लेखक जैनेन्द्र कुमार का उपन्यास त्यागपत्र आज़ादी से 10 वर्ष पहले साल 1934 में लिखा गया था। उस समय जहां एक ओर प्रेमचंद सामंतवादी राज्य से मुक्ति की कामना को अपने लेखन के माध्यम से रख रहे थे, वहीं उसी दौर में लेखक जैनेन्द्र घरों के भीतर महिलाओं की आज़ादी यानी महिला मुक्ति पर प्रश्न खड़े कर रहे थे। प्रेमचंद उस समय की ओर केंद्रित होते हुए बताते हैं कि हम अंग्रेजों से ज्यादा हमारे पितृसत्तात्मक समाज के बनाए हुए रूढ़िवादी नियमों से शोषित हो रहे हैं। वहीं, उसी समय लेखक जैनेन्द्र एक नया पहलू बताते हैं कि हम तो सबसे पहले घर के भीतर परतंत्र हैं। देश की आज़ादी की कामना से पहले, हमारी आधी आबादी यानी महिलाओं को आज़ाद करने की आवश्यकता है। मूल रूप से सबसे पहले विचारों और रूढ़ियों से मुक्त होने की आवश्यकता है।
इस उपन्यास में केवल दो मुख्य पात्र हैं, मृणाल और उसका भतीजा प्रमोद। प्रमोद न्यायाधीश बन जाता है लेकिन अपनी बुआ के साथ हुए अन्याय को, न्याय न दिला पाने के कारण, वह अपना पद छोड़ देता है। यह ‘त्यागपत्र’ उसके पश्चाताप का प्रतीक बन जाता है। मृणाल, प्रमोद की बुआ, उससे केवल पांच वर्ष बड़ी थी और बचपन में ही माता-पिता के देहांत हो जाने के कारण अपने भाई-भाभी के साथ रहती थी। मृणाल की भाभी उसे सदा संस्कारी गृहिणी के आदर्शों में ढालने का प्रयास कर रही थी, जो कि मृणाल के स्वभाव से एकदम उलट था। समाज का यह पितृसत्तात्मक आदर्शवादी ढांचा किस हद तक खोखला है। यह वही व्यक्ति बता सकता है, जो इस ढांचे में फ़िट नहीं बैठता। ‘महिला की मर्यादा’ के नाम पर मृणाल को हमेशा खुद से समझौते करने पर मजबूर किया गया।
समाज में आज भी महिला उड़ना चाहती है और देखा जाए तो उसकी पतंग की डोर हमेशा किसी पुरुष या पुरुषवादी सत्ता ने थाम रखी होती है। कबीरदास ने कहा था कि ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित हो। लेकिन, प्रेम करना इतना भी आसान नहीं है।
यह भी निश्चित ही कहा जा सकता है कि मृणाल केवल त्यागपत्र की मात्र एक नायिका नहीं हैं बल्कि वह पूरे मध्यवर्गीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही है। मृणाल की स्कूली शिक्षा हुई, लेकिन विकास के पंखों को खुलने का मौका ही नहीं दिया गया। मृणाल अपने अंतर्मन की पीड़ा को व्यक्त करती हुई कहती है कि जिस तरह चिड़िया आसमान में बहुत ऊंचाई तक उड़ जाती है। उसी तरह वो भी चिड़िया होना चाहती है। प्रमोद और मृणाल लगभग समान हैं लेकिन प्रमोद जज बनकर अपनी शिक्षा की सफलता प्रदर्शित करता है। मृणाल कहती है कि वे दोनों एक साथ मिलकर पतंग उड़ाएंगे और ऐसी उड़ाएंगे कि वह बहुत दूर तक उड़ेगी।
नारी की उड़ान और समाज की डोर

समाज में आज भी महिला उड़ना चाहती है और देखा जाए तो उसकी पतंग की डोर हमेशा किसी पुरुष या पुरुषवादी सत्ता ने थाम रखी होती है। कबीरदास ने कहा था कि ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित हो। लेकिन, प्रेम करना इतना भी आसान नहीं है। मृणाल अपनी मित्र शीला के भाई से प्रेम करती थी, जिस कारण उसकी शादी उसकी उम्र से अधिक व्यक्ति के साथ कर दी गई। लेखक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी कहते हैं कि प्रेम की इस विशुद्ध भावना में त्याग की प्रकृति अत्यंत प्रबल हो जाती है। उसी के प्रेम भाव से मनुष्य अपनी इच्छा से कष्ट सहता है। तब कष्ट की यह यातना, यातना नहीं रह जाती, वह तपस्या हो जाती है। मृणाल भी इसी तपस्या में लीन होना चाहती थी। बिना प्रेम के वह नए रिश्ते में बंध गई थी। वह अपनी असहनीय पीड़ा कहीं भी व्यक्त नहीं कर सकी और दोबारा लौटकर अपने घर भी नहीं आ सकी, क्योंकि हमारे समाज के मानदंडों के अनुसार विवाहित महिला को यह सिखाया जाता है कि वह केवल ससुराल को ही अपना घर मानेगी। समाज को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि उसे ससुराल में वो स्थान मिला है या नहीं।
मृणाल की भाभी उसे सदा संस्कारी गृहिणी के आदर्शों में ढालने का प्रयास कर रही थी, जो कि मृणाल के स्वभाव से एकदम उलट था। समाज का यह पितृसत्तात्मक आदर्शवादी ढांचा किस हद तक खोखला है।
इस अंधी व्यवस्था को वह न चाहते हुए भी स्वीकार करती रही और अपने आंतरिक द्वंद को बिना किसी जवाब के समाज की उन बनी-बनायी बातों को स्वीकार करती रही। वह पति के घर को स्वर्ग कहती थी और खुद को अभागिनी। यह केवल स्वीकृति एक मान्यता को नहीं थी बल्कि यह खुद की सत्ता की समाप्ति की स्वीकृति थी, जहां वह पूरी तरह से समाज के हाथ की कठपुतली बन कर रह गई थी। उसने अपने पहले प्रेम संबंधों की चर्चा अपने पति से की, जिसके नतीजन उसे ‘चरित्रहीन’ करार दिया गया। उसके पति ने इस समुद्र रूपी संसार में उसे अकेला छोड़ दिया। उसका सत्यव्रता स्वरूप अभिशाप बनकर उभरा और मृणाल को अपनी जिन्दगी का सौदा देह से करना पड़ा।
लेकिन, मृणाल हर समय स्वाभिमानी बने रहने का प्रयास करती रही। उसने आश्रय के बदले कोयले वाले से स्वयं के सौन्दर्य भोग का सौदा किया। उसने सेक्सवर्क नहीं अपनाया था। वह प्रमोद से कहती है कि जिसको तन दिया, उससे पैसा कैसे लिया जा सकता है? यह उसकी समझ में नहीं आता। वह कोयले वाले की कृतज्ञ थी। पूरा जीवन उसका साथ देना चाहती थी और प्रमोद को कहती थी कि जिसके सहारे वह उस मृत्यु के अधर्म से बची, उन्हीं को छोड़ने के लिए उससे कहते हो। मृणाल कहती है कि वह उसे नहीं छोड़ सकती। वह पापिनी हो सकती है पर उसके ऊपर क्या बेहया भी बने?
मृणाल खुद को कलंकिनी, भ्रष्ट, चतुर, कुल-बोरन (कुल को डुबोने वाली) यदि आरोपी उपमानों के बंधनों से जकड़ा हुआ पाती है। वह खुद को समाज का हिस्सा नहीं मानती। वह समझती है कि समाज के भीतर रहकर हम नवीन तत्वों और प्रयोगों को नहीं अपना सकते, जीवन में कुछ नया पाने के लिए सबसे पहले समाज से अंतर चाहिए होता है।
समाज के खोखले मूल्य और स्त्री के लिए नैतिकता के पैमाने
मृणाल समाज की हर महिला के प्रति बने प्रत्येक चित्र को खुलकर सामने रख देती हैं। समाज की गलतियों और महिलाओं के लिए खोखले मूल्यों को हमारे समक्ष रखती हैं। वह कहती हैं कि तन देने की जरूरत वह समझ सकती है। फिर आरोपित नैतिकता के स्वरूप को बताती हुई कहती है कि पर वह कुछ नहीं ले सकती, क्योंकि दान महिला का धर्म है। उससे मन मांगा जाएगा, तन भी मांगा जाएगा। स्त्री का आदर्श और क्या होता है? वह स्वयं के चेतनामयी स्वरूप की अभिव्यक्ति के साथ कहती हैं कि उसकी बिक्री नहीं- नहीं, यह नहीं होगा। मृणाल खुद को कलंकिनी, भ्रष्ट, चतुर, कुल-बोरन (कुल को डुबोने वाली) यदि आरोपी उपमानों के बंधनों से जकड़ा हुआ पाती है। वह खुद को समाज का हिस्सा नहीं मानती। वह समझती है कि समाज के भीतर रहकर हम नवीन तत्वों और प्रयोगों को नहीं अपना सकते, जीवन में कुछ नया पाने के लिए सबसे पहले समाज से अंतर चाहिए होता है। अंतर इस समाज के लोगों के लिए पाप समान समझा जाता है।
इच्छाओं के परे महिलाओं का जीवन

जीवन-जगत के चक्र में प्रमोद और मृणाल दोबारा टकराते हैं। मृणाल झूठे रिश्तों का आवरण तोड़कर केवल अपनी लाश के संरक्षण का काम कर रही होती हैं उपन्यास में मुख्य रूप से ‘सत्यता की सच्चाई’ को उभारा गया है। सबसे पहले समाज की सच्चाई का पहलू, फिर मृणाल के सत्यव्रता होने का परिणाम और फिर प्रमोद द्वारा सत्य को स्वीकारने का नतीजा है। राजनंदिनी से प्रमोद का रोका हुआ, लेकिन सत्य के प्रकाश से वह प्रेम संबंध टूट गया। इस घटना से लेखक और समाज दोबारा एक और मृणाल तैयार कर देता है क्योंकि राजनंदिनी और प्रमोद के बीच प्रेम ने अपनी शाखाएं फैलाना शुरू किया और समाज के दायरों और मानदंडों ने उस प्रेम रूपी वृक्ष को जड़ से काट दिया। लेखक संकेत करते हैं कि नंदिनी के दूसरे विवाह पर उन्होंने बहुत असंतोष भी प्रकट किया और इसका कुछ दुष्परिणाम भी सुनने में आया था। हमने सिर्फ आधुनिकता की चादर ओढ़ ली है।
मृणाल कहती है कि जिन लोगों के बीच वो रह रही है, वे समाज की जूठन हैं और कौन जानता है कि वे जूठन होने योग्य हैं भी या नहीं। मृणाल किस की बात कह रही हैं? कोई दलित समुदाय? या कोई आदिवासी, क्वीयर व्यक्ति? या कोई और की। मृणाल उस समूह को बताती हैं कि जो समाज के हाशिये पर रह गए हैं।
लेकिन हमारे विचार-व्यवहार आज भी परम्परागत संस्कार युक्त हैं। हमारी पितृसत्तात्मक विचारधारा आज भी खुलेआम घूम रही है, केवल मुखौटा बदला है। हमने हाथी को जन्म से खूंटे से बांधा जिससे पूरी उम्र वह उस खूंटे को ही अपनी नियति समझता है। इसी प्रकार समाज ने स्त्रियों पर अपने पितृसत्तात्मक आदर्शों को इतने लम्बे समय से आरोपित कर रखा है कि वह अपनी मूल प्रवृत्ति भूल गई हैं, और आरोपित आदर्शों को ही अपनी नियति मान बैठी हैं। लेखक महिलाओं की स्थिति को समझते हुए कहते हैं कि इस दुनिया में कौन सी जगह स्त्री की है, जहां वह जा सकती है? कोई ऐसी जगह नहीं है। आज के युग में सब एक समान हैं। लेकिन सिर्फ बातों में, सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है। छोटे से मनोविज्ञान आधारित उपन्यास में बड़ी-बड़ी समस्याओं और समाज के वास्तविक पहलुओं को छूने का साहस है। अंत में प्रमोद को जो मृणाल का पत्र मिलता है, वह पत्र मृणाल और समाज की व्यथा कहता है।
मृणाल की दृष्टि से हाशिये के लोग
मृणाल कहती है कि जिन लोगों के बीच वो रह रही है, वे समाज की जूठन हैं और कौन जानता है कि वे जूठन होने योग्य हैं भी या नहीं। मृणाल किस की बात कह रही हैं? कोई दलित समुदाय? या कोई आदिवासी, क्वीयर व्यक्ति? या कोई और की। मृणाल उस समूह को बताती हैं कि जो समाज के हाशिये पर रह गए हैं। विकास की श्रेणी में कुछ लोग जो समाज की दृष्टि से अविकसित रह गए हैं या जिन्हें विकास करने ही नहीं दिया गया है। मृणाल भी उसी हाशिये पर खड़े समुदाय से हैं, जिसे सच्चाई की तेज मार ने झकझोर कर रख दिया था। उस समूह को स्थिरता देती हुई वह लिखती हैं कि आखिर हम भी तो इंसान ही हैं और यह सबकुछ वह तब से देख रही है, जब से वह इन सभी के साथ रह रही है। वह उन लोगों को समाज के दृष्टिकोण से न देखकर अपने नजरिये से देखकर कहती है कि इन लोगों में जिन्हें दुर्जन कहा जाता है कई तहें हैं और तह पार कर वो वाली तह बिल्कुल साफ दिखाई देती है। अगर उसे छू लिया तो दूध सी सफेद सद्भावना का झरना फूट निकलेगा। शायद ये ही अंतर है सहानुभूति और स्वानुभूति में। उपन्यास का पूरा कथानक प्रमोद की सहानुभूति के पक्ष को उजागर कर रहा है, लेकिन जो मृणाल का पत्र स्वानुभूति की अभिव्यक्ति को दृढ़ कर जाता है।
‘त्यागपत्र’ सिर्फ मृणाल की व्यक्तिगत समस्या नहीं है, बल्कि सभी महिलाओं की सामाजिक स्थिति को दिखाता है। लेखक जैनेन्द्र ने इस उपन्यास में दिखाया है कि महिलाओं को आज़ादी केवल राजनीतिक आज़ादी से नहीं मिलती, बल्कि मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक आज़ादी से भी मिलती है।
इस प्रकार पूरे उपन्यास का सार जन्म-जन्मांतर से चली आ रही महिलाओं की स्थिति के आंतरिक और बाहरी दोनों पहलुओं पर प्रकाश डालता है। ‘त्यागपत्र’ सिर्फ मृणाल की व्यक्तिगत समस्या नहीं है, बल्कि सभी महिलाओं की सामाजिक स्थिति को दिखाता है। लेखक जैनेन्द्र ने इस उपन्यास में दिखाया है कि महिलाओं को आज़ादी केवल राजनीतिक आज़ादी से नहीं मिलती, बल्कि मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक आज़ादी से भी मिलती है। मृणाल का संघर्ष पुराने विचारों, पुरुष प्रधानता और समाज की बनाई नैतिकताओं के खिलाफ़ है। उसकी पहचान की खोज हमें सोचने पर मजबूर करती है कि आज भी महिलाओं की आज़ादी कितनी अधूरी है। हालांकि समाज ने आधुनिकता का मुखौटा पहन लिया है। लेकिन, अंदर वही पुरानी बंदिशें अभी भी कायम हैं। ‘त्यागपत्र’ हमें बताता है कि अगर हम सच में आजादी चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें अपनी सोच और समाज के मूल्यों में बदलाव लाना होगा। मृणाल की पीड़ा और उसके पत्र का अनुभव आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना पहले था। जैनेन्द्र का यह उपन्यास एक सवाल खड़ा करता है कि क्या आज हम सच में महिला को उसकी सम्पूर्ण मानवीय गरिमा के साथ स्वीकार कर पाए हैं?
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Very good