इंटरसेक्शनलजेंडर जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग: बच्चों की परवरिश के रूढ़िवादी तरीकों को बदलने की जरूरत

जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग: बच्चों की परवरिश के रूढ़िवादी तरीकों को बदलने की जरूरत

जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग सिर्फ बच्चों को आज़ादी देने का तरीका नहीं, बल्कि एक सामाजिक बदलाव की दिशा में उठाया गया कदम है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम अपने बच्चों को उनके असली व्यक्तित्व को अपनाने की स्वतंत्रता दे रहे हैं, या फिर उन्हें समाज के बने-बनाए ढांचे में ढाल रहे हैं?

अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों के बेहतर भविष्य की कामना करते हैं और चाहते हैं कि वे किसी भी बंधन में न रहें। लेकिन समाज के तय मानदंडों और परंपराओं के अनुसार ही अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश करते हैं। यह प्रक्रिया अक्सर अनजाने में रूढ़िवादी पेरेंटिंग मॉडल को आगे बढ़ाती है, जहां जेंडर रोल्स समाज द्वारा निर्धारित होते हैं। बचपन से ही लड़के और लड़कियों को अलग-अलग तरीके से पाला-पोसा जाता है। लड़कों को मज़बूत, बहादुर और कम भावुक बनने के लिए प्रेरित किया जाता है, जबकि लड़कियों से नरम, कोमल और घरेलू कामों में निपुण होने की उम्मीद की जाती है। इस लैंगिक भेदभाव का असर समाज में गहराई तक मौजूद है।

जेंडर न्यूट्रल पैरेंटिंग (Gender Neutral Parenting) इस सोच को बदलने की कोशिश करता है। जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग इस परवरिश के पारंपरिक ढांचे को चुनौती देती है। इस मॉडल में माता-पिता बच्चों पर पहले से तय किए गए लैंगिक मानदंड लागू नहीं करते हैं। इसका उद्देश्य बच्चों को अधिक स्वतंत्र रूप से सोचने और अपनी पसंद की चीजें चुनने की स्वतंत्रता देना है। इसका उद्देश्य बच्चों को उनकी रूचियों और क्षमताओं के अनुसार बढ़ने देना है, न कि समाज द्वारा निर्धारित किए गए ‘लड़का-लड़की’ के तय ढाँचों में बाँधना।

मेरा बेटा डिज्नी की फिल्म ‘फ्रोज़न’ की एल्सा को बहुत पसंद करता है। मैंने उसके लिए एल्सा वाले कुछ कपड़े खरीदे, जिससे वह बहुत खुश हुआ। लेकिन रिश्तेदारों ने इसे मेरी बेटी के लिए समझा। समाज में अभी भी यह सोच बनी हुई है कि गुलाबी रंग लड़कियों का होता है और नीला लड़कों का।

पारंपरिक पेरेंटिंग मॉडल और इसके प्रभाव

हमारा समाज अधिकतर अथॉरिटेरियन पेरेंटिंग (नियंत्रणकारी पालन-पोषण) को बढ़ावा देता है। इस मॉडल में माता-पिता बच्चों के जीवन को बचपन से ही नियंत्रित करने की प्रवृत्ति रखते हैं। इसका असर यह होता है कि बच्चों का आत्मविश्वास कम हो सकता है और वे हमेशा समाज के बनाए नियमों के अनुसार ही चलने को बाध्य हो जाते हैं। इस तरह की परवरिश में बच्चों को अपनी पहचान बनाने में कठिनाई होती है। वे अपनी इच्छाओं और पसंद को समाज के डर से दबा देते हैं। कई मामलों में इससे एंग्जायटी और डिप्रेशन जैसी मानसिक समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं। जेंडर आधारित पेरेंटिंग भी इसी रूढ़िवादिता का एक हिस्सा है, जिसमें यह तय कर दिया जाता है कि लड़के और लड़कियां क्या करेंगे। उदाहरण के लिए, एक लड़की का बॉक्सर बनना या एक लड़के का कत्थक डांसर बनना समाज को असामान्य लगता है।

जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग क्या है?

जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग की अवधारणा 1970 के दशक में आई, जो नारीवाद की दूसरी लहर से प्रेरित थी। इस मॉडल का उद्देश्य बच्चों को लिंग-आधारित सीमाओं से मुक्त करना है। इसका मतलब यह नहीं है कि माता-पिता बच्चों को पूरी तरह से जेंडर की समझ से मुक्त माहौल में बड़ा करें, बल्कि यह है कि वे बच्चों पर किसी विशेष जेंडर से जुड़ी चीजें थोपने के बजाय उन्हें अपनी पसंद चुनने की स्वतंत्रता दें। उदाहरण के लिए, गुलाबी रंग सिर्फ लड़कियों के लिए या कारें सिर्फ लड़कों के लिए हैं, यह अवधारणा बच्चों पर थोपने की बजाय उन्हें खुद तय करने दिया जाए कि उन्हें क्या पसंद है। जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग अपनाने के लिए माता-पिता को कई पहलुओं पर ध्यान देने की जरूरत है।

तस्वीर साभार: Hindustan Times
  1. लिंग-विशिष्ट भाषा का प्रयोग कम करें – माता-पिता अपने बच्चों को, विशेषकर लड़कियों को बेटा या लड़का या लड़की कहने की बजाय सिर्फ बच्चा कह सकते हैं।
  2. लिंग-विशिष्ट रंगों को लागू न करें – बच्चों को कपड़े या खिलौनों के रंग चुनने की आजादी दी जाए। अगर वे सिर्फ कुछ ही रंगों में सीमित रहते हैं, तो उनकी रचनात्मकता प्रभावित हो सकती है।
  3. लिंग आधारित सामाजिक मानदंड न थोपें – अगर कोई लड़का गुड़ियों से खेलना चाहता है या कोई लड़की फुटबॉल खेलना चाहती है, तो माता-पिता को इसे प्रोत्साहित करना चाहिए। बच्चों को दुनिया से जुड़ने के नए तरीके खोजने देना चाहिए, चाहे वह उनका हेयरस्टाइल हो, कपड़ों की पसंद हो या खेलने का तरीका हो।
  4. घरों में जेंडर रोल्स तय न करें- बच्चों की पहली शिक्षा घरों में ही होती है। इसलिए जरूरी है कि हम घरों में काम या जिम्मेदारी जेंडर के आधार पर नहीं बल्कि रुचि या समझ के आधार पर बांटे।

हमारा समाज अधिकतर अथॉरिटेरियन पेरेंटिंग (नियंत्रणकारी पालन-पोषण) को बढ़ावा देता है। इस मॉडल में माता-पिता बच्चों के जीवन को बचपन से ही नियंत्रित करने की प्रवृत्ति रखते हैं। इसका असर यह होता है कि बच्चों का आत्मविश्वास कम हो सकता है और वे हमेशा समाज के बनाए नियमों के अनुसार ही चलने को बाध्य हो जाते हैं।

हमारा समाज अधिकतर अथॉरिटेरियन पेरेंटिंग (नियंत्रणकारी पालन-पोषण) को बढ़ावा देता है। इस मॉडल में माता-पिता बच्चों के जीवन को बचपन से ही नियंत्रित करने की प्रवृत्ति रखते हैं। इसका असर यह होता है कि बच्चों का आत्मविश्वास कम हो सकता है और वे हमेशा समाज के बनाए नियमों के अनुसार ही चलने को बाध्य हो जाते हैं।

पेरेंटिंग से जुड़ी समाज में चुनौतियां और अनुभव

तस्वीर साभार: The Bumb

जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग अपनाने में भारतीय समाज में कई चुनौतियां हैं। माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य अक्सर परंपराओं को तोड़ने से हिचकिचाते हैं। फेमिनिज्म इन इंडिया द्वारा की गई बातचीत में मध्य प्रदेश के जैनब (बदला हुआ नाम) ने बताया, “मेरे माता-पिता की पांच बेटियां थीं। उन्होंने हमें हमेशा स्वतंत्र रूप से पाला। मेरी एक बहन कराटे सीखना चाहती थी, तो पिताजी ने उसके लिए घर में ही कराटे की क्लास लगवा दी। अगर हमारे घर में कोई लड़का होता, तो शायद हमें इस तरह की आजादी नहीं मिलती। मैं अपने माता-पिता की आभारी हूं कि उन्होंने हमें जेंडर आधारित सीमाओं में नहीं बांधा।” इसी तरह, मध्य प्रदेश की यशोदा (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “मेरा बेटा डिज्नी की फिल्म ‘फ्रोज़न’ की एल्सा को बहुत पसंद करता है। मैंने उसके लिए एल्सा वाले कुछ कपड़े खरीदे, जिससे वह बहुत खुश हुआ। लेकिन रिश्तेदारों ने इसे मेरी बेटी के लिए समझा। समाज में अभी भी यह सोच बनी हुई है कि गुलाबी रंग लड़कियों का होता है और नीला लड़कों का।”

जेंडर स्टीरियोटाइप्स को बढ़ावा देता बॉलीवुड

बॉलीवुड में लंबे समय से लैंगिक रूढ़ियों को बढ़ावा दिया जाता रहा है। फिल्मों के माध्यम से यह तय किया जाता है कि लड़कों और लड़कियों को किस तरह दिखना, बोलना, और व्यवहार करना चाहिए। बचपन से ही ‘गर्ल मतलब गुलाबी और बॉय मतलब ब्लू’ जैसी अवधारणाएं हमारे दिमाग में बैठा दी जाती हैं, जिसमें बॉलीवुड की बड़ी भूमिका रही है। मनोरंजन की दुनिया आम तौर पर रंगों का जेंडर से जुड़ाव करती है। यह बताती है कि  गुलाबी लड़कियों के लिए, नीला लड़कों के लिए है। बॉलीवुड फिल्मों में बार-बार दिखाया गया है कि लड़कियों का पसंदीदा रंग गुलाबी (पिंक) होता है, जबकि लड़कों का नीला (ब्लू)। रोमांटिक और कॉलेज ड्रामा फिल्मों पर ध्यान दें, तो में लड़कियों के कपड़े, उनके कमरे और उनका पूरा व्यक्तित्व गुलाबी रंग से जोड़ा जाता है। उदाहरण के लिए, मैं प्रेम की दीवानी हूं और कभी खुशी कभी ग़म  जैसी फिल्मों में करीना कपूर का किरदार पूरी तरह से गुलाबी रंग में लिपटा हुआ दिखाया गया था।

तस्वीर साभार: Twitter

लड़कों को नीले या गहरे रंग के कपड़ों में दिखाया जाता है, जिससे यह संदेश जाता है कि हल्के और चमकीले रंग महिलाओं के लिए हैं। लड़कों को ‘मजबूत’ और लड़कियों को ‘नाज़ुक’ दिखाने का पैटर्न भी फिल्मों में आम है। बॉलीवुड फिल्मों में नायक (हीरो) को अक्सर मर्दानगी का प्रतीक दिखाया जाता है जो मजबूत, गुस्सैल और निडर होता है। सिंघम या दबंग जैसी फिल्मों में पुरुष किरदारों को आक्रामक, फाइटर और महिलाओं के रक्षक के रूप में पेश किया जाता है। वहीं, नायिकाएं (हीरोइन) आमतौर पर नाजुक, कोमल और सजी-संवरी दिखती हैं। उनके किरदारों को आब्जेक्टिफाइ कर के यह जताया जाता है कि लड़कियां कोमलता और सौंदर्य का प्रतीक हैं। यदि कोई लड़की बनेबनाए नियमों के अनुसार नहीं है तो उसे ‘टॉमबॉय’ बताया जाता है। जैसे, कुछ कुछ होता है में अंजलि (काजोल) का किरदार, जिसे आखिरकार ‘फेमिनिन’ यानी अधिक पारंपरिक स्त्री रूप में ढलना पड़ता है ताकि हीरो उसे पसंद कर सके।

मेरी एक बहन कराटे सीखना चाहती थी, तो पिताजी ने उसके लिए घर में ही कराटे की क्लास लगवा दी। अगर हमारे घर में कोई लड़का होता, तो शायद हमें इस तरह की आजादी नहीं मिलती। मैं अपने माता-पिता की आभारी हूं कि उन्होंने हमें जेंडर आधारित सीमाओं में नहीं बांधा।”

वहीं गानों और संवादों में भी जेंडर स्टीरियोटाइप्स दिखते हैं। हिंदी फिल्मों के कई गाने और डायलॉग इस रूढ़िवादी सोच को मजबूत करते हैं। उदाहरण के लिए- “लड़की क्यों ना जाने क्यों लड़कों सी नहीं होती” (हम तुम फिल्म)। इसमें लड़कियों को भावनात्मक और नाजुक बताया गया है, जो आम तौर पर लड़कों के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। “छोटी ड्रेस में बम लगदी मेनू” (कुक्कड़ गाना, स्टूडेंट ऑफ द ईयर) – यह दिखाता है कि लड़की का व्यक्तित्व उसके कपड़ों से तय किया जाता है। फिल्मों के सेट और सीन में रंगों का उपयोग भी काफी रूढ़िवादी तरीके से होता है। जब किसी फिल्म में शादी, कॉलेज रोमांस या गर्ल्स गैंग का सीन होता है, तो गुलाबी और लाल जैसे रंगों का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। इसके उलट एक्शन, ऑफिस या हीरो के दृश्यों में काले, नीले और ग्रे रंगों को प्रमुखता दी जाती है।

सोनू के टीटू की स्वीटी और कॉकटेल जैसी फिल्मों में भी दिखाया जाता है कि ‘मॉडर्न और ज़िम्मेदार’ पुरुष आमतौर पर गहरे रंग पहनते हैं, जबकि ‘मासूम और चुलबुली’ लड़कियों के कपड़े हल्के और चमकीले होते हैं। हालांकि हाल के वर्षों में कुछ फिल्में और कलाकार इस स्टीरियोटाइप को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। गंगूबाई काठियावाड़ी में आलिया भट्ट का किरदार पावरफुल था, जहां गुलाबी रंग का इस्तेमाल मजबूती का प्रतीक बनाने के लिए किया गया। छिछोरे, दंगल या चक दे इंडिया जैसी फिल्मों ने दिखाया कि लड़कियां भी मजबूत, आत्मनिर्भर और साहसी हो सकती हैं। सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफार्म्स के बढ़ते प्रभाव के कारण अब फिल्मों में भी विविधता देखने को मिल रही है, और जेंडर न्यूट्रल अप्रोच अपनाने की कोशिश की जा रही है।

क्या हो सकता है आगे का रास्ता

जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग सिर्फ बच्चों को आज़ादी देने का तरीका नहीं, बल्कि एक सामाजिक बदलाव की दिशा में उठाया गया कदम है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम अपने बच्चों को उनके असली व्यक्तित्व को अपनाने की स्वतंत्रता दे रहे हैं, या फिर उन्हें समाज के बने-बनाए ढांचे में ढाल रहे हैं? बच्चों को उनकी पसंद और इच्छाओं के अनुसार खुद को अभिव्यक्त करने देना जरूरी है। पेरेंटिंग में लिंग आधारित पूर्वाग्रहों को हटाकर, हम आने वाली पीढ़ियों को अधिक स्वतंत्र, आत्मविश्वासी और संवेदनशील बना सकते हैं। जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग की शुरुआत घर से होती है, और यह पूरे समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता रखती है।

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