इंटरसेक्शनलजेंडर घरेलू कामों में पुरुषों की समान भागीदारी बढ़ाने के लिए ज़रूरी हैं ये कदम

घरेलू कामों में पुरुषों की समान भागीदारी बढ़ाने के लिए ज़रूरी हैं ये कदम

महिलाएं प्रतिदिन लगभग सात घंटे अवैतनिक घरेलू कार्यों में समर्पित करती हैं, जबकि पुरुष समान गतिविधियों पर लगभग 2.8 घंटे व्यतीत करते हैं। यह विभाजन प्राकृतिक नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से निर्मित है। यह विभाजन पुरुषों के जीवन चलन को सुगम बनाए रखने हेतु ज़रूरी है अतः जब भी इस क्षेत्र में बदलाव की चिंगारी उठने को होती है।

हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म मिसेज जो मलयालम फिल्म द ग्रेट इंडियन किचन की रीमेक है ने घरेलू कामकाज में महिलाओं की स्थिति और पुरुषों की भागीदारी को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। यह फिल्म दर्शाती है कि किस तरह पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को घर की चारदीवारी में कैद कर देता है, जहां उनका श्रम न केवल अनदेखा किया जाता है बल्कि इसे उनकी “जिम्मेदारी” भी मान लिया जाता है। हालांकि, कई पुरुष दर्शकों ने इस फिल्म की आलोचना करते हुए इसे अतिरंजित और पक्षपाती बताया, जिससे यह साफ हो जाता है कि जब भी घरेलू जिम्मेदारियों में पुरुषों की भागीदारी की बात उठती है, तब समाज में एक असहजता पैदा होती है। इस बहस के बीच एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है—क्या पुरुष घरेलू कार्यों में महिलाओं के सहयोगी और समान भागीदार बन सकते हैं? यह केवल व्यक्तिगत आदतों का नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक संरचना का विषय है, जो लैंगिक भूमिकाओं, सांस्कृतिक सोच और संरचनात्मक असमानताओं से जुड़ा है।

अदृश्य श्रम: महिलाओं पर घरेलू कामों का बोझ

समाजशास्त्रियों और नारीवादियों ने लंबे समय से इस बात को रेखांकित किया है कि घरेलू श्रम को लैंगिक आधार पर विभाजित किया गया है और इसे न तो उचित महत्व दिया जाता है और न ही मान्यता। अमेरिकी समाजशास्त्री आर्ली होश्चाइल्ड ने अपनी किताब द सेकंड शिफ्ट(1989) में बताया कि किस तरह महिलाएं नौकरी करने के बावजूद घर के कामों की प्राथमिक जिम्मेदारी निभाने को मजबूर होती हैं। इस दोहरे बोझ (डबल बर्डन) का प्रभाव उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है।

भारत में भी यह समस्या व्यापक रूप से देखी जाती है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की “भारत में समय का उपयोग 2019” रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय महिलाएं पुरुषों की तुलना में घरेलू कार्यों पर लगभग सात गुना अधिक समय व्यतीत करती हैं, महिलाएं प्रतिदिन लगभग सात घंटे अवैतनिक घरेलू कार्यों में समर्पित करती हैं, जबकि पुरुष समान गतिविधियों पर लगभग 2.8 घंटे व्यतीत करते हैं। यह विभाजन प्राकृतिक नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से निर्मित है। यह विभाजन पुरुषों के जीवन चलन को सुगम बनाए रखने हेतु ज़रूरी है अतः जब भी इस क्षेत्र में बदलाव की चिंगारी उठने को होती है। पुरुष असहज होने लगते हैं। 

कई पुरुषों के लिए घरेलू कार्य करना उनकी पारंपरिक “मर्दानगी” के खिलाफ जाता है। समाज में ऐसा माहौल बनाया गया है कि घरेलू काम करने वाले पुरुषों को कमजोर समझा जाता है।

पुरुषों का प्रतिरोध: बदलाव से असहजता क्यों?

फिल्म मिसेज को लेकर आए नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से यह साफ होता है कि जब घरेलू जिम्मेदारियों में पुरुषों की भागीदारी की बात आती है, तब समाज में असहमति और असहजता देखी जाती है। इसके पीछे कई सामाजिक कारण हैं जिनमें पितृसत्तात्मक सोच, मर्दानगी, सामाजिक रूढ़िवाद प्रमुख है।

पितृसत्तात्मक सोच: लड़कों को बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि घरेलू काम महिलाओं की जिम्मेदारी है। यह सोच पारिवारिक संरचनाओं, फिल्मों और समाज की अपेक्षाओं के माध्यम से बार-बार दोहराई जाती है। बेटियों को बेटे के संबोधन देते हुए सारे कामों में लगाते रहना उन्हें इस भावनात्मक घेरे में डालता है कि अधिक काम और सबके काम करने से उन्हें तारीफ़ और प्रेम मिलेगा जबकि लड़कों के हिस्से ऐसा कुछ न करने से भी अधिक प्रेम मिलता है। यह सोच के साथ लड़के लड़कियों का पूरा जीवन रूढ़ियों पर ही चलते रहता है। 

तस्वीर साभारः The Independent

मर्दानगी और अहंकार: कई पुरुषों के लिए घरेलू कार्य करना उनकी पारंपरिक “मर्दानगी” के खिलाफ जाता है। समाज में ऐसा माहौल बनाया गया है कि घरेलू काम करने वाले पुरुषों को कमजोर समझा जाता है। इसके उदाहरण हमारे आसपास मौजूद हैं जैसे पत्नी के साथ अगर पुरुष काम करा दे तो उसे पत्नी के गुलाम की संज्ञा दी जाती है जिससे किसी बदलाव की शुरुआत को ही मर्दानगी पर सवाल उठाते हुए चुप कर देते हैं। 

प्रोत्साहन की कमी: क्योंकि घरेलू श्रम का कोई वित्तीय मूल्य नहीं होता और इसे समाज में मान्यता भी नहीं दी जाती, इसलिए पुरुष इसे करने से बचते हैं। जबकि यही काम जब बाज़ार में हम देखते हैं तो पुरुष अधिक संलग्न दिखाई पड़ते हैं चाहे वह हलवाई का काम हो, कैटरिंग सर्विस, टिफिन डब्बा का काम हो क्योंकि वहां इस काम से अर्थ जुड़ा हुआ है। 

चयनात्मक भागीदारी: कुछ पुरुष घरेलू कार्यों में भागीदारी का दावा तो करते हैं, लेकिन वे सिर्फ खाना बनाना (वह भी कभी-कभी), वित्तीय प्रबंधन या बाहरी कामों तक सीमित रहते हैं। जबकि कपड़े धोना, सफाई करना, बर्तन धोना और बच्चों की देखभाल जैसे रोज़मर्रा के काम अब भी महिलाओं पर ही रहते हैं। और वे जब कामकाजी हों तब दरअसल उनका कार्यभार घर के कामों में एक एडिशन की तरह देखा जाता है। घर के काम महिलाओं के लिए प्राइमरी काम की सूची में रखे गए हैं जिससे प्रायः बच पाना मुश्किल होता है। 

समान भागीदारी की दिशा में कदम

अगर समाज को वाकई समानता की ओर बढ़ना है, तो पुरुषों को सिर्फ “सहायता” करने की मानसिकता से बाहर आकर घरेलू कार्यों में वास्तविक भागीदारी निभानी होगी। उन्हें सहयोगी से आगे बढ़कर समान भागीदार बनने की जरूरत है। इसे हासिल करने के लिए पुरुष निम्नलिखित कदम उठा सकते हैं।

तस्वीर साभारः India Today

लैंगिक भूमिकाओं को फिर से परिभाषित करना: यह समझना आवश्यक है कि घरेलू कार्य केवल महिलाओं की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि परिवार के हर सदस्य की समान भागीदारी होनी चाहिए। और इसकी शुरुआत बचपन में बहुत महीन तरीके से गुणवत्ता पूर्ण शिक्षाएं देने से संभव होगी। 

रोज़मर्रा के कामों में भाग लेना: खाना बनाना, सफाई करना, कपड़े धोना, बच्चों की देखभाल करना जैसे सभी काम पुरुषों को भी उसी जिम्मेदारी से करने चाहिए, जैसे महिलाएं करती हैं। और इन कामों को “एहसान” की तरह कतई नहीं दर्शाना चाहिए।

घरेलू श्रम का मूल्य समझना: घरेलू कार्यों को अनदेखा करने के बजाय उसे सम्मान देना जरूरी है। इसके लिए पुरुषों को यह समझना होगा कि इन कार्यों की भी उतनी ही अहमियत है, जितनी किसी कार्य के मध्यान से पैसे कमाने की। 

बच्चों को सही शिक्षा देना: अगर आने वाली पीढ़ी में बदलाव लाना है, तो माता-पिता (खासकर पिता) को घर पर ऐसा उदाहरण स्थापित करना होगा, जहां लड़के-लड़कियों दोनों को समान रूप से घरेलू कार्यों में भागीदार बनाया जाए। इसमें सही भाषा का प्रयोग भी अहम है। एवं लड़कों को हर उस काम में संलग्न करना अहम है जिन्हें समाज सिर्फ़ लड़कियों के क्षेत्र अधिकार में रखता है। 

नीतियों में बदलाव की वकालत: यह बहस केवल घरों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि कार्यस्थलों और सरकारी नीतियों में भी समानता आनी चाहिए। पुरुषों के लिए पितृत्व अवकाश को बढ़ावा देना, कार्यस्थलों पर लचीले घंटों की सुविधा देना और सरकार द्वारा घरेलू श्रम को औपचारिक मान्यता देना इसके कुछ उपाय हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त पुरुषों में संवेदनशील मनोभावना को बढ़ावा देने के लिए संवेदनशील ट्रेनिंग भी मुहैया कराई जा सकती हैं। 

कुछ पुरुष घरेलू कार्यों में भागीदारी का दावा तो करते हैं, लेकिन वे सिर्फ खाना बनाना (वह भी कभी-कभी), वित्तीय प्रबंधन या बाहरी कामों तक सीमित रहते हैं। जबकि कपड़े धोना, सफाई करना, बर्तन धोना और बच्चों की देखभाल जैसे रोज़मर्रा के काम अब भी महिलाओं पर ही रहते हैं।

फिल्म मिसेज पर पुरुषों की नकारात्मक प्रतिक्रिया यह दर्शाती है कि घरेलू श्रम और लैंगिक समानता की बहस अभी भी अधूरी है। समाज में यह स्वीकार करने की मानसिकता विकसित करनी होगी कि घर संभालना केवल महिलाओं की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पुरुषों की भी उतनी ही हिस्सेदारी होनी चाहिए। जब तक घरेलू कामों में पुरुषों की सक्रिय भागीदारी नहीं होगी, तब तक समाज में वास्तविक समानता संभव नहीं है। क्योंकि भारतीय समाज में अभी भी बदलाव और प्रगति की राह परिवार जैसी ज़रूरी और पहली सामाजिक इकाई से होकर गुजरती है। कोई व्यक्ति समाज में, अपने आसपास कैसा वातावरण, विचार लेकर चलता है इसका निर्धारण आज भी परिवार और परवरिश से होता है। अतः इस बदलाव की शुरुआत घर से ही होनी चाहिए—और यही सच्ची लैंगिक समानता की ओर पहला कदम होगा।


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