हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य पर अब भी ज़्यादा बात नहीं की जाती है। ख़ासतौर पर अगर यह महिलाओं के मामले में हो तब तो और भी अनदेखा कर दिया जाता है। उनकी बातों को ‘ओवरथिंकिंग’ और ‘ओवर सेंसिटिव’ का टैग लगाकर टाल दिया जाता है। आज भी मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे को सिरे से ख़ारिज कर देना आम बात है। मानसिक स्वास्थ्य वैसे तो सभी के लिए समान रूप से ज़रूरी विषय है लेकिन जब हम इसकी गहराई में जाते हैं तब पता चलता है कि यह पितृसत्ता, जेंडर और नारीवाद से जुड़ा मुद्दा भी है। महिलाएं और अन्य जेंडर जिन्हें समाज में दोयम दर्ज़े पर रखा गया है, उन्हें सिर्फ़ अपने जेंडर की वजह से मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। महिलाओं में तनाव, चिंता, डिप्रेशन जैसी मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याएं पुरुषों की तुलना में ज़्यादा होती हैं और उसके पीछे भेदभावपूर्ण पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना और लैंगिक भेदभाव काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। ऐसे में इसे नारीवादी मुद्दे की तरह देखना और भी जरूरी हो जाता है।
महिलाओं का नज़रंदाज़ होता मानसिक स्वास्थ्य
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार महिलाओं में डिप्रेशन का दर पुरुषों की तुलना में ज़्यादा होता है। एक अनुमान में यह पाया गया कि महिलाओं में डिप्रेशन पुरुषों की तुलना में 50 फीसद ज़्यादा होना आम है। इसके अलावा दुनिया भर में 10 फीसद से ज़्यादा गर्भवती और बच्चों को जन्म देने वाली महिलाओं को डिप्रेशन से गुजरना पड़ता है। ग़ौरतलब है कि यह फ़र्क केवल हॉर्मोन या शरीर की वजह से नहीं, बल्कि इसके पीछे सामाजिक संरचना भी काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। विज्ञान और तकनीक के इतने विकास के बावजूद आज भी शादीशुदा युगल को बच्चे न होने पर अक्सर इसका दोष महिलाओं पर डाल दिया जाता है।

कई मामलों में तो पुरुषों की दूसरी शादियां तक करवा दी जाती हैं या दूसरी शादी का दबाव डाला जाता है। इसी तरह, भले ही बच्चे का लिंग के तय होने में जैविक रूप से पुरुषों पर निर्भर करता है। लेकिन, आज भी देश के हजारों इलाकों में लड़का न होने पर अक्सर महिलाओं को ही ज़िम्मेदार मानकर तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता है। गर्भावस्था और बच्चे को जन्म देने से शरीर में बदलाव आने पर भी सौंदर्य को लेकर बनाए गए सामाजिक मानकों की वजह से अक्सर महिलाएं डिप्रेशन या पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) का सामना करती हैं।
इंडिया टुडे में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं के काम का 84 फीसद हिस्सा ऐसे कामों में गुज़रता है, जिसके लिए उन्हें किसी भी तरह का भुगतान नहीं किया जाता है। आमतौर पर यह काम खाना बनाना, कपड़े, बर्तन, साफ-सफाई, बच्चों, बुजुर्गों और बीमार सदस्यों की देखभाल से जुड़ा होता है।
इंडिया टुडे में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं के काम का 84 फीसद हिस्सा ऐसे कामों में गुज़रता है, जिसके लिए उन्हें किसी भी तरह का भुगतान नहीं किया जाता है। आमतौर पर यह काम खाना बनाना, कपड़े, बर्तन, साफ-सफाई, बच्चों, बुजुर्गों और बीमार सदस्यों की देखभाल से जुड़ा होता है। हालांकि पुरुषों के मामले में ठीक इसका उल्टा देखा गया है। पुरुषों का 80 फीसद समय ऐसे कामों में गुज़रता है, जिसके लिए उन्हें वेतन या पैसों में भुगतान किया जाता है। इस तरह के भेदभाव की वजह से महिलाओं की आर्थिक स्थिति कमज़ोर रह जाती है। इतना अवैतनिक काम करने के बावजूद अपनी ज़रूरतों और शौक़ के लिए वे दूसरे पुरुष सदस्यों पर निर्भर रहती हैं जो मानसिक रूप से बेहद तनाव भरा होता है। कई बार निर्भरता की वजह से इन्हें बहुत कुछ सुनना और सहना पड़ता है जो मानसिक सेहत को और बदतर बनाता है। इसके अलावा दलित, आदिवासी और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय अभी भी मुख्यधारा में जुड़ने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में हाशिए के समुदायों को अलग तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो उनकी मानसिक सेहत पर असर डालता है।
लैंगिक हिंसा और उससे जुड़ी ट्रॉमा
डबल्यूएचओ के अनुसार दुनिया भर में 3 में से 1 यानी लगभग 30 फीसद महिलाओं को अपने जीवनकाल में शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। इसमें से 15 से 49 साल की लगभग एक तिहाई यानी 27 फ़ीसदी महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें उनके ही अपने अंतरंग साथी के शारीरिक और यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है। टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एनसीआरबी की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर घंटे महिलाओं के साथ होते अपराध के 51 मामले दर्ज़ होते हैं। साल 2022 में महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों के लगभग 4.4 लाख से अधिक मामले दर्ज़ किए गए थे। महिलाओं की मानसिक सेहत पर इस तरह की हिंसा और उत्पीड़न का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
डबल्यूएचओ के अनुसार दुनिया भर में 3 में से 1 यानी लगभग 30 फीसद महिलाओं को अपने जीवनकाल में शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। इसमें से 15 से 49 साल की लगभग एक तिहाई यानी 27 फ़ीसदी महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें उनके ही अपने अंतरंग साथी के शारीरिक और यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है।
इस वजह से महिलाओं में पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर, डिप्रेशन और एंग्जायटी जैसी मानसिक बीमारियों का ख़तरा कई गुना बढ़ जाता है। कई महिलाएं यौन हिंसा के बाद सामाजिक रूप से अलग-थलग किए जाने, न्यायायिक प्रक्रिया में भेदभाव, देरी और परिवार के समर्थन में कमी के कारण, आत्महत्या से मौत तक की बात सोचने पर मजबूर हो जाती हैं। यौन हिंसा के सर्वाइवर का जीवन भर इससे उबर पाना आसान नहीं है और कई बार वे इस स्थिति से जूझती रहती हैं। पितृसत्ता केवल हिंसा को ही बढ़ावा नहीं देता है, बल्कि सर्वाइवर्स को बदनामी का डर दिखाकर चुप रहने के लिए मजबूर करता है। ऐसे कई कारणों से उन महिलाओं को सही समय पर मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा और समर्थन नहीं भी नहीं मिल पाता और इन्हें अपने ट्रॉमा के साथ अकेले ही जूझना पड़ता है।
पितृसत्ता का पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य पर असर

पितृसत्ता केवल महिलाओं के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के लिए भी नुकसानदेह है। पारंपरिक रूढ़िवादी सोच पुरुषों पर ‘मर्द बनने’ का दबाव डालती है, जिसके तहत उनसे कुछ उम्मीदें की जाती हैं। उनके लिए हर हाल में मजबूत बने रहना, परिवार की आर्थिक ज़िम्मेदारी को अपने कंधों पर ढोना जैसे मानदंड तय किए गए हैं। साथ ही पुरुषों को अपनी भावनाएं ज़ाहिर करने, भावनात्मक होने पर रोने या कमज़ोर पड़ जाने की छूट यह समाज नहीं देता। इस वजह से बहुत सारे पुरुष धीरे-धीरे स्ट्रेस, एंग्जायटी और डिप्रेशन का सामना करते हैं। किसी से साझा न कर पाने की वजह से वे इसके लिए ट्रीटमेंट भी नहीं ले पाते हैं और इस तरह ये समस्याएं धीरे-धीरे और बढ़ जाती है। समाज के थोपे गए इस तरह के आदर्श पुरुषों को संवेदनशील और समावेशी और सहयोगी इंसान बनने से रोकता है, जिसका नतीजा पुरुषों के साथ महिलाओं, बच्चों और अन्य जेंडर के लोगों पर भी पड़ता है।
मानसिक स्वास्थ्य क्यों नारीवादी मुद्दा है
मानसिक स्वास्थ्य पर बातचीत और इससे जुड़े स्वास्थ्य सुवधाओं तक सबके पहुंच के लिए नीतियों में बदलाव ज़रूरी है। सरकार को सभी के लिए मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएं सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी योजनाएं बनाना और उन्हें ठीक तरीके से लागू करना चाहिए। महिलाओं की ख़ास ज़रूरतों जैसे पीरियड्स, प्रेग्नेंसी, मैटर्निटी और मेनोपॉज़ को ध्यान में रखते हुए कार्यस्थलों पर अलग से इंतज़ाम किए जाने चाहिए और ज़रूरत अनुसार पेड लीव का विकल्प देना चाहिए। इसके अलावा पुरुषों के लिए पैटर्निटी लीव की सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए, जिससे बच्चों की देखभाल में इन्हें अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास हो।

इससे महिलाओं पर काम के दोहरे बोझ को कम किया जा सकता है। कार्यस्थलों के साथ ही दूसरी सार्वजनिक जगहों को महिलाओं, नॉन बाइनरी और विकलांग लोगों के लिए सुरक्षित और सुविधाजनक बनाना चाहिए जिससे इन्हें अपनी पहचान छिपकर जीने की जरूरत न हो। साथ ही, जरूरत पड़ने पर स्वास्थ्य सेवाओं तक इनकी पहुंच हो। सरकार को इन समुदायों के साथ होते भेदभाव और हिंसा रोकने के लिए कठोर क़ानून बनाने चाहिए और इनका सही से पालन भी सुनिश्चित किया जाना ज़रूरी है। मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच सभी का हक़ है जो बिना किसी भेदभाव के सभी को मिलना चाहिए। समाज में सभी जेंडर के लिए समानता सुनिश्चित किया जाना बेहद ज़रूरी है, तभी समाज में बदलाव आ पाएगा। इसके लिए समाज को जागरूक किया जाना बेहद ज़रूरी है।
साहित्य, संगीत, सिनेमा, नाटक और कार्यशालाएं आयोजित करके जागरूकता की दिशा में काम करना एक सफल कदम हो सकता है। शैक्षिक संस्थानों में भी मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बातचीत की पहल जरूरी है। स्कूलों और कॉलेजों में इसे एक अनिवार्य विषय के रूप में संवेदनशील शिक्षकों के माध्यम से पढ़ाया जाना चाहिए। इसके साथ ही सस्ती और सुलभ मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं सभी तक पहुंचाना भी ज़रूरी है। ऐसा माहौल बनाना चाहिए, जिससे मानसिक स्वास्थ्य पर खुलकर बात की जा सके। मानसिक स्वास्थ्य कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं बल्कि सामाजिक संरचना से जुड़ी हुई समस्या है। इसलिए समानता पर आधारित एक समावेशी और न्यायसंगत समाज की स्थापना ही एक स्वस्थ समाज के लिए नींव का काम कर सकती है।