संस्कृतिकिताबें सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ती हिंदी में स्त्री आत्मकथाओं का उभरता स्वर

सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ती हिंदी में स्त्री आत्मकथाओं का उभरता स्वर

साहित्य की बात करें, तो जिस समाज में स्त्रियों को मनुष्य तक का दर्जा नहीं मिला था उस समाज में स्त्री की आत्मकथाएं लिखी गयीं और बहुत प्रसिद्ध भी हुई।

भारतीय समाज की संरचना जिन  पितृसत्तात्मक मूल्यों में ढली है उसके  कारण वहां महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक माना गया था। शिक्षा और अधिकार से महिलाओं को सदियों से वंचित रखा गया। लेकिन, एक दिन महिलाओं ने न केवल पढ़ना-लिखना सीखा, बल्कि अपने अधिकार के लिए कठिन संघर्ष भी किए। साहित्य की बात करें, तो जिस समाज में स्त्रियों को मनुष्य तक का दर्जा नहीं मिला था उस समाज में स्त्री की आत्मकथाएं लिखी गयीं और बहुत प्रसिद्ध भी हुई। हालांकि स्त्री आत्मकथाएं एक खास समय के बाद ही और कम संख्या में मिलती हैं। लेकिन, कुछ महिलाओं की आत्मकथाएं बहुत चर्चित हुई और सराही भी गयी। हिंदी साहित्य में महिलाओं की आत्मकथाएं कम मिलने का एक कारण ये भी है कि जिस समाज में स्त्रियों पर इतने तरह के मानदंड हो, समाज में पुरुषों का वर्चस्व हो, वहां स्त्रियों का  आत्मकथा लिखना आसान काम नहीं था।

आत्मकथा मनुष्य तभी लिख सकता है जब उसे अपने होने का एहसास हो। अपनी अस्मिता का मूल्य वो खुद पहचानता हो। स्त्री को शिक्षा और अधिकार से वंचित रखकर समाज ने स्वंय को पहचानने की चेतना से भी स्त्रियों को वंचित रखा था। पुरुष ने भले स्त्रियों पर काफी कुछ लिखा हो, लेकिन जब कोई स्त्री अपनी कहानी खुद कहती है, तो उसमें प्रामाणिकता होती है और अनुभवों की प्रत्यक्ष अनुभूति से ही प्रामाणिकता आती है।  स्त्रियों की आत्मकथाएं पढ़ते हुए उनका निजी जीवन ही नहीं दिखता बल्कि एक तरह से  उनके पुरे  समुदाय के कहानी के रूप में भी सामने आती है। ये होता है कि आप जैसे ही किसी एक स्त्री की आत्मकथा पढ़ेगें तो वो  पढ़ते हुए ऐसे लगता है कि जैसे यह किसी एक स्त्री की नहीं, बल्कि कई महिलाओं की आत्मकथा है। हालांकि एकदम निरपेक्ष और प्रमाणिक  आत्मकथा लिखने में बहुत साहस की जरूरत होती है।

हिंदी साहित्य में कई स्त्री आत्मकथा की चर्चित किताबें हैं जो पढ़ी और सराहीं गयीं। इनमें रमणिका गुप्ता की हादसे और अपहुदरी, अन्या से अनन्या तक प्रभा खेतान की आत्मकथा है जिसमें एक आधुनिक और आत्मनिर्भर स्त्री आजीवन एक विवाहित पुरुष के प्रेम में उलझी रह जाती है।

महिलाओं के आत्मकथा की शुरुआत

तस्वीर साभार: Sasta Sahitya Mandal

जब कोई  लेखनी एक जीवंत और सतत सजग नारी का आत्मकथ्य होता है तो समाज में एक हलचल सी मचती है, जिसका प्रभाव महिला के जीवन पर पड़ता है। पंजाबी लेखिका अजित कौर कहती हैं कि स्त्री का आत्मकथा लिखना अंगारों पर चलने जैसा होता है। लेकिन, इतने जोखिम होते हुए भी स्त्रियों को जब कलम मिलती है तो वे तमाम रचना विधाओं के साथ एकदिन निडर होकर अपनी आत्मकथा भी लिखती हैं। हिंदी में स्त्री आत्मकथा लेखन की परंपरा जानकी देवी बजाज की आत्मकथा “मेरी जीवनयात्रा” से मानी जाती है। यह आत्मकथा एक गूँज के रूप में सामने आती है। उसके बाद दिनेश नंदिनी डालमिया की आत्मकथा सामने आई। इसके बाद प्रतिभा अग्रवाल की आत्मकथा “दस्तक जिंदगी की और मोड़ जिंदगी का” सामने आया। इसके बाद लेखिकाओं ने आत्मकथाओं विधा में पीछे मुड़कर नहीं देखा।

महिलाएं और उनकी ईमानदार लेखनी  

हिंदी साहित्य में कई स्त्री आत्मकथा की चर्चित किताबें हैं जो पढ़ी और सराहीं गयीं। इनमें रमणिका गुप्ता की हादसे और अपहुदरी, अन्या से अनन्या तक प्रभा खेतान की आत्मकथा है जिसमें एक आधुनिक और आत्मनिर्भर स्त्री आजीवन एक विवाहित पुरुष के प्रेम में उलझी रह जाती है। हिंदी साहित्य में जिन आत्मकथाओं की चर्चा रही वो हैं कृष्णा अग्निहोत्री की लगता नहीं दिल मेरा, शिवानी की लिखी सुनहु तात यह अकथ कहानी, बूंद बावड़ी, पद्मा सचदेव की पिजरे की मैना, चन्द्रकिरण सौन रेक्सा की आत्मकथा राजी सेठ की कहां से उजास, जोहरा सहगल की करीब से, सुषमा बेदी की आरोह अवरोह, रमणिका गुप्ता की अपहुदरी, निर्मला जैन की जमाने में हम, मृदुला गर्ग की राजपथ से लोकपथ पर, अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट, सुनीता जैन की शब्द काया और ममता कालिया की कितने शहरों में कितनी बार की आत्मकथा शामिल है।

तस्वीर साभार: Rajkamal Prakashan

हालांकि ममता कालिया ने उसे संसमरण ही कहा है। लेकिन जिस तरह से उन्होंने स्वयं को किताब में व्यक्त किया है वो आत्मकथ्यात्मक ही ज्यादा है।  इसी तरह  शिवरानी देवी का संस्मरण प्रेमचंद घर में भी आत्मकथा की तरह ही लिखा गया है। अंतर ये है कि उसके केंद्र में प्रेमचंद हैं। शिवरानी देवी ने जिस साहस और ईमानदारी प्रेमचंद्र और खुद का जीवन लिखती हैं वो काबिलेतारीफ है। 

प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडे स्त्रियों की आत्मकथाओं के इस अभाव पर कहते हैं कि स्त्रियों की आत्मकथाएं तो इसलिए नहीं है कि उन्हें हमारे सामाजिक ढांचे में सच बोलने की स्वतंत्रता नहीं है। इसी संदर्भ में हम देख सकते हैं कि जिस पृष्ठभूमि में बड़े-बड़े स्त्री-आंदोलन हुए, वहां स्त्रियों की चेतना ज्यादा मुखर होकर सामने आयी।

समाज के बंदिशों के बीच स्त्री आत्मकथाएं

समाज की तमाम बंदिशों के कारण साहित्य में स्त्रियों की आत्मकथा पुरुषों की आत्मकथाओं से काफी कम मात्रा में लिखी गयीं। प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडे स्त्रियों की आत्मकथाओं के इस अभाव पर कहते हैं कि स्त्रियों की आत्मकथाएं तो इसलिए नहीं है कि उन्हें हमारे सामाजिक ढांचे में सच बोलने की स्वतंत्रता नहीं है। इसी संदर्भ में हम देख सकते हैं कि जिस पृष्ठभूमि में बड़े-बड़े स्त्री-आंदोलन हुए, वहां स्त्रियों की चेतना ज्यादा मुखर होकर सामने आयी। जैसे मराठी साहित्य में  जिस तरह से स्त्रियों की आत्मकथाएं लिखी गयीं उस तरह से हिंदी साहित्य में स्त्री आत्मकथाएं नहीं लिखी गयीं। ये बात कहीं न कहीं समाज में स्त्री की स्वतंत्रता और उनसे जुड़े पारंपरिक मूल्यों से जाकर जुड़ती है। कुछ सवर्ण लेखिकाओं के हिंदी साहित्य की स्त्री आत्मकथाओं को पढ़ते हुए उनका संकोच भी दिखता है। जैसे मन्नू भंडारी अपनी आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी है’ को अपनी पूर्ण जीवनी नहीं मानती।

तस्वीर साभार: Vagartha

उनका कहना था कि जिस प्रकार कहानी जीवन का एक अंशमात्र होती है उसी प्रकार मेरी यह आत्मकथा जीवन का एक भाग मात्र है, जो मेरे लेखकीय व्यक्तित्व और लेखन यात्रा पर केंद्रित है। हालांकि इस किताब को पढ़ते हुए यही लगता है कि मन्नू भंडारी ने अपना जीवन अनुभव और अपने पति से अपनी असहमतियों को लिखा है। समाज जिस तरह से स्त्री को लेकर संकुचित था, वहां जिस भी तरह से स्त्री अपने लेखन में अपना जीवन अनुभव दर्ज करती है वो जीवनोपयोगी साहित्य होगा। प्रभा खेतान ने जिस तरह से अपनी आत्मकथा अन्या से अनन्या में लिखा वो काबिलेतारीफ है। आलोचक प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अन्या से अनन्या के लिए कहा है कि प्रभा खेतान अपनी आत्मकथा में अभिव्यक्त नहीं करती बल्कि उद्घाटित होती हैं।

आत्मकथा में हम देख सकते हैं कि एक औरत अपने जीवन की कहानी सिर्फ बताती नहीं, बल्कि धीरे-धीरे सब कुछ खोलकर सामने रख देती है। उसकी बातों में सिर्फ भावनाएं नहीं होतीं, बल्कि गहराई से सोचने की बात भी होती है। यानी वह सिर्फ अपनी बात नहीं कहती, बल्कि समाज और अपने अनुभवों को पूरी तरह उजागर करती है।

स्त्री सिद्धांत के मुताबिक स्त्री को आत्मकथा लिखने की जरूरत अपनी अभिव्यक्ति के लिए पड़ी। स्त्री आत्मकथा का लक्ष्य होता है उद्घाटन करना। यह उद्घाटित करने वाला गद्य है। आत्मकथा में हम देख सकते हैं कि एक औरत अपने जीवन की कहानी सिर्फ बताती नहीं, बल्कि धीरे-धीरे सब कुछ खोलकर सामने रख देती है। उसकी बातों में सिर्फ भावनाएं नहीं होतीं, बल्कि गहराई से सोचने की बात भी होती है। यानी वह सिर्फ अपनी बात नहीं कहती, बल्कि समाज और अपने अनुभवों को पूरी तरह उजागर करती है।

इस क्रम में मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा भी महत्वपूर्ण है। मैत्रेयी पुष्पा ने  गुड़िया भीतर गुड़िया में समकालीन पितृसत्तात्मक समाज को बेनकाब किया है। मैत्रयी पुष्पा ने अपने शंकालु पति के दी जाने वाली मानसिक यातना और भावनात्मक अपमान को बताया है। वे मानती हैं कि स्त्री स्वतंत्र आकाश में उड़ना चाहती है पर पितृसत्ता से बना पुरूष उसे ऐसा करने से रोकता है। जैसे ही उसके पंखों में शक्ति आती  है, उसके पंख कतर दिए जाते हैं। मैत्रयी कहती हैं कि ये लोग नहीं समझते कि मुझे बंधन रास नही आते। बंधनों में मैं छटपटाने लगती हूं।

दलित स्त्री आत्मकथाओं में केवल जाति आधारित अनुभव ही नहीं, बल्कि स्त्री देह होने की पीड़ा भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। हिंदी साहित्य में दलित स्त्री की पहली आत्मकथा कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ है, जो वर्ष 1999 में प्रकाशित हुई थी।

निजी से समाज की ओर लेखनी

तस्वीर साभार: Canva

हिंदी साहित्य में रमणिका गुप्ता की आत्मकथा काफी चर्चित रही। ये अपहुदरी और हादसे नाम के संकलनों में दो भागों में प्रकाशित हुई है। रमणिका गुप्ता ट्रेड यूनियन से जुड़ी थी उनका जीवन काफी हद तक सार्वजनिक था। वे अपनी आत्मकथा में लिखती हैं कि मैं सब परिधियाँ बांध सकती थी, सीमाएं तोड़ सकती थी। सीमाओं में रहना हमेशा कचोटता रहा है। सीमा तोड़ने का आभास ही मुझे अधिक सुखकारी लगता है। मैं वर्जनाएं तोड़ सकती हूं। अपनी देह की मैं खुद मालिक हूं। मैं संचालक हूं संचालित नहीं। रमणिका गुप्ता की आत्मकथा काफी बोल्ड और विवादित भी हुई। उन्होंने लिखा है कि नदी तब तक नहीं रुकती जब तक उसके पानी का स्रोत खत्म नहीं हो जाता और मैंने अपने भीतर की स्त्री के स्रोत को कभी खत्म नहीं होने दिया।

मैत्रेयी पुष्पा ने  गुड़िया भीतर गुड़िया में समकालीन पितृसत्तात्मक समाज को बेनकाब किया है। मैत्रयी पुष्पा ने अपने शंकालु पति के दी जाने वाली मानसिक यातना और भावनात्मक अपमान को बताया है।

स्त्री आत्मकथाओं में केवल स्त्री का निजी नहीं होता। वह समाज के भीतर का जीवन उनके विभिन्न संघर्षों अंतर्विरोधों को भी वह किसी न किसी रूप में अपनी आत्मकथा में दर्ज करती है। चन्द्रकिरण सोनरेक्सा पिंजरे की मैना में लिखती हैं कि मैंने देश के बहुसंख्यक समाज को विपरीत परिस्थितियों में जूझते, कुम्हलाते और समाप्त होते देखा है। वह पीड़ा और सामाजिक दर्द की पुकार मेरे लेखन का आधार रहा है। उन सामाजिक कुरीतियों, विषमताओं और बंधनों को मैंने अपने पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया है, जिससे वे भी उनके प्रति सजग हों। स्त्री आत्मकथा में दलित स्त्री आत्मकथाओं का महत्वपूर्ण स्थान है जिन्होंने अपने जीवन के दोहरे संघर्ष को बताया है।

दलित महिलाओं की आत्मकथाएं

दलित स्त्री आत्मकथाओं में केवल जाति आधारित अनुभव ही नहीं, बल्कि स्त्री देह होने की पीड़ा भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। हिंदी साहित्य में दलित स्त्री की पहली आत्मकथा कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ है, जो वर्ष 1999 में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद कई महत्वपूर्ण आत्मकथाएं सामने आईं, जैसे—शुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’, दलित कार्यकर्ता रजनी तिलक की ‘अपनी ज़मीं, अपना आसमान’, अनिता भारती की ‘छूटे पन्नों की उड़ान’ और सुमित्रा महरौल की ‘टूटे पंखों से परवाज़ तक।’ समाज की रूढ़ियों ने जिस तरह स्त्री को जकड़ रखा था, उसने उसकी चेतना को भीतर ही भीतर छटपटाने पर मजबूर कर दिया। जब इन स्त्रियों ने पढ़ना-लिखना सीखा, तो उन्होंने केवल अपने दुखों को नहीं, बल्कि अपने पूरे अस्तित्व को काग़ज़ पर उतारा। उन्होंने अपनी कमजोरियों, ग्रंथियों, भय, प्रेम और यहां तक कि अपनी यौनिक इच्छाओं को भी लिखने से परहेज़ नहीं किया।

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