। वह बताती हैं, “शादी के पहले मेरी मां ने मुझे पीठा, ठेकुआ, ढकनेसर जैसी चीजें बनाना सिखाया था। शादी के बाद ससुराल में सास ने भी मुझे अपने क्षेत्र के कई पकवानों को बनाना सिखाया। इन दोनों ही घरों से मुझे पति को खिलाने की जिम्मेदारी दी गई।”

तस्वीर साभार: Freepik

अगर पारंपरिक भोजन इतना महत्वपूर्ण है तो महिलाओं को इन्हें खिलाने की जिम्मेदारी किसकी है? यह भी एक बड़ा सवाल है। पारंपरिक भोजन महिलाओं के बनाने तक सीमित के मुद्दे पर सिमरन कहती हैं, “हमारे देश में मां को अन्नपूर्णा का दर्जा दिया गया है और ऐसा माना जाता है कि मां के हाथ का स्वाद किसी और हाथ में नहीं है। पारंपरिक खाने की महत्ता हमारे देश में आम दिनों के खाने से कई ज्यादा है। शायद इसलिए इसे बनाने और विस्तारित करने की जिम्मेदारी हम महिलाओं को ही दी गई।” 

मैं जब भी छुट्टी में घर जाता तो वहां से अपने बिहारी खाना वापस जरूर लाता। ऐसे में पारंपरिक भोजन को बढ़ाने की जिम्मेदारी यहां मेरी होती थी। शादी के बाद मेरी पत्नी मेरे साथ रहने आ गई, जो वह अब इसे आगे बढ़ा रही है।

खाना बनाने में कितना समय बिताती हैं महिलाएं 

हिंदुस्तान टाइम्स में 2015 में छपे शटरस्टॉक के रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं द्वारा खाना पकाने में हर हफ्ते लगभग 13 घंटे खर्च होते हैं, जबकि खाने पकाने का अंतरराष्ट्रीय औसत प्रतिशत 6:30 घंटे से भी कम आंका गया है। शटरस्टॉक की रिपोर्ट में पाया गया कि विश्व स्तर पर 29 फीसद लोग खाना पकाने के बारे में अनुभव होने का दावा करते हैं। लेकिन इनमें भी महिलाओं की हिस्सेदारी 34 फीसद और पुरुषों की हिस्सेदारी केवल 25 फीसद थी।

तस्वीर साभार: Women’sWeb

इस विषय पर इंडियन नेवी में काम करने वाले बिहार के निशु सिंह (बदला हुआ नाम) बताते हैं, “शादी होने के पहले मैं मेस में खाना खाया करता था। मगर मुझे घर के और अपने पारंपरिक खाने की याद आती थी। ऐसे में मैं जब भी छुट्टी में घर जाता तो वहां से अपने बिहारी खाना वापस जरूर लाता। ऐसे में पारंपरिक भोजन को बढ़ाने की जिम्मेदारी यहां मेरी होती थी। शादी के बाद मेरी पत्नी मेरे साथ रहने आ गई, जो वह अब इसे आगे बढ़ा रही है। मुझे लगता है कि मेरी पत्नी कामकाजी होती तो मुझे बिहारी खाने का स्वाद यहां नहीं मिलता, क्योंकि इन्हें बनाने में समय बहुत लगता है।” 

हमारे देश में मां को अन्नपूर्णा का दर्जा दिया गया है और ऐसा माना जाता है कि मां के हाथ का स्वाद किसी और हाथ में नहीं है। पारंपरिक खाने की महत्ता हमारे देश में आम दिनों के खाने से कई ज्यादा है। शायद इसलिए इसे बनाने और विस्तारित करने की जिम्मेदारी हम महिलाओं को ही दी गई।

गौर करने वाली बात है कि महिलाएं कामकाजी हो या न हो, तो भी पारंपरिक भोजन से लेकर, हर दिन के खाना बनाने की जिम्मेदारी थी उनके ऊपर ही है। पारंपरिक भोजन ही नहीं घरों में रोज का खाना बनाने की जिम्मेदारी भी अबतक मूल रूप से महिलाओं की है। इसके साथ ही बॉलीवुड और टीवी धारावाहिकों में भी इसे और ग्लोरिफाई किया है। अमूमन सास-बहू के सीरियल में महिलाओं को किचन में खाना बनाते हुए ही दिखाया जाता है। इसके साथ ही अवैतनिक घरेलू कामकाज के लिए महिलाओं को घर में वेतन मिलने की सोच को बढ़ावा देना चाहिए। हालांकि इसमें बदलाव होता हुआ नजर आ रहा है। कई घरों में देखा जा रहा है कि पुरुष भी महिलाओं के साथ काम करते हैं। लेकिन भोजन में पोषण और स्वास्थ्य के गुणों को समझते हुए, इसे संरक्षित करने और अगली पीढ़ी को सिखाने की आवश्यकता सिर्फ महिलाओं की नहीं बल्कि पुरुषों की भी है। 

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