महिला इतिहास को जानने के दौरान यह महत्वपूर्ण है कि हम उन योगदानों की बात और समीक्षा करें जहां महिलाओं ने प्रमुख राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में हिस्सेदारी निभाई है। भारतीय इतिहास का एक ऐसा महत्वपूर्ण लेकिन कम प्रतिनिधित्व वाला अध्याय है साल 1946-47 में बंगाल का तेभागा आंदोलन। पश्चिम बंगाल भारत के कृषक आंदोलनों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है जहां किसान शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाते रहे हैं। नील विद्रोह, पाबना कृषक आंदोलन से लेकर सिंगूर और नंदीग्राम आंदोलनों तक, इस क्षेत्र ने सशक्त ग्रामीण प्रतिरोध देखा है। इन सभी में, साल 1946–47 का तेभागा आंदोलन एक ऐतिहासिक मोड़ साबित हुआ, जिसने बटाईदार किसानों के अधिकारों की लड़ाई को नया आयाम दिया। यह आंदोलन किसानों ने शुरू किया था और वामपंथी संगठनों का समर्थित था।
हालांकि अधिकांश ऐतिहासिक विवरण पुरुष किसान नेताओं और कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की नेतृत्व को प्रमुखता देते हैं, एक और करीबी नज़र डालने पर यह स्पष्ट होता है कि महिला किसानों की भूमिका भी उतनी ही केंद्रीय थी, जिन्होंने आंदोलन को बनाए रखने और मजबूत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन महिलाओं में से, नारी बहिनी संगठन का उभरना जो किसान नेताओं की गिरफ्तारी के बाद सामने आई, भारतीय कृषि प्रतिरोध के इतिहास में एक शक्तिशाली अध्याय के रूप में उभरता है।
यह आंदोलन साल 1946 के अंत में उत्तरी बंगाल में फैल गया जिनमें विशेष रूप से दिनाजपुर, जलपाईगुरी और चौबीस परगना शामिल था। इसने भूमि रहित श्रमिकों, छोटे किसानों, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से महिलाओं को आकर्षित किया जो अबतक संगठित किसान प्रतिरोध से बाहर रही थीं।
तेभागा आंदोलन की जड़ें
तेभागा आंदोलन (जहां “तेभागा” का मतलब “तीन हिस्से”) बंगाल में बंगीय किसान सभा का शुरू किया गया था जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की किसान शाखा थी। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य बंगाल में मौजूदा बटाई (शेयरक्रॉपिंग) व्यवस्था को बदलना था जहां बटाईदारों (जिन्हें बर्गदार कहा जाता है) को अपनी फसल का आधा हिस्सा जमींदारों को देना पड़ता था। आंदोलन ने मांग की कि फसल का केवल एक तिहाई हिस्सा जमींदार को जाए और शेष दो-तिहाई उस बर्गदार के पास रहे जो भूमि की जोताई करता है। यह आंदोलन साल 1946 के अंत में उत्तरी बंगाल में फैल गया जिनमें विशेष रूप से दिनाजपुर, जलपाईगुरी और चौबीस परगना शामिल था। इसने भूमि रहित श्रमिकों, छोटे किसानों, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से महिलाओं को आकर्षित किया जो अबतक संगठित किसान प्रतिरोध से बाहर रही थीं।
आंदोलन की रीढ़ के रूप में महिलाएं
तेभागा आंदोलन में नारी बहिनी (महिला ब्रिगेड) का गठन और नेतृत्व करने वाली प्रमुख महिला नेताओं में रानी मित्रा दासगुप्ता, मणिकुंतला सेन और रेणु चक्रवर्ती शामिल थीं। उन्होंने शुरुआत में महिला आत्मरक्षा समिति के साथ काम किया और बाद में ग्रामीण महिलाओं को आंदोलन में संगठित करने और लामबंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जैसे-जैसे तेभागा आंदोलन फैलने और तीव्र होने लगा, उपनिवेशी सरकार और जमींदारों ने जवाबी कार्रवाई शुरू की। आंदोलन के दौरान कई पुरुष नेताओं को गिरफ़्तार किया गया, जिनमें भजू टुडू, मोंगला मोहन, रूपई बेशरा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के नेता हरे कृष्ण कोनार, कल्याण मित्रा और बिनॉय चौधरी शामिल थे। गिरफ़्तार किए गए अन्य प्रमुख नेताओं में कम्प्रम सिंह और भवन सिंह भी शामिल थे।

इससे नेतृत्व में एक खालीपन महसूस की गई। इसके बाद, इसी संदर्भ में महिलाएं आगे आईं। इन्हें नारी बहिनी, यानी महिला ब्रिगेड के रूप में संगठित किया गया, और ये महिलाएं उन भूमिकाओं को निभाने लगीं जो पहले समर्थन तक सीमित थीं। लाठियों, दरांती और अप्रतिम साहस से लैस, नारी बहिनी की सदस्याएं अनाज के भंडारों की रक्षा करती थीं, जुलूस आयोजित करती थीं, और पुलिस छापों और जमींदारों की हिंसा से अन्य बटाईदारों की रक्षा करती थीं। उनकी भागीदारी केवल प्रतीकात्मक नहीं थी, बल्कि यह गहरी राजनीतिक और व्यावहारिक थी। उन्होंने गांववासियों को संगठित किया, बैठकों का आयोजन किया, और पुलिस और उपनिवेशी अधिकारियों से सीधे सामना किया।
तेभागा आंदोलन में नारी बहिनी (महिला ब्रिगेड) का गठन और नेतृत्व करने वाली प्रमुख महिला नेताओं में रानी मित्रा दासगुप्ता, मणिकुंतला सेन और रेणु चक्रवर्ती शामिल थीं। उन्होंने शुरुआत में महिला आत्मरक्षा समिति के साथ काम किया और बाद में ग्रामीण महिलाओं को आंदोलन में संगठित करने और लामबंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लैंगिक दृष्टिकोण से कृषि प्रतिरोध
तेभागा आंदोलन ने एक महत्वपूर्ण मोड़ लिया जब ग्रामीण महिलाएं विशेष रूप से महिला किसान और बटाईदार, इस स्तर पर उग्र राजनीतिक कार्रवाई में शामिल हुईं। ये महिलाएं केवल पारिवारिक जिम्मेदारी या अपने पतियों के साथ एकजुटता के कारण नहीं भाग ले रही थीं; वे कृषि न्याय में अपनी-अपनी हिस्सेदारी की मांग कर रही थीं। महिला किसान दोगुने उत्पीड़न का सामना कर रही थीं। इसमें वे जमीन की जोताई के तहत जमींदारी व्यवस्था से और पितृसत्तात्मक नियमों से बंधी हुई थीं। इस आंदोलन ने हालांकि थोड़े समय के लिए एक स्थान प्रदान किया, जहां इन महिलाओं ने दोनों प्रकार के उत्पीड़न के खिलाफ चुनौती दी। तेभागा आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी को इसलिए केवल पुरुषों के नेतृत्व वाले आंदोलनों का एक हिस्सा नहीं, बल्कि प्रतिरोध का केंद्रीय पहलू माना जाना चाहिए। आंदोलन महिलाओं के हकों की आवाज़ के रूप के साथ-साथ उन्हें सॉलिडरिटी व्यक्त करने का भी स्थान देते हैं और अपनेआप को, अपने विचारों को भी अभिव्यक्त करने का साहस देते रहे हैं।
महिलाओं की साहस की कहानियां

प्रतिभागियों और गवाहों से एकत्र की गई मौखिक कहानियां असाधारण साहस की कहानियां बताती हैं। कई गांवों में, महिलाएं पुलिस घुसपैठ को रोकने के लिए बैरिकेड्स बनाती थीं। उन्होंने पढ़ना और लिखना सीखा, रात की कक्षाएं आयोजित कीं, और क्रांतिकारी गीतों की रचना की जो आंदोलन की भावना को जीवित रखती थीं। इन महिलाओं में प्रमुख रूप से बिमला माजी को भी याद किया जाता है, जो मिदनापुर की रहने वाली थीं। वे आंदोलन के दौरान नंदीग्राम में भर्ती अधिकारी बन गई थीं। उन्होंने लोगों को और भी ज़्यादा संगठित किया क्योंकि समुदाय की पार्टी के पुरुष सदस्यों को गिरफ़्तार किया जा रहा था, जिससे महिलाओं को नेतृत्व करने का मौका मिला था।
लाठियों, दरांती और अप्रतिम साहस से लैस, नारी बहिनी की सदस्याएं अनाज के भंडारों की रक्षा करती थीं, जुलूस आयोजित करती थीं, और पुलिस छापों और जमींदारों की हिंसा से अन्य बटाईदारों की रक्षा करती थीं।
एक अन्य घटना में, बंधानी नाम की एक नवविवाहित युवती ने असाधारण साहस दिखाया, जब दो स्थानीय किसान नेताओं की हत्या कर दी गई। उसने न केवल एक पुलिसकर्मी की बंदूक छीन ली बल्कि अन्य महिलाओं को भी संगठित किया ताकि वे पुलिस के अत्याचार का डटकर सामना कर सकें। ऐसी अनगिनत बहादुरी के किस्से प्रचलित हैं। नारी बहिनी ने ग्रामीण भारतीय महिलाओं की पारंपरिक छवि को भी तोड़ा था जो आम तौर पर आज्ञाकारी या गैर कामकाजी अराजनीतिक मानी जाती थीं। उनकी सक्रियता और जोखिम उठाने की क्षमता और इच्छा ने यह साबित किया कि कृषि क्षेत्रों में महिलाओं में राजनीतिक चेतना की परिवर्तनकारी शक्ति है।
क्या है इसकी वर्तमान प्रासंगिकता
तेभागा आंदोलन और महिलाओं की भागीदारी के ऐतिहासिक महत्व के बावजूद, उनकी कहानियां मुख्यधारा के इतिहास में अधिकतर हाशिए पर रही हैं। नारी बहिनी के योगदान मुख्य रूप से मौखिक इतिहास और क्षेत्रीय अभिलेखों तक सीमित हैं। उनकी भूमिका को पहचानना न केवल उनके साहस को सम्मानित करने के लिए आवश्यक है, बल्कि यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भीतर प्रतिरोध की पूरी श्रेणी को समझने के लिए भी आवश्यक है। आज के दौर में जहां महिला किसान अभी भी पहचान, भूमि अधिकारों और उचित मजदूरी के लिए संघर्ष कर रही हैं, तेभागा की महिलाओं की कहानी एक प्रेरणा और एक आह्वान दोनों के रूप में काम करती है।
जैसे भारत में हाल ही में किसानों के किए गए विशाल विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं की स्पष्ट और मुखर उपस्थिति रही वैसे ही तेभागा आंदोलन की गूंज और नारी बहिनी की भावना हमें यह याद दिलाती है कि कृषि संघर्षों में हमेशा मजबूत महिला तत्व रहे हैं। तेभागा आंदोलन की महिला किसान साहस, लचीलापन और राजनीतिक एजेंसी का प्रतीक हैं। उनकी कहानी केवल बंगाल के इतिहास का एक अध्याय नहीं है, बल्कि यह भारतीय प्रतिरोध और न्याय की सामूहिक स्मृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हमें उन्हें केवल सहायक के रूप में नहीं बल्कि अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाली लड़ाकाओं, संगठन बनाने वाली नेत्रियों और क्रांतिकारियों के रूप में याद करें ताकि इस देश के किसी न्यायप्रिय आंदोलन में महिलाओं का हिस्सा बनता रहे और बढ़ता रहे।