आज पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और बाढ़-सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं से परेशान हैं । ऐसे में पर्यावरण की रक्षा करना एक बहुत बड़ा और जरूरी मुद्दा बन गया है और इसके चलते इको-फासिज़्म लगातार अपनी जड़ें मजबूत करता जा रहा है। इसमे पर्यावरण के संकट का सारा दोष हाशिये पर रह रहे समुदाय के व्यक्तियों पर लगाया जाता है। या यह विचारधारा पर्यावरणीय संकटों के समाधान के नाम पर नस्लवाद, जातिवाद, जनसंख्या नियंत्रण, और हाशिये में रह रहे लोगों के खिलाफ हिंसा को जायज़ ठहराने की कोशिश करती है। इसका एक उदाहरण यह देखा जा सकता है जब जनसंख्या बृद्धि की बात आती है तब केबल मुस्लिम समुदाय को ही इसके लिए दोषी ठहराया जाता है और यह भी कहा जाता है कि इनके ज्यादा बच्चे होते हैं जिसकी बजह से गंदगी फैल रही है और इससे पर्यावरण पर असर पड़ रहा है । यह किस हद तक सही है यह सोचने वाली बात है। उदाहरण के लिए, जब सरकारें यह कहती हैं कि झुग्गियों में रहने वाले लोग पर्यावरण को गंदा कर रहे हैं और इसलिए उन्हें हटाना जरूरी है, तो यह एक तरह की पर्यावरण के नाम पर की जा रही हिंसा है। यह न सिर्फ पर्यावरणीय न्याय के खिलाफ है, बल्कि मानवीय अधिकारों का भी उल्लंघन है।
आदिवासी समुदाय के व्यक्तियों को जो जंगलों और प्रकृति के लिए सदियों से अपना योगदान देते आए हैं । आए दिन पर्यावरण संरक्षण के नाम पर इको फ़ासिज़्म जैसी भेदभाव पूर्ण सोच से गुजरना पड़ता है । जब उन्हें जगलों से निकाल दिया जाता है या फिर जब उन पर जंगलों के अवैध कवजे का आरोप लगाया जाता है । यह साफ़ तौर पर दिखाता है कि इको-फासिज़्म का मकसद पर्यावरण की रक्षा नहीं, बल्कि गरीब और हाशिए पर जी रहे लोगों को और भी हाशिए पर धकेलना है। सोचने की बात ये है कि क्या वाकई यही लोग जलवायु संकट के लिए ज़िम्मेदार हैं? इन लोगों की जीवनशैली तो सादा होती है वे न बहुत बिजली जलाते हैं, न ही बड़े-बड़े वाहन चलाते हैं। तो फिर पर्यावरण प्रदूषण और जलबायू परिवर्तन होने का कारण इन लोगों को क्यों बनाया जा रहा है ?
यह विचारधारा पर्यावरणीय संकटों के समाधान के नाम पर नस्लवाद, जातिवाद, जनसंख्या नियंत्रण, और हाशिये में रह रहे लोगों के खिलाफ हिंसा को जायज़ ठहराने की कोशिश करती है।
इको-फासिज़्म का इतिहास
इको-फासिज़्म कोई आज की सोच नहीं है, इसकी शुरुआत कई दशक हो चुकी थी। अगर हम इतिहास में पीछे जाएं, तो हमें 1930 और 40 के दशक का जर्मनी दिखाई देगा, जहां हिटलर और उसकी नाज़ी पार्टी ने एक बहुत ही खतरनाक सोच को बढ़ावा दिया। उस समय हिटलर शुद्ध नस्ल की बात करता था यानी वो मानता था कि सिर्फ जर्मन मूल के गोरे रंग के लोग ही शुद्ध हैं, और बाकी सभी लोग जैसे यहूदी, रोमा (घुमंतू समुदाय), क्वीयर समुदाय के व्यक्ति, विकलांग व्यक्ति या हाशिये पर रहने वाले ये सभी समुदायों के व्यक्ति अशुद्ध हैं और इन्हें खत्म कर देना चाहिए। हिटलर ने अपनी इस नस्लवादी विचारधारा को पर्यावरण की चिंता के साथ जोड़ दिया।
उसने कहा कि अगर हमें प्रकृति को शुद्ध रखना है, तो समाज को भी शुद्ध बनाना पड़ेगा। यानी, जिन लोगों को वह अशुद्ध या असली जर्मन निवासी नहीं समझता था, उन्हें या तो मार दिया गया या नजरबंद कर दिया गया। एक तरफ पेड़ों और जंगलों की बातें की गईं, लेकिन दूसरी तरफ लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। यह सोचने वाली बात है जब कोई सरकार या समूह कहता है कि पर्यावरण बचाने के लिए हमें कुछ इंसानों को किसी जगह से हटाना होगा या खत्म करना होगा, तो ये असल में पर्यावरण की रक्षा नहीं बल्कि सत्ता और नफरत का खेल होता है। यह वो सोच है जो पेड़ तो बचाना चाहती है, लेकिन इंसानों को मिटाने में कोई हिचक नहीं दिखाती। यहीं से इको-फासिज़्म की असली पहचान होती है एक ऐसी सोच जो प्रकृति की आड़ लेकर समाज के सबसे कमजोर लोगों को निशाना बनाती है।
हिटलर शुद्ध नस्ल की बात करता था यानी वो मानता था कि सिर्फ जर्मन मूल के गोरे रंग के लोग ही शुद्ध हैं, और बाकी सभी लोग जैसे यहूदी, रोमा (घुमंतू समुदाय), क्वीयर समुदाय के व्यक्ति, विकलांग व्यक्ति या हाशिये पर रहने वाले ये सभी समुदायों के व्यक्ति अशुद्ध हैं
इको-फासिज़्म की आड़ में जंगलों से बेदखली

आज इको-फासिज़्म सीधे तौर पर फासीवाद जैसा नहीं दिखता, लेकिन इसकी सोच अब भी ज़िंदा है। जब सरकारें या पर्यावरण से जुड़ी संस्थाएं यह कहती हैं कि आदिवासी लोग जंगलों के लिए खतरा हैं और उन्हें वहां से हटा दिया जाता है तो असल में वो उस समुदाय की संस्कृति, परंपरा और आजीविका को उजाड़ रही होती हैं। जबकि सच तो यह है कि सदियों से जंगलों को बचाने का असली काम तो यही समुदाय करते आए हैं। लेकिन आज पर्यावरण के नाम पर इन्हें अवैध कहकर बाहर निकाल दिया जाता है। उदाहरण के लिए साल 2024 में आरआरएजी ने रिपोर्ट में कहा है कि भारत के बहुचर्चित प्रोजेक्ट टाइगर की वजह से कम से कम 5,50,000 अनुसूचित जनजातियों के लोग और अन्य वनवासी विस्थापित होने वाले हैं।
इनमें साल 2017 तक अधिसूचित 50 बाघ अभयारण्यों से 2,54,794 लोग और साल 2021 के बाद की अवधि में छह बाघ अभयारण्यों से कम से कम 2,90,000 लोग शामिल हैं। एक अधिकार समूह ने ईटीवी भारत को बताया कि साल 2021 के बाद से अब तक करीब 29 लाख (2,90,0000) लोगों के बेघर होने की आशंका है। ये सभी लोग अलग-अलग टाइगर रिज़र्व और वन्यजीव अभयारण्यों की वजह से अपने घरों से हटाए जा रहे हैं। आजकल कई जगहों को टाइगर रिज़र्व यानि बाघों के लिए सुरक्षित जगह घोषित किया जा रहा है।
साल 2024 में आरआरएजी ने रिपोर्ट में कहा है कि भारत के बहुचर्चित प्रोजेक्ट टाइगर की वजह से कम से कम 5,50,000 अनुसूचित जनजातियों के लोग और अन्य वनवासी विस्थापित होने वाले हैं।
कई बार यह सिर्फ एक बहाना बनकर रह जाता है असली मकसद लोगों को वहां से हटाना होता है। भारत के पांच टाइगर रिज़र्व क्षेत्र ऐसे हैं जहां एक भी बाघ नहीं मिला, फिर भी वहां रहने वाले 5,670 आदिवासी परिवारों को जबदस्ती हटाया गया। यह सवाल उठता है जब इन इलाकों में बाघ हैं ही नहीं, तो फिर आदिवासी समुदायों को वहां से हटाने का क्या मतलब था? इस तरह का विस्थापन सिर्फ लोगों के घर और ज़मीन नहीं छीनता, बल्कि उनकी पूरी संस्कृति, रोज़गार और पहचान को भी मिटा देता है। आदिवासी लोग जंगलों के साथ रहकर उन्हें संभालते आए हैं। लेकिन आज, उन्हीं जंगलों से उन्हें निकाला जा रहा है बगैर किसी ठोस वजह के।
पर्यावरण के आधार पर वर्ग और नस्ल आधारित भेदभाव

जब हम पर्यावरण की बात करते हैं, तो हम यही सोचते हैं कि यह एक प्राकृतिक संकट है, जिससे सभी लोग बराबरी से प्रभावित होते हैं। लेकिन सच्चाई इससे कहीं अलग है। पर्यावरणीय संकटों का बोझ सबसे ज़्यादा हाशिये पर रह रहे समुदायों के व्यक्तियों पर ज्यादा पड़ता है। यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे पर्यावरणीय नस्लवाद के नाम से भी जाना जाता है । जब सरकारें और प्राइवेट कंपनियां किसी परियोजना की योजना बनाती हैं, जैसे खनन, बांध, फैक्ट्री या कचरा डंपिंग ज़ोन तो वे आमतौर पर ऐसे क्षेत्रों को चुनती हैं जहां लोग राजनीतिक या सामाजिक रूप से हाशिये पर होते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि इन समुदायों की सरकार में, नीति निर्माण की संस्थाओं में या पर्यावरणीय नियम बनाने वाली एजेंसियों में कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता जब प्रतिनिधित्व ही नहीं होगा तो उनकी समस्याएं भी नहीं सुनी जाएंगी, जिस बजह से उनकी आवाज़ें अनसुनी रह जाती हैं। इसके चलते, पर्यावरणीय परियोजनाओं से जुड़े विरोधों को या तो दबा दिया जाता है, या फिर उन्हें विकास विरोधी बताकर अनसुना कर दिया जाता है।
जब हम पर्यावरण की बात करते हैं, तो हम यही सोचते हैं कि यह एक प्राकृतिक संकट है, जिससे सभी लोग बराबरी से प्रभावित होते हैं। लेकिन सच्चाई इससे कहीं अलग है। पर्यावरणीय संकटों का बोझ सबसे ज़्यादा हाशिये पर रह रहे समुदायों के व्यक्तियों पर ज्यादा पड़ता है
जब किसी शहर में स्लम या झुग्गियों को इसलिए तोड़ दिया जाता है ताकि वहां ग्रीन पार्क या ब्यूटीफिकेशन ज़ोन बनाया जा सके तो वह भी इको-फासिज़्म का ही एक रूप है। गरीब लोगों के सिर से छत छीनकर यह कहा जाता है कि इससे शहर सुंदर लगेगा या स्वस्थ बनेगा। इसका एक उदाहरण अहमदाबाद का साबरमती रिवरफ्रंट प्रोजेक्ट है। लैन्ड कान्फ्लिक्ट वॉच में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार मई 2011 में जब अहमदाबाद नगर निगम ए एम सी ने साबरमती रिवरफ्रंट के पास की झुग्गियों को तोड़ा, तो वहां रहने वाले लोगों के पास न तो नया घर था और न ही कोई अस्थायी ठिकाना। इसके कारण 1,000 से ज़्यादा परिवार, जिनमें छोटे बच्चे और बुजुर्ग भी थे, अपने टूटे हुए घरों के पास ही तेज़ धूप में रहने को मजबूर हो गए। सरकार ने वादा किया था कि उन्हें नए पक्के फ्लैट दिए जाएंगे, लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला। केवल तिरपाल और लकड़ी से झोपड़ी बनाने की इजाज़त दी गई। यह कहा गया था कि जल्द ही पक्के घर बनाए जाएंगे, लेकिन सालों बाद भी कुछ नहीं बदला।

वहां रहने वाले लोगों की कोई ठीक से जनगणना तक नहीं की गई। जितने लोग वास्तव में वहां रहते थे, योजना में परिवारों की संख्या केवल 10,000 बताई गई, ताकि सरकार जिम्मेदारी से बच सके। असल में यह ताक़तवर लोगों की सुविधा और दिखावटी सुंदरता के लिए गरीबों को परेशान करना है। जब जलवायु परिवर्तन या संसाधनों की कमी का सारा दोष प्रवासी मजदूरों या हाशिये में रह रहे समुदायों पर मढ़ दिया जाता है तब यह सोच बहुत ही खतरनाक बन जाती है। यह वह जगह है जहां नस्लवाद, सांप्रदायिकता और पर्यावरण की झूठी चिंता इन व्यक्तियों के लिए मुसीबत बन जाती है। इसी सोच का एक खौफनाक उदाहरण 2019 में देखने को मिला, जब न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में एक व्यक्ति ने मस्जिद में गोलीबारी कर दी और 51 लोगों को मार डाला। अपने ऑनलाइन मैनिफेस्टो में उसने खुद को इको-फासिस्ट कहा और दावा किया कि प्रवासियों को खत्म करना ज़रूरी है ताकि पर्यावरण बच सके।
इसी सोच का एक खौफनाक उदाहरण 2019 में देखने को मिला, जब न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में एक व्यक्ति ने मस्जिद में गोलीबारी कर दी और 51 लोगों को मार डाला। अपने ऑनलाइन मैनिफेस्टो में उसने खुद को इको-फासिस्ट कहा और दावा किया कि प्रवासियों को खत्म करना ज़रूरी है ताकि पर्यावरण बच सके।
पर्यावरण की लड़ाई में महिलाओं की भूमिका

जब पर्यावरण से जुड़े आंदोलन करने की बात आती है तो उसमे सबसे ज्यादा महिलाएं और हाशिये में रह रहे व्यक्ति ही ज्यादा देखने को मिलते हैं क्योंकि पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं का ज्यादा प्रभाव हाशिये पर रह रहे लोगों पर ज्यादा होता है इसका एक उदाहरण साल 1973 का चिपको आंदोलन है जब किसान महिलाओं के एक समूह ने दुनिया को पेड़ों को गले लगाने वाले शब्द से परिचित कराया, जब उन्होंने पेड़ों को काटने से रोकने के लिए एक हिमालयी गांव में विरोध प्रदर्शन किया। जब लकड़हारे आए, तो महिलाएं पेड़ों को घेरकर चार दिनों तक डटी रहीं। यह आंदोलन वनों के विनाश के खिलाफ़ एक संगठित प्रतिरोध के रूप में पूरे भारत में फैल गया। उत्तर प्रदेश में, चिपको आंदोलन ने 1980 में उस राज्य के हिमालयी जंगलों में पेड़ों की कटाई पर 15 साल का प्रतिबंध लगवाने में कामयाबी हासिल की।
इसका दूसरा उदाहरण यह भी है जब साल 2022 को छत्तीसगड़ में हसदेव अरण्य के जंगलों को काटा जा रहा था तब वहां की महिलाओं ने एक बार फिर से चिपको आंदोलन को दोहराया यानि पेडों को बचाने के लिए आदिवासी महिलाएं पेड़ों के आस – पास घेरा बनाकर खड़ी हो गई ताकि पेड़ों को काटने से बचाया जा सके । टाइम द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भोपाल आपदा 1984, मध्य प्रदेश के मध्य भारतीय राज्य के एक शहर भोपाल में, ज़्यादातर मुस्लिम महिलाएं अपने और अपने परिवार के लिए न्याय की मांग करने के लिए सड़कों पर उतरीं, जो दुनिया की सबसे खराब औद्योगिक दुर्घटनाओं में से एक का शिकार बन गए। उस साल, भोपाल में यूनियन कार्बाइड कीटनाशक संयंत्र से लगभग 40 टन ज़हरीली गैस गलती से लीक हो गई थी जिससे लगभग 20,000 लोग मारे गए। कई हज़ार लोगों को स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं का सामना करना पड़ा जो महिलाएँ पर्दा में थीं, वे सड़कों पर उतर आईं। वे अभी भी लड़ रही हैं, उन्होंने आंदोलन को जीवित रखा है। वे अभी भी उचित मुआवज़ा पाने के लिए विरोध कर रही हैं, बच्चों पर प्रदूषण के निरंतर प्रभावों के बारे में जागरूकता बढ़ा रही हैं ।
जब साल 2022 को छत्तीसगड़ में हसदेव अरण्य के जंगलों को काटा जा रहा था तब वहां की महिलाओं ने एक बार फिर से चिपको आंदोलन को दोहराया यानि पेडों को बचाने के लिए आदिवासी महिलाएं पेड़ों के आस – पास घेरा बनाकर खड़ी हो गई ताकि पेड़ों को काटने से बचाया जा सके।
हरियाली के साथ इंसानियत ज़रूरी है

सच्चा पर्यावरणवाद वह होता है जो इंसानों और प्रकृति दोनों की भलाई को साथ लेकर चले। लेकिन जब पर्यावरण की रक्षा के नाम पर गरीबों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं या ट्रांसजेंडर समुदायों को ज़मीन से बेदखल किया जाता है या उनकी आजीविका छीनी जाती है, तो यह न्याय नहीं, अन्याय बन जाता है। जलवायु संकट का सबसे गहरा असर उन्हीं समुदायों पर होता है जो पहले से ही हाशिए पर हैं। इसलिए पर्यावरण की बात करते समय सबसे पहले उनकी आवाज़ों को सुनना और उनके अनुभवों को केंद्र में रखना ज़रूरी है। वरना यह आंदोलन एक नए तरह का दमन बन जाएगा, जो हरियाली की आड़ में लोगों की जिंदगियां उजाड़ता रहेगा।
आज भारत जैसे देश में जहां जलवायु संकट का सबसे बड़ा असर गरीब और वंचित समुदायों पर पड़ रहा है, वहां हरियाली के नाम पर उन्हीं लोगों को बेघर और बेरोजगार किया जा रहा है। हमें यह समझने की ज़रूरत है कि पर्यावरण की रक्षा, सामाजिक न्याय से अलग नहीं की जा सकती। एक ऐसा आंदोलन जो सिर्फ पेड़ों की चिंता करे लेकिन पेड़ों के नीचे रहने वाले इंसानों की नहीं, वह अधूरा और असंवेदनशील है। इसलिए समय आ गया है कि हम इको-फासिज़्म जैसी विचारधाराओं को पहचानें, उनका विरोध करें और एक ऐसा पर्यावरण आंदोलन खड़ा करें जिसमें हरियाली के साथ इंसानियत भी ज़िंदा रहे।