इतिहास दया बाई: परिवर्तन की मिसाल बनीं एक सामाजिक कार्यकर्ता| #IndianWomenInHistory

दया बाई: परिवर्तन की मिसाल बनीं एक सामाजिक कार्यकर्ता| #IndianWomenInHistory

उन्होंने आदिवासी समुदाय की जीवनशैली को अपनाया और मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में सामाजिक और आर्थिक उत्थान के कार्यों में जुट गईं। उनका काम आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा, नर्मदा बचाओ आंदोलन में भागीदारी और दूरदराज़ के गांवों में शिक्षा अभियान तक फैला हुआ है।

हमारे समाज में जब भी बदलाव की बात होती है, तो अक्सर सत्ता, संसाधन या प्रभावशाली मंचों का ज़िक्र होता है। लेकिन असली बदलाव तब आता है जब कोई व्यक्ति अपने विशेषाधिकार को छोड़कर समाज के सबसे वंचित और हाशिए पर खड़े लोगों के बीच जाकर उनके हक़ और गरिमा की लड़ाई लड़ता है। ऐसी ही एक प्रेरणादायक शख्सियत हैं दया बाई, जिन्होंने न केवल सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई, बल्कि खुद को उस संघर्ष का हिस्सा बनाकर बदलाव की मिसाल पेश की। दया बाई, जिनका असली नाम मर्सी मैथ्यू है, एक प्रसिद्ध भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनका जन्म 1940 में केरल के पलक्कड़ जिले के एक समृद्ध ईसाई परिवार में हुआ था। मर्सी मैथ्यू बचपन से ही गरीबों की सेवा और सामाजिक कार्यों में जीवन बिताने की इच्छा रखती थीं। सिर्फ 16 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और कॉन्वेंट में शामिल हो गईं क्योंकि वह नन बनना चाहती थीं। उन्होंने यह भी निर्णय लिया कि वह कभी घर वापस नहीं लौटेंगी। हालांकि कुछ समय बाद उन्होंने कॉन्वेंट छोड़ दिया क्योंकि वह उस पद से जुड़ी सीमाओं और बंधनों को समझने लगी थीं।

आदिवासी समुदाय के साथ जीवन और संघर्ष

तस्वीर साभार: Wikipedia

कॉन्वेंट छोड़ने के बाद, उन्होंने समाज के वंचित वर्गों के लिए काम करना शुरू किया। उन्होंने आदिवासी समुदाय की जीवनशैली को अपनाया और मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में सामाजिक और आर्थिक उत्थान के कार्यों में जुट गईं। उनका काम आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा, नर्मदा बचाओ आंदोलन में भागीदारी और दूरदराज़ के गांवों में शिक्षा अभियान तक फैला हुआ है। सामाजिक न्याय पर उनके जोशीले भाषणों ने कई लोगों को प्रेरित किया और उत्पीड़ितों के लिए आवाज़ उठाने के लिए उत्साहित किया।

समर्पण और शिक्षा के लिए प्रयास

दया बाई ने हाशिये पर रह रहे लोगों की मदद करने के लिए अपने घर और परिवार को छोड़ दिया। उन्होंने ‘मुक्ति के धर्मशास्त्र’ का अध्ययन किया और छिंदवाड़ा जिले के एक गोंड आदिवासी गांव बारुल में रहना शुरू किया। वहां उन्होंने एक स्कूल की स्थापना की ताकि गांव के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया और सामाजिक न्याय की लड़ाई में अपनी भागीदारी निभाई।

दया बाई ने हाशिये पर रह रहे लोगों की मदद करने के लिए अपने घर और परिवार को छोड़ दिया। उन्होंने ‘मुक्ति के धर्मशास्त्र’ का अध्ययन किया और छिंदवाड़ा जिले के एक गोंड आदिवासी गांव बारुल में रहना शुरू किया।

एंडोसल्फान से प्रभावित के लिए उठाई आवाज़

तस्वीर साभार : Mathrubhumi.com

साल 1975 से 2000 के बीच केरल के कासरगोड जिले की 20 से अधिक ग्राम पंचायतों में एंडोसल्फान नामक ज़हरीले कीटनाशक का छिड़काव हुआ, जिससे 1,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई और 6,000 से अधिक लोग प्रभावित हुए। कई बच्चों का जन्म गंभीर विकृतियों और मानसिक-शारीरिक अक्षमताओं के साथ हुआ। दया बाई ने साल 2018 में कासरगोड जाकर इन प्रभवाइट लोगों की स्थिति को देखा और बताया कि आज भी वहां बच्चों का जन्म शारीरिक और आनुवांशिक विकृतियों के साथ हो रहा है। स्वास्थ्य सुविधाएं न के बराबर होने के कारण उन्होंने राज्य सचिवालय तिरुवनंतपुरम के बाहर अकेले अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की। यह हड़ताल 17 दिन तक चली और इस दौरान उन्हें कई बार जबरन अस्पताल में भी भर्ती किया गया। बाद में सरकार ने यह लिखित आश्वासन दिया कि एंडोसल्फान से प्रभावित लोगों को बेहतर इलाज और देखभाल उपलब्ध कराई जाएगी।

पहनावे पर आधारित भेदभाव का सामना

साल 2015 को, 83 वर्षीय दया बाई त्रिशूर से अलुवा लौट रही थीं। अंधेरा हो जाने के कारण उन्होंने बस ड्राइवर और कंडक्टर से पूछा कि क्या बस अलुवा बस स्टैंड के पास है। उनके आदिवासी पहनावे को देखकर कंडक्टर ने उन्हें भिखारिन समझ लिया और अपशब्द कहे। उन्हें बस स्टैंड से काफी दूर उतार दिया गया। जब वह सड़क पर बैठ गईं, तो लोगों ने उनसे कारण पूछा। उनकी यह घटना और कहानी सोशल मीडिया पर वायरल हो गई, जिससे लोगों में जनआक्रोश उत्पन्न हुआ। केरल के परिवहन मंत्री और KSRTC के अधिकारियों ने ड्राइवर और कंडक्टर को निलंबित कर दिया और सार्वजनिक रूप से माफी मांगी। वहीं 24 जनवरी को अदालत में दया बाई ने बताया कि उन्होंने कंडक्टर शायलन को माफ कर दिया है और सबको समान व्यवहार की सलाह दी।

दया बाई ने साल 2018 में कासरगोड जाकर इन प्रभवाइट लोगों की स्थिति को देखा और बताया कि आज भी वहां बच्चों का जन्म शारीरिक और आनुवांशिक विकृतियों के साथ हो रहा है। स्वास्थ्य सुविधाएं न के बराबर होने के कारण उन्होंने राज्य सचिवालय तिरुवनंतपुरम के बाहर अकेले अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की।

महिलाओं के मदद के लिए तत्पर और दिए गए सम्मान

साल 1990 के दशक के अंत में दया बाई ने स्वयं सहायता समूहों की शुरुआत की। उन्होंने महिलाओं को गरीबी मिटाने और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया। इस प्रयास के चलते उन्हें साहूकारों, ग्राम प्रधानों और अमीर वर्ग के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने बैंकों में काम करने वाली महिला अधिकारियों को भी यह समझाया कि वे अपने पद का इस्तेमाल समाज के हाशिये पर रह रहे लोगों की मदद के लिए करें। दया बाई का जीवन न केवल सेवा और संघर्ष की मिसाल है, बल्कि उनके योगदान को व्यापक स्तर पर मान्यता और सम्मान भी मिला है। उनके काम ने न केवल समाज के हाशिए पर खड़े समुदायों के जीवन को छुआ, बल्कि उनके प्रयासों को देश-विदेश में सराहा भी गया। वर्ष 2007 में भारत की प्रसिद्ध महिला पत्रिका ‘वनिता’ ने उन्हें “वुमन ऑफ द ईयर” के खिताब से नवाज़ा।

तस्वीर साभार : Mattersindia.com

इसके बाद साल 2012 में उन्हें कोट्टायम सामाजिक सेवा सोसाइटी और शिकागो स्थित एगेपे मूवमेंट द्वारा “गुड सेमेरिटन नेशनल अवार्ड” प्रदान किया गया। उनके जीवन और संघर्ष पर आधारित एक घंटे की डॉक्यूमेंट्री ‘ओट्टायल’ (अकेली औरत) बनाई गई, जिसे फिल्मकार शाइनी जैकब बेंजामिन ने निर्देशित किया। उनके प्रभाव और प्रेरणादायक व्यक्तित्व को पहचानते हुए, वर्ष 2005 में प्रसिद्ध अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्ता नंदिता दास ने उन्हें अपनी प्रेरणा बताते हुए एक लेख लिखा। वहीं, 2021 में दयाबाई ने फिल्म “कंथन: द लवर्स ऑफ कलर” में मुख्य भूमिका निभाकर एक नई पहचान बनाई। ये सभी उपलब्धियां इस बात का प्रमाण हैं कि उनका जीवन केवल समाजसेवा का प्रतीक नहीं, बल्कि प्रेरणा और नेतृत्व की एक जीवंत मिसाल भी है।

साल 1990 के दशक के अंत में दया बाई ने स्वयं सहायता समूहों की शुरुआत की। उन्होंने महिलाओं को गरीबी मिटाने और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया। इस प्रयास के चलते उन्हें साहूकारों, ग्राम प्रधानों और अमीर वर्ग के विरोध का सामना करना पड़ा।

दया बाई का जीवन त्याग, सेवा और संघर्ष की मिसाल है। एक समृद्ध परिवार से आने के बावजूद उन्होंने हाशिए पर खड़े समुदायों के बीच रहकर उनके अधिकारों की रक्षा की। चाहे वह आदिवासी बच्चों की शिक्षा हो, महिलाओं का सशक्तिकरण हो या एंडोसल्फान से प्रभावित लोगों के लिए न्याय की मांग हो, दया बाई ने हर मोर्चे पर अपनी भूमिका निभाई। उनका जीवन यह संदेश देता है कि असली सेवा भाषणों से नहीं, बल्कि ज़मीनी स्तर पर काम करके होती है। वे आने वाली पीढ़ियों के लिए करुणा, इंसानियत और समानता की प्रेरणा हैं।

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