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इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ होमोसेक्शूऐलिटी और क्वीयर समुदाय: संघर्ष, आंदोलन और इतिहास

होमोसेक्शूऐलिटी और क्वीयर समुदाय: संघर्ष, आंदोलन और इतिहास

प्रथम होमोसेक्शुअलसमुदाय आंदोलन की नींव आमतौर पर साल 1897 में बर्लिन में मैग्नस हिर्शफेल्ड द्वारा वैज्ञानिक-मानवीय समिति (WhK) की स्थापना को दी जाती है। साल 1871 से 1945 तक जब बर्लिन जर्मनी की राजधानी थी, होमोसेक्शुअल समुदाय के अधिकारों का पहला आंदोलन यहीं से शुरू हुआ। इसका सबसे गहरा असर पश्चिमी बर्लिन पर पड़ा।

एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़े लोगों की स्थिति और उनके अधिकारों से जुड़े नियम-कानून लंबे समय से चर्चा का विषय रहे हैं। आज भी यह समुदाय समाज के हाशिये पर गिने जाने वाले समूहों में से एक है। यौनिकता और और लैंगिक पहचान से जुड़े रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों के कारण एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों को भेदभाव, बहिष्कार और सामाजिक कलंक और बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। हालांकि उनके अधिकारों और समानता को सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न देशों में मानवाधिकारों पर आधारित कानून बनाए गए हैं। लेकिन, आज भी जमीनी स्तर पर रिपोर्ट और अध्ययन कुछ और बयान करते हैं। ब्रिटिश काल से पहले भी होमोसेक्शूऐलिटी को सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता था, और ब्रिटिश शासन के दौरान इस समुदाय का शोषण जारी रहा। आज भी एलजीबीटीक्यू+ लोगों को कई चुनौतियों और संघर्षों का सामना करना पड़ता है। हालांकि समानता और स्वीकार्यता के लिए कई आंदोलन भी हुए हैं, जिनमें लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। लेकिन, मूल प्रश्न यह बना हुआ है कि क्या समाज ने, सरकार ने और लोगों ने होमोसेक्शूऐलिटी को स्वीकार किया है या कहां तक इसका विरोध जारी है।

होमोसेक्शूऐलिटी: एक ऐतिहासिक सामाजिक कलंक

होमोसेक्शूऐलिटी पूरे विश्व में सदियों से एक टैबू के रूप में देखी जाती रही है। इस समुदाय से जुड़े सभी लोग कहीं न कहीं हाशिए पर आंके जाने वाले समुदायों के दायरे में ही आते हैं। विश्व का इतिहास हो या वर्तमान समय—होमोसेक्शूएलिटी को हमेशा घृणा और कमतर नज़रों से देखा गया है। ऐसा मान लेना गलत होगा कि यह रूढ़िवादी सोच केवल भारत में मौजूद है। पश्चिमी देशों में भी दो सदियों पूर्व स्थिति दयनीय थी। चाहे वो साल 1969 के स्टोनवॉल दंगे हों या फिर इससे पहले की सामाजिक स्थितियां, हर जगह क्वीयर समुदाय ने शोषण और अस्वीकार्यता का अनुभव किया है।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1919 से 1933 तक जर्मनी को वाईमर रिपब्लिक कहा गया। इसका नाम वाइमर शहर के नाम पर रखा गया था, जहां राष्ट्रीय सभा द्वारा नई सरकार का गठन हुआ था। इसी दौर में बर्लिन को ‘क्वीयर कैपिटल’ के रूप में देखा जाने लगा, जहां एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए खुले सार्वजनिक स्थानों की शुरुआत हुई।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1919 से 1933 तक जर्मनी को वाईमर रिपब्लिक कहा गया। इसका नाम वाइमर शहर के नाम पर रखा गया था, जहां राष्ट्रीय सभा द्वारा नई सरकार का गठन हुआ था। इसी दौर में बर्लिन को ‘क्वीयर कैपिटल’ के रूप में देखा जाने लगा, जहां एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए खुले सार्वजनिक स्थानों की शुरुआत हुई। वाइमर काल के दौरान, बर्लिन एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों के लिए एक आश्रय स्थल बन गया, जहां बार, क्लब और अन्य स्थान विकसित हो गए, जहां क्वीयर समुदाय खुलेआम रह सकते थे और अपना समुदाय पा सकते थे। बर्लिन के खुलेपन और सहिष्णुता ने, वाईमर संविधान में मौजूद मौलिक मानवाधिकारों के साथ मिलकर, शहर को एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों सहित एक सांस्कृतिक महानगर के रूप में फलने-फूलने में सक्षम बनाया।

एलजीबीटीक्यू+ लोगों के लिए स्थानों की उपस्थिति का महत्व

तस्वीर साभार: BBC

एलडोराडो बर्लिन के सबसे प्रसिद्ध क्वीर स्थलों में से एक था, और इसे विशेष रूप से अपने ड्रैग प्रदर्शन के लिए जाना जाता था। इसकी लोकप्रियता एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के समर्थन के कारण नहीं थी, बल्कि इसे क्वीयर संस्कृति की झलक के रूप में देखा जाता था। साल 1931 की कुक्स ट्रैवल एजेंसी गाइडबुक में इसका उल्लेख एक अजूबे के रूप में किया गया था। हालांकि, बर्लिन में एलजीबीटीक्यू+ स्थलों की जानकारी इतनी व्यापक थी कि क्वीर लोग अपने समुदाय को आसानी से खोज सकते थे। साल 1928 में प्रकाशित ‘बर्लिन की लेस्बियन महिलाएं’ जैसी गाइडबुक्स इस बात की गवाही देती है। क्वीयर समुदाय के लिए विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए इन स्थानों ने एलजीबीटीक्यू+ लोगों को अपनी पहचान के साथ खुलकर जीने, प्रेम और समर्थन पाने का अवसर दिया। इन स्थानों के माध्यम से लोगों ने अपनी पहचान को महसूस किया, साझा किया और उससे जुड़ी चुनौतियों से निपटने का रास्ता खोजा।

होमोसेक्शूलिटी पर पहली फीचर फिल्म

तस्वीर साभार: The Hindu

निर्देशक हिर्शफेल्ड ने रिचर्ड ओसवाल्ड के साथ मिलकर 30 जून 1919 को ‘डिफरेंट फ्रॉम द अदर्स’ नामक फिल्म पर काम किया, जो होमोसेक्शूऐलिटी को केंद्र में रखकर बनाई गई पहली जर्मन फीचर फिल्म थी। यह साइलेंट फिल्म होते हुए भी बहुत चर्चित हुई। इसे होमोसेक्शूलिटीपर बात करने वाली वाली पहली जर्मन फिल्म मानी जाती है और कुछ शोधकर्ताओं का मानना ​​है कि यह इस मुद्दे की स्पष्ट रूप से जांच करने वाली दुनिया की पहली फिल्म है। यह फिल्म लोकप्रिय और विवादास्पद दोनों थी, जिसने होमोसेक्शूलिटीऔर समाज में इसके स्थान के बारे में बहस छेड़ दी।

एलडोराडो बर्लिन के सबसे प्रसिद्ध क्वीर स्थलों में से एक था, और इसे विशेष रूप से अपने ड्रैग प्रदर्शन के लिए जाना जाता था। इसकी लोकप्रियता एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के समर्थन के कारण नहीं थी, बल्कि इसे क्वीयर संस्कृति की झलक के रूप में देखा जाता था।

होमोसेक्शुअल समुदाय के पहले आंदोलन की नींव

तस्वीर साभार: BBC

प्रथम होमोसेक्शुअलसमुदाय आंदोलन की नींव आमतौर पर साल 1897 में बर्लिन में मैग्नस हिर्शफेल्ड द्वारा वैज्ञानिक-मानवीय समिति (WhK) की स्थापना को दी जाती है। साल 1871 से 1945 तक जब बर्लिन जर्मनी की राजधानी थी, होमोसेक्शुअल समुदाय के अधिकारों का पहला आंदोलन यहीं से शुरू हुआ। इसका सबसे गहरा असर पश्चिमी बर्लिन पर पड़ा। 1971 में HAW (होमोसेक्शुअल एक्शन वेस्ट बर्लिन) की स्थापना हुई। वहीं पूर्वी बर्लिन के प्रेंज़लॉयर बर्ग में 1973 में HIB (होमोसेक्शुअल इंटरसेन्गमेनशाफ्ट बर्लिन) की स्थापना के साथ पूर्वी जर्मनी में एलजीबीटीक्यू+ आंदोलन मजबूत हुआ। राज्य की मुद्रण प्रणाली, बुर्जुआ प्रेस और प्रमुख समाचार पत्रों ने इस विषय पर चर्चा को तेज किया। 1908 तक यह अनुमान था कि 5,000 से अधिक होमोसेक्शुअलपुरुष इस आंदोलन से किसी न किसी रूप में जुड़े थे। हालांकि WhK को पहला संगठन माना जाता है, अन्य संगठन बाद में उभरे, जैसेकि साल 1924 में शिकागो में हेनरी गेरबर द्वारा स्थापित सोसायटी फॉर ह्यूमन राइट्स।

रैख्सटाग और SPD की भूमिका

जर्मन संसद ‘रैख्सटाग’ में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (SPD) ने पैराग्राफ 175 के खिलाफ सक्रियता दिखाई। SPD के प्रतिनिधि ऑगस्ट थियले ने इस कानून की आलोचना करते हुए इसे “पादरियों की क्रूरता और असहिष्णुता” का उदाहरण बताया। अनुच्छेद 175 एक जर्मन क़ानून था जो पुरुषों के बीच यौन संबंधों को अपराध मानता था। यह महिलाओं के बीच यौन संबंधों को अपराध नहीं मानता था। अनुच्छेद 175 नाज़ी शासन से पहले का है। हालांकि नाज़ियों ने अनुच्छेद 175 को 1935 में संशोधित करके इसे व्यापक और कठोर बना दिया गया था। यह उन मुख्य टूल में से एक था जिसका इस्तेमाल नाज़ियों ने होमोसेक्शुअलपुरुषों और अन्य पुरुषों के साथ यौन संबंधों के आरोपी पुरुषों को परेशान और शोषण करने के लिए किया था। साल 1907 और 1912 के चुनावों में होमोसेक्शुअललोगों के अधिकारों को लेकर उम्मीदवारों से पूछे गए प्रश्नों ने राजनीतिक दलों की सोच को सामने रखा गया। वहीं साल 1912 में भेजी गई 97 प्रतिक्रियाओं में से 37 उम्मीदवार चुने गए और उनमें से 24 SPD से थे।

निर्देशक हिर्शफेल्ड ने रिचर्ड ओसवाल्ड के साथ मिलकर 30 जून 1919 को ‘डिफरेंट फ्रॉम द अदर्स’ नामक फिल्म पर काम किया, जो होमोसेक्शूऐलिटी को केंद्र में रखकर बनाई गई पहली जर्मन फीचर फिल्म थी। यह साइलेंट फिल्म होते हुए भी बहुत चर्चित हुई।

मैग्नस हिर्शफेल्ड की क्वीयर आंदोलन में भूमिका

तस्वीर साभार: Holocast Encyclopedia

मैग्नस हिर्शफेल्ड, एक जर्मन यहूदी चिकित्सक, एलजीबीटीक्यू+ आंदोलन के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक माने जाते हैं। उन्होंने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए पहला सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किया और साबित किया कि होमोसेक्शुअल लोगोंमें आत्महत्या से मौत का खतरा ज्यादा होता है। साल 1896 में उन्होंने ‘सप्पो और सुकरात‘ नामक पुस्तिका छद्म नाम से प्रकाशित की। इसके बाद 1897 में उन्होंने वैज्ञानिक-मानवीय समिति की स्थापना की। यह दुनिया का पहला एलजीबीटीक्यू+ अधिकार संगठन था, जिसका लक्ष्य पैरेग्राफ 175 को निरस्त कराना था। समिति ने 6,000 लोगों के हस्ताक्षर के साथ याचिका पेश की, लेकिन यह विधेयक पारित नहीं हो सका। साल 1920 के दशक में इसे फिर से पेश किया गया।

क्या था पैरेग्राफ 175

पैरेग्राफ 175 के अंतर्गत, कोई पुरुष अगर किसी अन्य पुरुष के साथ शारीरिक या यौनिक संबंध में दोषी पाया जाता था, तो उसे कारावास की सजा दी जाती थी। साल 1945 से 1969 तक यह कानून एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए उत्पीड़न का कारण बना रहा। साल 1968 में पूर्वी जर्मनी और 1969 में पश्चिमी जर्मनी ने पुरुषों के बीच होमोसेक्शुअल लोगों के संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया। लेकिन कानून अब भी संविधान में बना रहा। साल 1994 में जब पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का दोबारा एकीकरण हुआ, तो अनुच्छेद 175 को संविधान से पूरी तरह हटा दिया गया। साल 2002 में, नाजी शासन के तहत पैरेग्राफ 175 के तहत गिरफ्तार किए गए होमोसेक्शुअल पुरुषों के रिकॉर्ड भी रद्द किए गए।

संघर्ष अब भी जारी है

हालांकि एलजीबीटीक्यू+ अधिकारों की दिशा में ऐतिहासिक प्रगति हुई है, लेकिन समाज की मानसिकता में अब भी कई पूर्वाग्रह और रूढ़ियां बनी हुई है। लगभग 200 साल पहले जिस तरह होमोसेक्शूलिटी को कलंक माना जाता था, आज भी कई स्तरों पर वही स्थिति बनी हुई है। लोग अपनी लैंगिकता को लेकर थोड़े अधिक मुखर जरूर हुए हैं, लेकिन रूढ़िवादी समाज आज भी एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को अपनाने से कतराता है। समाज में समानता और स्वीकार्यता की ओर यह एक लंबा और सतत संघर्ष है। इस इतिहास को जानना और समझना एलजीबीटीक्यू+ अधिकारों की लड़ाई को मजबूत करता है, ताकि भविष्य में एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की जा सके।

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