नारीवाद मेरा फेमिनिस्ट जॉय: संघर्ष से सशक्तिकरण तक मेरी यात्रा

मेरा फेमिनिस्ट जॉय: संघर्ष से सशक्तिकरण तक मेरी यात्रा

मेरा यह सफर सिर्फ मेरी सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि उन सभी लोगों की कहानियों से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने पितृसत्ता को चुनौती दी, जो अपने लिए नए रास्ते बना रहे हैं, और जो यह साबित कर रहे हैं कि जेंडर, जाति, वर्ग या धर्म की बेड़ियाँ हमें हमारी संभावनाओं से नहीं रोक सकतीं।

जब से मैंने होश संभाला, तब से मैंने पढ़ाई से पहले अपनी माँ के साथ खेतों में काम करना, पशुओं की देखभाल करना और ग्रामीण जीवन की कठिनाइयों को अनुभव करना सीखा। सुबह उठकर सबसे पहले मैं अपने पालतू जानवरों के लिए घास काटकर लाती थी, फिर 9 बजे स्कूल के लिए निकलती। मेरी चाची आज भी कहती हैं कि मैं बालों में चोटी बांधते-बांधते स्कूल जाया करती थी। हमारा स्कूल गांव से 7 किलोमीटर दूर था, और जंगल के रास्ते से हमें पैदल जाना पड़ता था। रास्ते में कई बार जंगली जानवर भी मिलते थे। लेकिन यह संघर्ष जैसा नहीं लगता था, बल्कि जीवन का एक स्वाभाविक हिस्सा महसूस होता था। ऐसा लगता था कि शायद सबका जीवन ऐसा ही होता होगा।

लड़कियों और लड़कों के बीच काम का भेदभाव

मुझे बचपन से ही यह एहसास हुआ कि हमारे समाज में कामों का बंटवारा जेंडर के आधार पर होता है, हालांकि तब मेरे पास ‘जेंडर’ शब्द की समझ नहीं थी। मेरे मन में कई सवाल उठते थे। जैसे- खेत में हल जोतने का काम केवल लड़के ही क्यों कर सकते हैं? लड़कियाँ क्यों नहीं, खेतों में निराई-गुड़ाई का ज्यादातर काम महिलाएँ करती हैं, लेकिन फसल तैयार होने के बाद पुरुष फसल को बाजार में बेचकर पैसा खुद रखते हैं। औरतें बाजार तक क्यों नहीं जाती, लड़के पैसे कमाने के लिए शहर जा सकते हैं, लेकिन लड़कियाँ क्यों नहीं, घर के कामों, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल की जिम्मेदारी केवल महिलाओं की ही क्यों होती है, पुरुषों को उनके काम के बदले पैसे मिलते हैं, लेकिन औरतों को क्यों नहीं, या लड़के अकेले कहीं भी जा सकते हैं, लेकिन लड़कियों को क्यों रोका जाता है?

इन सवालों ने मुझे और प्रेरित किया कि मैं वे सारे काम करूं जिन्हें समाज ‘लड़कियों के लिए मना करता है।’ मैंने 12वीं की पढ़ाई के बाद, लगभग 17-18 साल की उम्र में, अकेले गांव से बाहर जाना शुरू किया और अपने खर्चों के लिए पैसे कमाने के उद्देश्य से काम करना शुरू किया। गांव के सरकारी स्कूल में अध्यापकों की कमी थी, तो मैंने वहाँ बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, साथ ही ट्यूशन पढ़ाने आदि काम भी किए।

मैंने 12वीं की पढ़ाई के बाद, लगभग 17-18 साल की उम्र में, अकेले गांव से बाहर जाना शुरू किया और अपने खर्चों के लिए पैसे कमाने के उद्देश्य से काम करना शुरू किया।

स्वतंत्रता की ओर पहला कदम

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

जब मैं बड़ी हो रही थी, मैंने देखा कि मेरी माँ और गांव की अन्य महिलाएं अपने खर्चों के लिए अपने पतियों से पैसे माँगती थीं और उन्हें कई तरह की बातें सुननी पड़ती थीं। उनके पतियों द्वारा हिसाब मांगा जाता कि पैसे कहां खर्च किए, कितने बचे, और पैसे कमाना कितना मुश्किल है। यह देखकर मैंने ठान लिया कि मैं अपनी आर्थिक स्वतंत्रता खुद हासिल करूंगी और कभी किसी से पैसे नहीं मांगूँगी। इस सोच ने मुझे और सशक्त किया, और मैं सामाजिक ढांचे को चुनौती देने लगी। मैंने लड़कों के साथ खेलना शुरू किया, वे सारे काम किए जो लड़कों के लिए तय माने जाते थे, खुद पैसे कमाने और अपनी शर्तों पर जीने की ठानी।

शिक्षा और करियर की ओर यात्रा

कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद, 2018 में मुझे अल्मोड़ा, उत्तराखंड में सेवा संस्था के बारे में जानकारी मिली और मैंने उनके साथ जुड़कर काम करना शुरू किया। इस दौरान मैंने असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की समस्याओं को समझा और जमीनी स्तर पर समुदाय के साथ काम करना सीखा। इसके तहत मैंने उत्तराखंड के पाँच जिलों (अल्मोड़ा, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़, बागेश्वर, देहरादून) की कृषि और घरेलू कामगार महिलाओं के रोजगार, स्वास्थ्य, आवास, बच्चों की सुरक्षा आदि मुद्दों पर सरकार और समाज के साथ संवाद किया। मैंने महसूस किया कि गांव हो या शहर, औरतों की स्थिति हर जगह एक जैसी है। उन्हें काम करने के लिए कम अवसर मिलते हैं, लेकिन वे खुद अपने लिए रास्ता बनाकर आगे बढ़ती हैं।

मैंने एक प्रोग्राम के तहत 8 महिलाओं को कृषि के साथ-साथ पर्यटन के क्षेत्र में भी काम करने के लिए प्रेरित किया। यह अनुभव मेरे लिए सबसे अनोखा रहा। हम सभी ने मिलकर इस यात्रा की शुरुआत की, जिसमें हमने जाना कि पर्यटन क्या होता है, एक होमस्टे कैसे शुरू किया जा सकता है, और इसके लिए किन-किन चीजों की आवश्यकता होती है।

ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करने से मिली प्रेरणा

जब भी मैं अपने काम के दौरान अपने गांव या आस-पास के गांव की महिलाओं से मिलती हूं, तो उनके उत्साह और कठिन परिस्थितियों में काम करने के बावजूद उनके चेहरे की खुशी और हिम्मत देखकर मुझे अपने जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। अपने काम के दौरान, मैंने गांव की महिलाओं के कई स्वयं सहायता समूह बनवाए और उन्हें सरकार की विभिन्न योजनाओं से जोड़ा। जब ये समूह बने, तब बहुत सारी महिलाएं ऐसी थीं जो न तो हस्ताक्षर कर पाती थीं और न ही आत्मविश्वास के साथ अपना परिचय दे पाती थीं। लेकिन समय के साथ, समूह की बैठकों में भाग लेने और निरंतर अभ्यास करने से वे अपना परिचय देना सीख गईं। जो महिलाएं पहले हस्ताक्षर नहीं कर पाती थीं, उन्होंने भी धीरे-धीरे हस्ताक्षर करना सीख लिया। यह देखकर मुझे बहुत खुशी हुई और मेरे काम के प्रति मेरा उत्साह और बढ़ गया।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इसके अलावा, मैंने एक प्रोग्राम के तहत 8 महिलाओं को कृषि के साथ-साथ पर्यटन के क्षेत्र में भी काम करने के लिए प्रेरित किया। यह अनुभव मेरे लिए सबसे अनोखा रहा। हम सभी ने मिलकर इस यात्रा की शुरुआत की, जिसमें हमने जाना कि पर्यटन क्या होता है, एक होमस्टे कैसे शुरू किया जा सकता है, और इसके लिए किन-किन चीजों की आवश्यकता होती है। यह सीखकर उन्होंने अपना होमस्टे का काम शुरू किया। इस दौरान, मैंने यह महसूस किया कि ये महिलाएं छोटी-छोटी चीजों को भी पूरे दिल से करती हैं और बड़ी जिम्मेदारी के साथ आगे बढ़ रही हैं। जब उन्हें छोटे-छोटे लक्ष्य प्राप्त होते थे, तो उनका आत्मविश्वास और खुशी दोगुनी हो जाती थी। यह देखकर मुझे न केवल संतोष मिलता था, बल्कि प्रेरणा भी मिलती थी।

2020-21 के दौरान, कुछ लोगों से मिलने के बाद मैंने ‘फेमिनिज़म’ शब्द को समझना शुरू किया और जाना कि मेरी विचारधारा पहले से ही फेमिनिस्ट थी। इन विषयों को और गहराई से समझने के लिए मैंने हिमाचल क्वीर फाउंडेशन की जेंडर फेलोशिप से जुड़कर सीखा कि समाज में महिला-पुरुष के अलावा भी अलग-अलग यौनिक पहचान रखने वाले समुदाय हैं।

फेमिनिज़म से परिचय और समाज की समझ

मैं बचपन से जाति, धर्म, वर्ग और लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव को देखती आई थी। 2020-21 के दौरान, कुछ लोगों से मिलने के बाद मैंने ‘फेमिनिज़म’ शब्द को समझना शुरू किया और जाना कि मेरी विचारधारा पहले से ही फेमिनिस्ट थी। इन विषयों को और गहराई से समझने के लिए मैंने हिमाचल क्वीर फाउंडेशन की जेंडर फेलोशिप से जुड़कर सीखा कि समाज में महिला-पुरुष के अलावा भी अलग-अलग यौनिक पहचान रखने वाले समुदाय हैं। मैंने पितृसत्ता, नारीवाद, जाति-भेदभाव, जेंडर भेदभाव, वर्ग, धर्म और राजनीति के आपसी संबंधों को गहराई से समझा।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

मुझे एहसास हुआ कि जन्म और लिंग निर्धारण इंसान के अपने बनाए नहीं हैं, लेकिन जेंडर से जुड़े सभी नियम पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बनाए गए हैं, जिन्हें बदला जा सकता है। इसी सोच ने मुझे सामाजिक बदलाव की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद मैंने हिमाचल क्वीर फाउंडेशन के साथ मिलकर लैंगिक समानता, ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन राइट्स एक्ट, जाति, वर्ग, धर्म और राजनीति से जुड़े सामाजिक मुद्दों पर समुदाय के साथ संवाद करना शुरू किया। हमने सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों, प्रशासनिक अधिकारियों, डीएम, एसडीएम, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, महिला मंडलों, स्कूलों और कॉलेजों में जाकर जेंडर समानता, जेंडर भेदभाव और मानसिक स्वास्थ्य पर सत्र आयोजित किए।

मैं अपने परिवार की पहली लड़की हूं जिसने मास्टर तक की पढ़ाई की और अपने गांव से बाहर निकलकर दूसरे राज्य में नौकरी कर रही हूं। आज जब मैं अपने सफर को देखती हूं, तो गर्व महसूस करती हूं कि जिस सामाजिक भेदभाव को बचपन में चुनौती देने का फैसला किया था, उसे तोड़ने में मैं सक्षम हूं।

क्या है मेरा सपना और फेमिनिस्ट जॉय

मैं अपने परिवार की पहली लड़की हूं जिसने मास्टर तक की पढ़ाई की और अपने गांव से बाहर निकलकर दूसरे राज्य में नौकरी कर रही हूं। आज जब मैं अपने सफर को देखती हूं, तो गर्व महसूस करती हूं कि जिस सामाजिक भेदभाव को बचपन में चुनौती देने का फैसला किया था, उसे तोड़ने में मैं सक्षम हूं। मेरा सपना है कि हर लड़की को आगे बढ़ने का मौका और सही मार्गदर्शन मिले, ताकि वे अपने लिए नए अवसर बना सकें। मैं अपनी इस यात्रा को जारी रखना चाहती हूं और जो भी लड़की आगे बढ़ना चाहती है, उसे अपने अनुभव से आगे बढ़ाने में मदद करना चाहती हूं।

मेरा यह सफर सिर्फ मेरी सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि उन सभी लोगों की कहानियों से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने पितृसत्ता को चुनौती दी, जो अपने लिए नए रास्ते बना रहे हैं, और जो यह साबित कर रहे हैं कि जेंडर, जाति, वर्ग या धर्म की बेड़ियाँ हमें हमारी संभावनाओं से नहीं रोक सकतीं। यही फेमिनिस्ट जॉय है जहां संघर्षों के बीच आत्मनिर्भरता और सामूहिक बदलाव की खुशी महसूस होती है। मैं चाहती हूं कि हर लड़की, हर महिला, हर हाशिए का व्यक्ति इस खुशी को महसूस कर सके, अपने हक के लिए खड़ा हो सके, और अपनी स्वतंत्रता को पूरी तरह से जी सके।

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