यह 1985-86 का वह दौर था, जब भारत में एचआईवी या एड्स जैसी बीमारी के बारे में समझा जाता था कि यह ‘अय्याश पश्चिमी देशों की बीमारी’ है, क्योंकि वहां खुले तौर पर सेक्स और होमोसेक्शुअल रिश्तों का प्रचलन है। तबतक भारत के लोग खुद को आदर्शवादी और संस्कारी मानते थे, और उनका मानना था कि एचआईवी और एड्स जैसी बीमारी होमोसेक्शुअल लोगों में ही होती है। भारत में लोग हेटेरोसेक्शुअल है जो अपनी परंपराओं को मानने वाले हैं और एक शादी में रहकर ही संबंध बनाने में ही विश्वास करते हैं। इस तरह की बीमारी भारत में कभी नहीं आ सकती है।
उस समय के कुछ अखबारों में यह भी लिखा गया कि जब तक भारत में यह बीमारी पहुंचेगी, तबतक अमेरिका इसकी दवा खोज चुका होगा। इस बीच एक बत्तीस वर्षीय चेन्नई की माइक्रोबायोलॉजी की छात्रा, जो अपनी डेजर्टेशन के लिए विषय ढूंढ रही थी, अपनी सुपरवाइजर सुनिति सोलोमॉन के प्रोत्साहन से भारत में एचआईवी/ एड्स के मामलों का सबसे पहले पता लगाती है। हम बात कर रहे हैं वैज्ञानिक और चिकित्सक सेलप्पन निर्मला की, जिन्होंने विभिन्न चुनौतियों और अपर्याप्त मेडिकल सुविधायों के बावजूद, साल 1986 में भारत में सबसे पहला एचआईवी/ एड्स के मामले को अपनी सूझबूझ और मेहनत से ढूंढ निकाला था।
जब सेलप्पन निर्मला अपने डेजर्टेशन के लिए विषय ढूंढ रही थीं, तब उनकी गाइड सुनिति सोलोमॉन ने उन्हें एचआईवी और एड्स के मामलों को भारत में मूल रूप से तमिलनाडु राज्य को लेकर ढूंढने के विषय का सुझाव दिया। उस वक्त अमेरिका में एचआईवी/एड्स को पहली बार 1981 में एक नई बीमारी के रूप में पहचाना गया था, और उससे लोगों को कैसे बचाया जा सके, इसपर काम हो रहा था।
उनका जीवन और मेडिकल क्षेत्र में प्रवेश
सेलप्पन निर्मला का जन्म साल 1953 में एक बहुत ही पारंपरिक भारतीय परिवार में हुआ। बीबीसी की रिपोर्ट अनुसार उनका पालन पोषण एक छोटे से गांव में एक रूढ़िवादी परिवार में हुआ था। उन्हें मेडिकल में जाने के लिए उनको पति वीरप्पन रामामूर्ति से प्रोत्साहन मिला और उन्होंने शादी के बाद अपनी पढ़ाई जारी रखी। जब उन्होंने एचआईवी जैसे खतरनाक बीमारी के मामलों को खोजा तब उनकी शादी हो चुकी थी और वह दो बच्चों की मां भी थी। बीबीसी के दिए एक इंटरव्यू में वह बताती है कि जब वह मेडिकल क्षेत्र में आई तो वह काफी नर्वस थी और तमिल में बात करती थी। जब सेलप्पन निर्मला अपने डेजर्टेशन के लिए विषय ढूंढ रही थीं, तब उनकी गाइड सुनिति सोलोमॉन ने उन्हें एचआईवी और एड्स के मामलों को भारत में मूल रूप से तमिलनाडु राज्य को लेकर ढूंढने के विषय का सुझाव दिया। उस वक्त अमेरिका में एचआईवी/एड्स को पहली बार 1981 में एक नई बीमारी के रूप में पहचाना गया था, और उससे लोगों को कैसे बचाया जा सके, इसपर काम हो रहा था।

बीबीसी को दिए अपने इंटरव्यू में सेलप्पन बताती हैं कि पहले वह इस पर काम करने के लिए इच्छुक नहीं थी, क्योंकि भारत के बड़े शहरों मुंबई और पुणे से एचआईवी और एड्स के मामलों की जांच हुई थी और वहां से रिजल्ट नेगेटिव आए थे। इसका मतलब था कि भारत में एचआईवी और एड्स जैसी बीमारी मौजूद नहीं है। उन्होंने इससे पहले बैक्टीरिया से होने वाले लेप्टोस्पायरोसिस बीमारी पर काम किया था, जो कुत्ते और चूहे जैसे जानवरों से फैलता है और उनको एड्स के बारे में कुछ भी नहीं पता था। लेकिन आखिरकार उनकी सुपरवाइजर सुनिति सोलोमॉन ने उन्हें इसपर काम करने के लिए राजी कर लिया और उनकी डेजर्टेशन का विषय बना ‘सर्विलांस फ़ॉर एड्स इन तमिलनाडु’।
सुनिति सोलोमॉन ने सेलप्पन को 200 लोगों के ब्लड सैंपल इकट्ठा करने के लिए सलाह दी। उनको इसके लिए ऐसे 200 लोगों के ब्लड सैंपल इकट्ठा करने थे जिनमें एचआईवी/एड्स होने का खतरा सबसे ज्यादा हो सकता था।
कैसे इकट्ठा किए एचआईवी/एड्स की जांच के लिए सैंपल्स
सुनिति सोलोमॉन ने सेलप्पन को 200 लोगों के ब्लड सैंपल इकट्ठा करने के लिए सलाह दी। उनको इसके लिए ऐसे 200 लोगों के ब्लड सैंपल इकट्ठा करने थे जिनमें एचआईवी/एड्स होने का खतरा सबसे ज्यादा हो सकता था। उनमें सेक्स वर्कर्स, होमोसेक्शुअल लोग और भारत में पढ़ाई कर रहे अफ्रीकी छात्र शामिल थे। उनके लिए 200 ऐसे लोगों के सैंपल इकट्ठा करना एक बड़ी चुनौती थी। उन्होंने इसके लिए मद्रास जनरल अस्पताल को चुना, जहां पर यौन संचारित रोगों से पीड़ित कई महिलाओं का इलाज होता था। यहां पर उन्हें कई सेक्स वर्कर्स भी मिली जिनसे उन्होंने बातचीत कर और दोस्ती करके अन्य सेक्स वर्कर्स के बारे में पता लगाया।

उन्हें सेक्सवर्कर्स के विजिलेंस होम के बारे में पता चला जहां अक्सर सेक्स वर्कर्स और ऐसे लोगों को अधिकारी कैद में रखते थे। वह बताती हैं कि यह सैंपल लेना कितना मुश्किल और और चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि सैंपल लेने के दौरान उनके पास न कोई दस्ताने थे, और न ही सुरक्षा का कोई और सामान। वहीं चुनौती ये भी थी कि उन्होंने सेक्स वर्कर्स को यह नहीं बताया था कि वह एचआईवी और एड्स जैसी घातक बीमारी की जांच कर रही हैं। इस तरीके से बिना दस्तानों और बिना सुरक्षा के उन्होंने अपनी चिकित्सीय सुझबूझ से तीन महीनों में 80 सैंपल्स इकट्ठा किए।
वह बताती हैं कि यह सैंपल लेना कितना मुश्किल और और चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि सैंपल लेने के दौरान उनके पास न कोई दस्ताने थे, और न ही सुरक्षा का कोई और सामान। वहीं चुनौती ये भी थी कि उन्होंने सेक्स वर्कर्स को यह नहीं बताया था कि वह एचआईवी और एड्स जैसी घातक बीमारी की जांच कर रही हैं।
सैंपल्स को कैसे रखा सुरक्षित और कैसे हुआ सफल जांच
सोलोमॉन जो एक हृदय और फेफड़े के सर्जन से विवाहित थीं, ने अपने पति की मदद से एक छोटी सी अस्थायी प्रयोगशाला बनाई जिसमें उन्होंने और सेलप्पन ने रक्त के नमूनों से सीरम को अलग किया, जो परीक्षण प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। मेडिकल सुविधाओं में कमी के चलते, सेलप्पन को इन सैंपल्स को अपने घर के फ्रिज में सुरक्षित रखना पड़ा था। चेन्नई में एल्सा टेस्टिंग की सुविधा न होने की वजह से, सोलोमॉन ने सैंपल्स की जांच के चेन्नई से 200 किलोमीटर दूर, वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज में जांच कराने की व्यवस्था की थी। इसके लिए सेलप्पन ने सभी एचआईवी सैंपल्स को आइस बॉक्स में सुरक्षित रखा, और चेन्नई से रात की ट्रेन लेकर वेल्लोर गई।
फ़रवरी 1986 में उन्होंने क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के वायरोलॉजी विभाग के तत्कालीन डायरेक्टर डॉक्टर जैकब टी जॉन और दो अन्य लोगों पी डॉक्टर जॉर्ज बाबू और एरिक सिमॉस की मदद से सैंपल्स की जांच की और रिजल्ट पाज़िटिव निकला। इसके बाद फिर से विजिलेंस होम के सेक्स वर्कर्स के सैंपल्स लिए गए जिसे उन्होंने पहले किसी को नहीं बताया था। दोबारा लिए सैंपल्स अमेरिका भेजे गये जहां वेस्टर्न ब्लॉट टेस्ट ने यह निश्चित कर दिया कि भारत में एचआईवी वायरस आ चुका है। इस ख़तरनाक बीमारी के देश में मिलने की जानकारी इंडियन काउंसिल फ़ॉर मेडिकल रिसर्च ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तमिलनाडु के स्वास्थ्य मंत्री एचआईवी हांडे को दी। हालांकि उस वक्त लोग इसपर यक़ीन करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे।
चेन्नई में एल्सा टेस्टिंग की सुविधा न होने की वजह से, सोलोमॉन ने सैंपल्स की जांच के चेन्नई से 200 किलोमीटर दूर, वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज में जांच कराने की व्यवस्था की थी। इसके लिए सेलप्पन ने सभी एचआईवी सैंपल्स को आइस बॉक्स में सुरक्षित रखा, और चेन्नई से रात की ट्रेन लेकर वेल्लोर गई।
जब सेलप्पन को सुनने पड़े लोगों के ताने
सेलप्पन निर्मला ने जब इस घातक बीमारी का पता लगाया, तो उनकी निंदा भी हुई। जब स्वास्थ्य मंत्री हांडे ने इस ख़बर को विधानसभा में बताया, सेलप्पन और उनकी गाइड सोलोमॉन भी वहां मौजूद थीं। वह बीबीसी के अपने इंटरव्यू में बताती हैं कि लोग इस ख़बर को मानने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। वे हमारी जांच पर सवाल उठा रहे थे। जिस एचआईवी और एड्स जैसी घातक बीमारी को उस समय लोगों ने भरोसा नहीं किया, वहीं आगे चलकर कुछ साल बाद भारत में एक महामारी बन गया और बुरी तरह फैला और कई लोगों की मौत हुई। एक समय था जब भारत में एचआईवी संक्रमित लोगों की संख्या सबसे ज्यादा थी। लेकिन धीरे-धीरे ये संख्या साल 2006 में कम हुई। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि साल 2021 में भारत, दुनिया भर में तीसरा ऐसा देश था, जहां सबसे ज्यादा एचआईवी पॉजिटिव लोग थे।
उनका एचआईवी/एड्स से रोकथाम में योगदान
सेलप्पन निर्मला ने 1987 में अपनी डेजर्टेशन के लिए 200 सैंपल्स, सेक्स वर्कर्स और कैदियों से इकट्ठा करके, मार्च 1987 में अपनी डेजर्टेशन ‘सर्विलांस फ़ॉर एड्स इन तमिलनाडु’ अपनी गाइड को अपनी मेहनत और सूझबूझ से जमा किया। इसके बाद उन्होंने चेन्नई के किंग इंस्टिट्यूट ऑफ प्रिवेंटीव में मेडिसीन में वैक्सीन प्रोडक्शन में काम शुरू किया, और जहां से वो 2010 में रिटायर हुईं। आज हमारे देश में एचआईवी और एड्स जैसी खतरनाक बीमारी के मामलों को पता चले हुए लगभग चालीस साल बीत चुके हैं, और हमने सेलप्पन निर्मला के साहसिक कार्य को लगभग भूला दिया गया है।
सेलप्पन निर्मला ने जब इस घातक बीमारी का पता लगाया, तो उनकी निंदा भी हुई। जब स्वास्थ्य मंत्री हांडे ने इस ख़बर को विधानसभा में बताया, सेलप्पन और उनकी गाइड सोलोमॉन भी वहां मौजूद थीं। वह बीबीसी के अपने इंटरव्यू में बताती हैं कि लोग इस ख़बर को मानने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे।
बीबीसी को दिए गए इंटरव्यू में वह कहती हैं कि उन्हें खुशी है कि उन्हें समाज के लिए कुछ करने का अवसर प्राप्त हुआ। सेलप्पन निर्मला की यह यात्रा केवल एक वैज्ञानिक खोज नहीं थी, बल्कि समाज में व्याप्त धारणाओं और पूर्वाग्रहों को चुनौती देने की भी थी। उन्होंने न केवल भारत में एचआईवी/एड्स की पहली पहचान की, बल्कि इस बीमारी को समझने और उससे बचाव के प्रयासों को भी दिशा दी। हालांकि, उनके इस महत्वपूर्ण योगदान को समय के साथ भुला दिया गया, लेकिन उनका काम आज भी सार्वजनिक स्वास्थ्य और चिकित्सा अनुसंधान के लिए प्रेरणा है।