जयपुर की घनी बसावट के बीच स्थित टारों की खूंट नामक क्षेत्र में फैला डोल का बाड़ केवल एक जंगल नहीं है, बल्कि यह शहरीकरण और पर्यावरणीय चेतना के बीच संतुलन का एक जीवंत उदाहरण है। लगभग 100 एकड़ में फैला यह हरा-भरा इलाका आज प्रकृति की विविधता और लोगों की सांस्कृतिक भावनाओं को सहेजता हुआ नजर आता है। इस क्षेत्र में 2,400 से अधिक देशज पेड़-पौधे हैं। इनमें खेजड़ी, नीम, पीपल, बबूल और शीशम जैसे वृक्ष शामिल हैं, जो राजस्थान की परंपरागत जीवनशैली और जलवायु के अनुकूल हैं। साथ ही, यहां 60 से ज्यादा औषधीय वनस्पतियाँ भी हैं, जिनका इस्तेमाल देशी इलाज और लोक चिकित्सा में वर्षों से किया जाता रहा है। डोल का बाड़ 85 से अधिक पक्षियों की प्रजातियों का भी घर है। यहां पर मोर, तोता, बुलबुल, ड्रोंगो और किंगफिशर जैसे पक्षी देखे जा सकते हैं। इन पक्षियों की उपस्थिति इस इलाके को जीवंत और पारिस्थितिक रूप से समृद्ध बनाती है।
सिर्फ पक्षी ही नहीं, यहां नीलगाय, खरगोश, लोमड़ी, सियार जैसे कई छोटे-बड़े वन्यजीव भी रहते हैं। इन जानवरों की मौजूदगी इस क्षेत्र को एक संपूर्ण जैव विविधता वाला आवास बनाती है, जो किसी भी शहर में दुर्लभ माना जाता है। डोल का बाड़ सिर्फ पेड़ों और जानवरों का इलाका नहीं, बल्कि प्रकृति और इंसान के बीच सामंजस्य का प्रतीक है। यह जगह हमें याद दिलाती है कि विकास के साथ-साथ पर्यावरण का संरक्षण भी उतना ही जरूरी है। राजस्थान विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों और वन विभाग की रिपोर्टों के अनुसार, यह वन क्षेत्र जैव-विविधता से भरपूर और पारिस्थितिक रूप से बेहद संवेदनशील है। यह सिर्फ जंगल नहीं, बल्कि लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा एक जीवंत समुदाय है। दुर्भाग्यवश, अब इसे ‘विकास’ के नाम पर खत्म किया जा रहा है, जिससे न सिर्फ पर्यावरण, बल्कि हमारी संतुलित जीवनशैली भी खतरे में पड़ सकती है।
डोल का बाड़ 85 से अधिक पक्षियों की प्रजातियों का भी घर है। यहां पर मोर, तोता, बुलबुल, ड्रोंगो और किंगफिशर जैसे पक्षी देखे जा सकते हैं। इन पक्षियों की उपस्थिति इस इलाके को जीवंत और पारिस्थितिक रूप से समृद्ध बनाती है।
राजनीतिक उपेक्षा और जनता का प्रतिरोध
साल 2021 में राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने जयपुर के डोल का बाड़ इलाके में एक विकास परियोजना की घोषणा की, जिसमें जंगल हटाकर फिनटेक पार्क और मॉल्स बनाने की योजना थी। यह इलाका पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील है और स्थानीय लोग इसे अपनी जीवनशैली और पहचान से जोड़ते हैं। स्थानीय नागरिकों और संगठनों ने इसका विरोध करते हुए यहां जैव विविधता पार्क बनाने का सुझाव दिया, जिससे पर्यावरण संरक्षण के साथ रोजगार और शिक्षा के अवसर बढ़ सकते थे।

लेकिन, साल 2024 में भाजपा सरकार ने पुराने प्रस्ताव को तेज़ी से लागू करना शुरू कर दिया। इस बार पीएम यूनिटी मॉल, फिनटेक पार्क और होटल्स जैसे निर्माण कार्य प्रस्तावित किए गए, जिनमें न पर्यावरणीय आकलन किया गया और न ही जनता से राय ली गई। साल 2025 में 200 से अधिक पेड़ काटे गए, विरोध की आवाज़ें दबाई गईं। स्थानीय लोगों ने कहा कि वे विकास के खिलाफ नहीं, लेकिन बिना सहमति और पर्यावरणीय चिंता के लिए गए फैसलों का विरोध ज़रूरी है। यह घटना लोकतांत्रिक भागीदारी और टिकाऊ विकास पर गंभीर सवाल उठाती है।
जब मैंने पहली बार डोल का बाड़ देखा, तो लगा यह जंगल नहीं, मेरी आत्मा का हिस्सा है। मैं इसे कटते हुए नहीं देख सकती। मैंने अपने खून से मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखी है। ज़रूरत पड़ी तो मैं आमरण अनशन के लिए भी तैयार हूं।
स्थानीय लोगों का जंगल बचाने का संकल्प
रेखा, जो मरुधरा किसान यूनियन के महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष हैं, पिछले पांच महीनों से लगातार आंदोलन का हिस्सा रही हैं। वे हर दिन प्रदर्शन स्थल पर मौजूद रहती हैं। उन्होंने अपने घर का अचार बनाने का काम भी रोक दिया है ताकि पूरी तरह से इस आंदोलन को समय दे सकें। एक महिला के लिए अपनी आजीविका छोड़ देना आसान नहीं होता, लेकिन रेखा ने इसे ज़रूरी समझा। वह कहती हैं, “जब मैंने पहली बार डोल का बाड़ देखा, तो लगा यह जंगल नहीं, मेरी आत्मा का हिस्सा है। मैं इसे कटते हुए नहीं देख सकती। मैंने अपने खून से मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखी है। ज़रूरत पड़ी तो मैं आमरण अनशन के लिए भी तैयार हूं।”

रेखा ने प्रदर्शनकारियों के साथ मिलकर पत्रिका गेट, अल्बर्ट हॉल और कई अन्य प्रतीकात्मक स्थानों पर प्रदर्शन किए। उन्होंने कैंडल मार्च निकाले, घर-घर जाकर लोगों को जागरूक किया और पैदल मार्च का नेतृत्व भी किया। मुख्यमंत्री को जो पत्र भेजा गया, उसमें उनके सहित अन्य साथियों का रक्त भी शामिल था। वह आगे कहती हैं, हमें विकास से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन पेड़ काटकर विकास नहीं होना चाहिए। ये जंगल बचा रहेगा, तभी शहर भी बचेगा।”
मुख्यमंत्री को जो पत्र भेजा गया, उसमें उनके सहित अन्य साथियों का रक्त भी शामिल था। वह आगे कहती हैं, हमें विकास से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन पेड़ काटकर विकास नहीं होना चाहिए। ये जंगल बचा रहेगा, तभी शहर भी बचेगा।”
रेखा बताती हैं कि प्रदर्शनकारियों के पास वैकल्पिक प्रस्ताव भी हैं, लेकिन प्रशासन ने न तो उन्हें सुना और न ही कोई जवाब दिया। आंदोलन को दबाने के लिए प्रशासन की ओर से लगातार पुलिस का सहारा लिया जा रहा है। प्रदर्शनकारियों को डराने की कोशिश हो रही है, फिर भी रेखा जी और उनके साथी डटे हुए हैं। वे आमरण अनशन और गिरफ्तारी के लिए पूरी तरह तैयार हैं। उनका यह संघर्ष केवल पेड़ों को बचाने के लिए नहीं है, यह उस अवहेलना के खिलाफ भी है जो जनता की आवाज़ को नजरअंदाज करती है। उनका साहस और उनका संकल्प यह बताता है कि जब एक महिला अपनी ज़मीन, जंगल और अधिकारों के लिए खड़ी होती है, तो वह अकेली नहीं होती – वह पूरे समाज के लिए आवाज़ बन जाती है।

ग्रीष्मा पहले पर्यटन उद्योग में काम करती थीं, लेकिन अब वह एक योग प्रशिक्षिका बनने की तैयारी कर रही हैं। उन्होंने पर्यावरण की रक्षा के लिए चल रहे आंदोलन में सक्रिय भाग लिया है। 2023 में जब सरकार की ओर से अचानक बुलडोज़र आए और पेड़ों की कटाई शुरू करने की कोशिश की गई, तब वह अन्य महिलाओं के साथ मिलकर उनके सामने खड़ी हो गईं और इस कार्रवाई को रुकवाया। उनका योगदान केवल विरोध तक सीमित नहीं है। वह अपने दैनिक जीवन में भी पर्यावरण की रक्षा को प्राथमिकता देती हैं। वह प्लास्टिक का उपयोग नहीं करतीं और बोतलों और पैकेजिंग के लिए पर्यावरण के अनुकूल विकल्प अपनाती हैं। उनका मानना है कि जंगल पर हमला, हमारी जड़ों पर हमला है। वे इस आंदोलन को केवल पर्यावरण से जुड़ा विषय नहीं मानतीं, बल्कि इसे मातृत्व और बच्चों के भविष्य की रक्षा का एक तरीका मानती हैं।
ग्रीष्मा पहले पर्यटन उद्योग में काम करती थीं, लेकिन अब वह एक योग प्रशिक्षिका बनने की तैयारी कर रही हैं। जब सरकार की ओर से अचानक बुलडोज़र आए और पेड़ों की कटाई शुरू करने की कोशिश की गई, तब वह अन्य महिलाओं के साथ मिलकर उनके सामने खड़ी हो गईं और इस कार्रवाई को रुकवाया।
2023 का विरोध और महिला नेतृत्व
साल 2023 में हुआ यह विरोध सिर्फ पर्यावरण को बचाने की लड़ाई नहीं था। यह आंदोलन महिलाओं की एकजुटता और ज़मीनी स्तर पर नारीवादी सोच का भी उदाहरण था। इस आंदोलन में मिताली, बर्खा, कविता, ग्रीष्मा और अरुंधति जैसी कई महिलाएं मुख्य भूमिका में थीं। वे सिर्फ समर्थन देने नहीं आई थीं, बल्कि शुरुआत से लेकर अंत तक विरोध की अगली कतार में थीं। इन महिलाओं ने दिन की शुरुआत सुबह चार बजे से की और देर रात तक विरोध स्थल पर मौजूद रहीं। उन्होंने न सिर्फ बुलडोज़रों को रोकने का साहस दिखाया, बल्कि यह भी साफ किया कि महिलाएं अब केवल दर्शक नहीं, बल्कि संघर्ष और बदलाव की धुरी हैं। अरुंधति, जो कि आईआईटी गांधीनगर से एमए कर रही हैं, इस आंदोलन में शामिल शिक्षित युवतियों की एक मिसाल हैं। वह बताती हैं, “हम उस बुलडोज़र पर चढ़ गए थे। पेड़ नहीं कटने दिए। बारिश हो, धूप हो या पीरियड्स—हर दिन वहीं खड़े रहते।”

इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ संख्या तक सीमित नहीं थी। उन्होंने अपनी शारीरिक असुविधाओं को भी पीछे छोड़ दिया और पूरे समर्पण से आंदोलन का हिस्सा बनीं। उनका यह जुड़ाव केवल पर्यावरण से नहीं था, बल्कि उससे कहीं गहरा एक संवेदनशील रिश्ता था जो प्रकृति और अस्तित्व से जुड़ा था। इस आंदोलन ने यह भी दिखाया कि भारत जैसे देश में इकोफेमिनिज़्म सिर्फ एक विचार नहीं है। यह एक ठोस और ज़मीनी हकीकत है, जहां महिलाएं प्रतिरोध का नेतृत्व करती हैं और बदलाव की दिशा तय करती हैं।
डोल का बाड़ आंदोलन में घरों तक सीमित रहने वाली महिलाओं की सक्रिय भागीदारी ने एक अनदेखा पक्ष उजागर किया है। ये महिलाएं बिना किसी औपचारिक बुलावे के खुद से आंदोलन से जुड़ीं, घरेलू ज़िम्मेदारियों के बीच समय निकालकर जंगलों की रक्षा में आगे आईं।
डोल का बाड़ आंदोलन और घरेलू महिलाओं की भागीदारी
डोल का बाड़ आंदोलन में घरों तक सीमित रहने वाली महिलाओं की सक्रिय भागीदारी ने एक अनदेखा पक्ष उजागर किया है। ये महिलाएं बिना किसी औपचारिक बुलावे के खुद से आंदोलन से जुड़ीं, घरेलू ज़िम्मेदारियों के बीच समय निकालकर जंगलों की रक्षा में आगे आईं। हालांकि उन्हें प्रशासनिक दबाव और पारिवारिक नियंत्रण का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। महिलाओं ने वृक्ष रक्षा बंधन जैसे आयोजन किए और बच्चों को जंगलों के महत्व की शिक्षा दी। यह भागीदारी बताती है कि पारंपरिक भूमिकाओं में रहने वाली महिलाएं भी पर्यावरण संरक्षण में संवेदनशील, जागरूक और निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं।

डोल का बाड़ आंदोलन की सबसे पीड़ादायक सच्चाई यह है कि नागरिकों की लगातार अपीलों, सुझावों और शांतिपूर्ण विरोध के बावजूद सरकार और प्रशासन ने उन्हें लगभग नज़रअंदाज़ कर दिया। कई बार प्रशासन ने प्रदर्शन की अनुमति दी, लेकिन पुलिस हर दिन आकर उन्हें रोकती, डराने की कोशिश करती। इसके बावजूद आंदोलनकारी डटे रहे। एक कार्यकर्ता ने बताया,
“हर दिन पुलिस आती है, रोकती है, डराती है। लेकिन हम फिर भी जाते हैं, क्योंकि ये जंगल, ये पेड़, ये पशु-पक्षी हमारी ज़िम्मेदारी हैं।” प्रशासन का यह रुख केवल पर्यावरण के प्रति उपेक्षा नहीं है, बल्कि यह सामाजिक आंदोलनों की गंभीर अनदेखी भी है। जब आम लोग अपनी ज़मीन, अपने जंगल बचाने के लिए शांतिपूर्वक सुझाव भी देते हैं और फिर भी उन्हें नज़रअंदाज़ किया जाता है, तो यह साफ संकेत है कि सरकारें नागरिकों को केवल चुनावी वोट के रूप में देखती है।
डोल का बाड़ आंदोलन यह बताता है कि आज हमारे समय की सबसे बड़ी समस्या संसाधनों की नहीं, बल्कि संवेदनशीलता की कमी है। आज जब सरकारें हरियाली, जंगल, सामूहिक प्रयास और लोक आधारित विकास की बजाय ईंट, सीमेंट और कॉर्पोरेट परियोजनाओं को प्राथमिकता देती हैं – तो यह न सिर्फ पर्यावरण का नुकसान है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर भी चोट है। डोल का बाड़ की यह लड़ाई न सिर्फ एक जंगल को बचाने की लड़ाई है, यह एक विचार को बचाने की लड़ाई है – कि आम नागरिक की आवाज़, उसकी चिंता और उसका भविष्य मायने रखता है। यही उपेक्षा इस आंदोलन को और अधिक नैतिक, और अधिक ज़मीन से जुड़ा बनाती है।


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