अक्कई पद्मशाली एक ट्रांसजेंडर अधिकार कार्यकर्ता, वक्ता और लेखिका हैं। वे कर्नाटक की रहने वाली हैं और ट्रांसजेंडर समुदाय के हक, समानता और गरिमा के लिए संघर्ष करने वाली एक ट्रांस महिला हैं। उनका बचपन बहुत ज्यादा चुनौतीपूर्ण रहा है। हमारे परुष प्रधान समाज में जब घरों में लड़के पैदा होते हैं तब से उसपर पुरुषों के लिए बनाए गए नियम लागू होने शुरू हो जाते हैं। अक्कई के साथ भी ऐसा ही हुआ। उन्हें अक्सर अपनी बहन के कपड़े पहनने या लड़कियों के साथ खेलने के कारण अपने माता-पिता का गुस्सा झेलना पड़ता था। लेकिन, वह कभी खुद को पुरुष के रूप में महसूस नहीं कर पाई। धीरे-धीरे उन्होंने अपने लैंगिक पहचान के बारे में अपने भाई से बात करना शुरू किया। उनका भाई उन्हें उनके लैंगिक पहचान के साथ स्वीकार करने वाला पहला व्यक्ति था।
अक्कई और सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ उनका संघर्ष
स्कूल जाते समय, वह बेंगलुरु के कब्बन पार्क के पास ट्रांस महिलाओं को देखती और वह भी उनकी तरह बनना चाहती थीं। अक्कई को दसवीं कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। बाद में, उन्हें सेक्स वर्क में जाने के लिए भी मजबूर किया गया, जिसे उन्हें चार साल तक जारी रखना पड़ा। इस दौरान वह अन्य ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के संपर्क में आई और उनके अनुभवों से उन्हें सहानुभूति होने लगी। उन्होंने दसवीं कक्षा के बाद स्कूल छोड़ दिया था।

अक्कई ने भीख मांगने और सेक्स वर्क जैसी कठिन परिस्थितियों में रहकर अपने जीवन की शुरुआत की। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने अन्य ट्रांस व्यक्तियों के साथ रहकर महसूस किया कि सरकारी नीतियां ट्रांसजेंडर समुदाय के पक्ष में नहीं थी। उन्होंने महसूस किया कि ट्रांस समुदाय के लोगों को विभिन्न चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों और असमानताओं का सामना करना पड़ता है। उन्होंने अपने अनुभवों को ताकत में बदला और ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों के लिए लड़ने का फैसला किया।
अक्कई पद्मशाली एक ट्रांसजेंडर अधिकार कार्यकर्ता, वक्ता और लेखिका हैं। वे कर्नाटक की रहने वाली हैं और ट्रांसजेंडर समुदाय के हक, समानता और गरिमा के लिए संघर्ष करने वाली एक ट्रांस महिला हैं।
धारा 377 के खिलाफ़ उनकी लड़ाई
अक्कई की ज़िंदगी में एक अहम मोड़ तब आया जब उन्हें बैंगलोर स्थित एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकार के लिए काम कर रहे संस्थान; संगमा के साथ काम करने का मौका मिला। संगमा ने उन्हें एक मंच दिया, जहां वे पहली बार खुद को पूरी तरह समझ सकीं, अपने जीवन को दिशा दे सकीं और अपनी आवाज़ को बुलंद कर सकीं। उन्होंने महसूस किया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के कठोर कानून को समाप्त किया जाना चाहिए। साल 2018 में अक्कई पद्मशाली ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के खिलाफ़ भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। उन्होंने तर्क दिया कि यह औपनिवेशिक काल का कानून न केवल क्वीयर समुदाय के संवैधानिक अधिकारों का हनन करता है। उन्होंने दलील दी कि यह साल 2014 के ऐतिहासिक नालसा बनाम भारत सरकार के फैसले की भी अवहेलना करता है, जिसमें ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को एक अलग जेन्डर के रूप में मान्यता दी गई थी। खुद अक्कई इस कानून के कारण कई बार पुलिस हिंसा, डराने-धमकाने और यौन उत्पीड़न का सामना कर चुकी थीं।
ड्राइविंग लाइसेंस से लेकर शादी के पंजीकरण तक

साल 2014 में उन्होंने बच्चों, महिलाओं और यौन अल्पसंख्यकों के अधिकारों की वकालत करने के लिए ‘ओन्डेडे’ नामक मानवाधिकार संगठन की स्थापना की। यह संगठन यौनिकता, यौन विविधता और व्यक्ति को अपनी यौन पहचान चुनने के अधिकार के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए कम करता है। ओन्डेडे का उद्देश्य केवल ट्रांस और क्वियर समुदाय को समर्थन देना नहीं, बल्कि समाज में मौजूद मिथकों, डर और पूर्वाग्रहों को तोड़ना भी है। अक्टूबर 2014 में टोक्यो में आयोजित एक सम्मेलन में यौनिक तौर पर अल्पसंख्यकों के कानूनी अधिकारों के बारे में बोलने के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बार एसोसिएशन ने आमंत्रित किया था। साल 2014 में, उन्होंने कर्नाटक सरकार के सामने ट्रांस अधिकारों पर अपने विचार रखे, और 2017 में सुप्रीम कोर्ट के जजों के सामने भाषण दिया जो किसी भी ट्रांस व्यक्ति के लिए एक ऐतिहासिक पल था।
साल 2014 में उन्होंने बच्चों, महिलाओं और यौन अल्पसंख्यकों के अधिकारों की वकालत करने के लिए ‘ओन्डेडे’ नामक मानवाधिकार संगठन की स्थापना की। यह संगठन यौनिकता, यौन विविधता और व्यक्ति को अपनी यौन पहचान चुनने के अधिकार के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए कम करता है।
अक्कई, जो कभी सिस्टम से बहिष्कृत थीं, आज उसी सिस्टम से संवाद कर रही हैं। उन्हें साल 2015 में राज्योत्सव पुरस्कार मिला, जो राज्य का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है। वह देश की पहली ट्रांसजेंडर हैं, जिन्होंने अपना जेंडर ‘महिला’ बताते हुए ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त किया है। हालांकि इसके लिए भी उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। अक्कई ने साल 2017 में शादी भी की। लेकिन इसके पंजीकरण के लिए एक साल का समय लग गया। कर्नाटक में अपनी शादी का पंजीकरण करवाने वाली वह पहली ट्रांसजेन्डर महिला हैं। उनका कहना है कि सरकार को ट्रांसजेंडर समुदाय के व्यक्तियों की शादी को समर्थन देने के लिए योजनाएं बनानी चाहिए।
जब उन्होंने चुना मातृत्व का रास्ता

अक्कई शादी से पहले ही एक बच्चा गोद लेना चाहती थी। लेकिन, बच्चा गोद लेना भी उनके लिए बहुत संघर्षपूर्ण रहा। द न्यूज मिनट की एक रिपोर्ट अनुसार वह कहती हैं कि जब बच्चा गोद लेने की बात आई तो उन्होंने जिस भी अडाप्शन केंद्र से संपर्क किया, उन्होंने अक्कई को मना कर दिया। वह कहती हैं कि उन्हें कहा गया कि वह एक सेक्स वर्कर हैं और सड़क पर रहती हैं तो वह एक बच्चे की देखभाल कैसे कर पाएंगी। वह तीन अनाथ आश्रमों के अपने अनुभव के बारे में बात करती हैं, जहां उन्होंने संपर्क किया था। उन्होंने बताया कि एक संस्थान में, उन्होंने उन्हें देखते ही गेट पूरी तरह से बंद कर दिया था और उनकी बात भी नहीं सुनी। लगभग ढाई साल संघर्ष करने के बाद आखिरकार वह बच्चा गोद लेने में सफल हुई।
अक्कई, जो कभी सिस्टम से बहिष्कृत थीं, आज उसी सिस्टम से संवाद कर रही हैं। उन्हें साल 2015 में राज्योत्सव पुरस्कार मिला, जो राज्य का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है।
वह कहती हैं कि ट्रांस समुदाय के प्रति जो भी भेदभाव है, उसे खत्म करने की जरूरत है। साल 2024 में उन्होंने अपने बेटे का पासपोर्ट बनवाया, जिसमें सिर्फ उनका नाम ‘माँ’ के रूप में था। यह उनके लिए एक बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि समाज में ट्रांसजेंडर माता-पिता के अधिकारों को मान्यता मिलना एक कठिन काम है। इसके अलावा, अक्कई ने अपने पति से तलाक लेने के बाद अपने बेटे की कस्टडी भी प्राप्त की। अक्कई मैरेज इक्वालिटी के पक्ष में हैं और ट्रांसजेंडर लोगों के खिलाफ हिंसा के खिलाफ अभियान चला रही हैं। उनकी इन उपलब्धियों ने ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष को और मजबूती दी है।
अक्कई अपने जीवन में बहुत भेदभाव, हिंसा और तकलीफों का सामना किया, लेकिन कभी हार नहीं मानी। उन्होंने न सिर्फ अपने लिए, बल्कि पूरे ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए आवाज़ उठाई। चाहे वह ड्राइविंग लाइसेंस लेना हो, शादी हो, या माँ बनना हो हर कदम पर उन्हें संघर्ष करना पड़ा। लेकिन, आज वह लाखों लोगों के लिए एक मिसाल हैं। वह हमें यह भी दिखाती हैं कि समाज में बदलाव लाने के लिए जज़्बा, सच्चाई और हिम्मत की ज़रूरत होती है। उनकी जिंदगी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम एक इंसान को सिर्फ उसकी पहचान की वजह से कैसे नकार सकते हैं। हमें ऐसा समाज बनाना होगा जो सभी को बराबरी, सम्मान और प्यार दे क्योंकि हर एक व्यक्ति को सम्मान और अपने इच्छा अनुसार जीवन जीने का पूरा अधिकार है।