बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अपने एक हालिया फैसले में कहा कि कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (पॉश अधिनियम) के प्रावधान महिला अधिवक्ताओं (वकीलों) का अपने पुरुष समकक्षों के खिलाफ़ की गई शिकायतों पर लागू नहीं होते क्योंकि अधिवक्ताओं और बार काउंसिल के बीच कोई ‘नियोक्ता-कर्मचारी’ संबंध नहीं है। इस फैसले ने कानूनी हलकों और महिला अधिकारों के पैरोकारों के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है और इसके खिलाफ़ उनकी तीखी प्रतिक्रियाएं भी आयी हैं। इस फैसले में अदालत का तर्क एक संकीर्ण तकनीकी पहलू पर आधारित है।
चूँकि अधिवक्ता बार काउंसिल के नियोजित नहीं होते, इसलिए पॉश अधिनियम लागू नहीं हो सकता। लेकिन यह व्याख्या, कागज़ पर कानूनी रूप से उचित होते हुए भी, कानूनी पेशे में महिलाओं की सुरक्षा में एक महत्वपूर्ण बाधा है। महिला अधिवक्ता कार्यस्थल में सक्रिय भागीदार होती हैं। अदालतों में पेश होती हैं, चैंबर में काम करती हैं, पुरुष सहकर्मियों के साथ मुकदमों पर बहस करती हैं, और फिर भी, अगर उन्हें इस पेशेवर माहौल में उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, तो उन्हें पॉश अधिनियम के तहत दी गई मज़बूत और संरचित निवारण व्यवस्था का लाभ नहीं मिल पाता।
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अपने एक हालिया फैसले में कहा कि कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (पॉश अधिनियम) के प्रावधान महिला अधिवक्ताओं (वकीलों) का अपने पुरुष समकक्षों के खिलाफ़ की गई शिकायतों पर लागू नहीं होते।
इसके बजाय, न्यायालय ने निर्देश दिया कि ऐसी शिकायतों का समाधान अधिवक्ता अधिनियम, 1961, विशेष रूप से धारा 35 के तहत किया जाए, जो पेशेवर कदाचार के मामलों में अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रावधान करती है। हालांकि यह व्यवस्था, महत्वपूर्ण होते हुए भी, पॉश अधिनियम का विकल्प नहीं है। मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति संदीप वी मार्ने की पीठ ने यूएनएस महिला लीगल एसोसिएशन के साल 2017 में दायर जनहित याचिका को सुन रहे थे, जिसमें वकीलों के खिलाफ़ यौन उत्पीड़न की शिकायतों के हल के लिए स्थायी शिकायत निवारण तंत्र के गठन की मांग की गई थी।
पॉश अधिनियम का उद्देश्य

पॉश अधिनियम विशेष रूप से यौन उत्पीड़न की संवेदनशील प्रकृति से निपटने के लिए बनाया गया था, जो एक समयबद्ध, विशिष्ट, सर्वाइवर संवेदनशील व्यवस्था प्रदान करता है, जिसमें अंतरिम राहत, आईसीसी के नेतृत्व वाली जांच और प्रतिशोध न करने संबंधी सुरक्षा उपायों के प्रावधान शामिल हैं, जिन्हें अधिवक्ता अधिनियम प्राथमिकता नहीं देता। पॉश अधिनियम की धारा 2(o) “कार्यस्थल” को व्यापक रूप से परिभाषित करती है। इसमें कर्मचारी द्वारा रोजगार के दौरान या उसके परिणामस्वरूप देखी जाने वाली कोई भी जगह, आवास या घर, और कोई भी निजी या सार्वजनिक क्षेत्र का संगठन शामिल है। इसमें कार्यालय, शाखाएं, संस्थान और इकाइयां भी शामिल हैं, चाहे उनका कानूनी स्वरूप कुछ भी हो। यह परिभाषा एक कारण से व्यापक है। इसे विशाखा बनाम राजस्थान राज्य में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश को प्रतिबिंबित करने के लिए तैयार किया गया था, जहां न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि यौन उत्पीड़न से सुरक्षा अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है।
पॉश अधिनियम की धारा 2(o) “कार्यस्थल” को व्यापक रूप से परिभाषित करती है। इसमें कर्मचारी द्वारा रोजगार के दौरान या उसके परिणामस्वरूप देखी जाने वाली कोई भी जगह, आवास या घर, और कोई भी निजी या सार्वजनिक क्षेत्र का संगठन शामिल है।
महिला वकीलों को कार्यस्थल पर यौन हिंसा से सुरक्षा क्यों नहीं
यह निर्णय एक प्रकार से यह बताता है कि महिला वकील, न्याय व्यवस्था में प्रमुख भूमिका निभाने के बावजूद, अन्य व्यवसायों की महिलाओं के समान सुरक्षा की हकदार नहीं हैं। यह निर्णय एक खतरनाक मिसाल कायम करता है कि कानूनी बिरादरी में पेशेवर क्षेत्रों में इससे जुड़ी महिलाओं को सम्मान और सुरक्षा की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों के दायरे से बाहर रहती है। यह निर्णय कानूनी पेशे की कार्यप्रणाली के बारे में एक बुनियादी ग़लतफ़हमी को दिखाता है। हालांकि यह तथ्य है कि वकील बार काउंसिल के ‘कर्मचारी’ नहीं हैं, फिर भी वे एक कामकाजी माहौल में रहते है। वे चैंबर्स, अदालतों, बार एसोसिएशनों और मेंटरशिप संरचनाओं के भीतर काम करते हैं, जिनसे पेशेवर निर्भरता, सहकर्मी गतिशीलता और सत्ता का पदानुक्रम पैदा होता है।
महिला वकील, खासकर जूनियर, अक्सर वरिष्ठ पुरुष वकीलों के ‘मार्गदर्शन’ में काम करती हैं। वे ऐसे स्थानों पर काम करती हैं जहां मेंटरशिप और नियंत्रण, आत्मीयता और दबाव के बीच की रेखाएं अक्सर धुंधली हो जाती हैं। उनसे अलिखित नियमों का पालन करने, चैंबर्स में नियमित रूप से उपस्थित रहने, अदालत परिसर में उपस्थित रहने और बार के कार्यक्रमों में भाग लेने की अपेक्षा की जाती है। वे लगातार काम करती हैं, भले ही उन्हें वेतन न मिलता हो। यह कहना कि ऐसी महिलाएं पॉश का सहारा नहीं ले सकतीं क्योंकि उनके बीच कोई रोज़गार संबंध नहीं है, उनके पेशेवर जीवन की कार्यात्मक वास्तविकता को नकारना है। यह महिला वकील को नुकसान से बचाने के बजाय संस्था को जवाबदेही से बचाने के लिए है।
हालांकि यह तथ्य है कि वकील बार काउंसिल के ‘कर्मचारी’ नहीं हैं, फिर भी वे एक कामकाजी माहौल में रहते है। वे चैंबर्स, अदालतों, बार एसोसिएशनों और मेंटरशिप संरचनाओं के भीतर काम करते हैं, जिनसे पेशेवर निर्भरता, सहकर्मी गतिशीलता और सत्ता का पदानुक्रम पैदा होता है।
मानवाधिकार का उल्लंघन
बॉम्बे उच्च न्यायालय का यह फैसला सिर्फ़ कानूनी सुधार में एक चूक नहीं है बल्कि यह यह कानूनी औपचारिकता की आड़ में गरिमा और मानवाधिकार का संस्थागत हनन है। यह भारत के लैंगिक न्यायशास्त्र में एक कदम पीछे की ओर है, जो पेशेवर महिलाओं की एक पूरी श्रेणी को कार्यस्थल पर होने वाले लैंगिक दुर्व्यवहार से बचाने के लिए विशेष रूप से बनाए गए कानून के सुरक्षात्मक दायरे से बाहर कर देता है। उत्पीड़न-मुक्त कार्यस्थल संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार का अभिन्न अंग है। महिला वकीलों को पॉश सुरक्षा से वंचित करके, यह निर्णय उनकी गरिमा, शारीरिक स्वायत्तता और पेशेवर सुरक्षा की संवैधानिक गारंटी से समझौता करता है।

यह निर्णय कानूनी रूप से अनुचित, संवैधानिक रूप से त्रुटिपूर्ण और मानक रूप से खतरनाक है, विशेषकर ऐसे पेशे में जो पहले से ही अत्यधिक पदानुक्रमित, पुरुष-प्रधान और आंतरिक जवाबदेही के प्रति प्रतिरोधी है। पॉश अधिनियम केवल एक वैधानिक उपाय नहीं है। यह औपचारिक या अनौपचारिक, सभी कार्यस्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा के संवैधानिक दायित्व का विधायी कार्यान्वयन है। पॉश को प्रतिबंधात्मक और यंत्रवत तरीके से पढ़कर, न्यायालय इस संवैधानिक समझौते को कायम रखने में विफल रहा है।
बॉम्बे उच्च न्यायालय का यह फैसला सिर्फ़ कानूनी सुधार में एक चूक नहीं है बल्कि यह यह कानूनी औपचारिकता की आड़ में गरिमा और मानवाधिकार का संस्थागत हनन है।
अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35 की कमियां
उच्च न्यायालय का सुझाव है कि यौन उत्पीड़न की शिकायतों का समाधान अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के माध्यम से किया जा सकता है, जो ‘पेशेवर कदाचार’ के मामलों में अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रावधान करती है। हालांकि धारा 35 का यह विकल्प बेहद अपर्याप्त है। पहली बात, धारा 35 को लैंगिक क्षति या यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए कभी भी एक तंत्र के रूप में नहीं बनाया गया था। इसमें पॉश अधिनियम के तहत अनिवार्य संरचनात्मक सुरक्षा उपायों का अभाव है। इसमें समयबद्ध जांच की कोई आवश्यकता नहीं है, कोई जेंडर संतुलित आंतरिक समितियां नहीं हैं, और कोई सर्वाइवर सेंटर्ड ओरिएंटेशन नहीं है।
यह जांच और अनुशासनात्मक नियंत्रण की पूरी प्रक्रिया को बार काउंसिल के पुरुष-प्रधान गलियारों में रखता है, जिनमें से कई के पास लिंग-संवेदनशीलता प्रशिक्षण या पॉश सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता नहीं है। साथ ही यह महिला के सुरक्षा के अधिकार से ध्यान हटाकर पुरुष अधिवक्ता की पेशेवर स्थिति पर केंद्रित करता है, जो शारीरिक स्वायत्तता और गरिमा का मामला होना चाहिए था, उसे प्रतिष्ठा की उपयुक्तता के मुद्दे में बदल देता है।
उच्च न्यायालय का सुझाव है कि यौन उत्पीड़न की शिकायतों का समाधान अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के माध्यम से किया जा सकता है, जो ‘पेशेवर कदाचार’ के मामलों में अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रावधान करती है। हालांकि धारा 35 का यह विकल्प बेहद अपर्याप्त है।
सुरक्षा का अभाव

यह निर्णय वकालत के पेशे में एक भयावह मिसाल कायम है। यह महिला वकीलों—जो सत्ता के सामने सच बोलती हैं, जो कमज़ोर आवाज़ों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो रोज़ाना अदालतों में खड़ी होती हैं। यह उन्हें उसी सुरक्षा और अधिकार से वंचित कर देता है जिसकी पहुंच वे दूसरों को दिलाती हैं। रश्मि (बदला हुआ नाम) ने जब लॉ की पढ़ाई पूरी कर और वकालत की शुरुआत की तब उसने उच्चतम न्यायालय के एक सीनियर वकील के अंतर्गत काम शुरू किया। कुछ दिन बाद उस सीनियर वकील ने रश्मि को व्हाट्सप्प पर मैसेज भेजने शुरू किए। ये मैसेज गुड मॉर्निंग से होते हुए हालचाल और फिर रश्मि के निजी जीवन से संबंधित होने लगे।
ऑफिस में भी वे बहाने से रश्मि को अपने पास बुलाने लगे। रश्मि इन सबसे डर गयी। उसने उन्हें व्हाट्सप्प से ब्लॉक किया और काम छोड़ दिया। इसका समाधान पूरे वकालत के पेशे को पॉश अधिनियम से छूट देने में नहीं हो सकता। अगर पॉश अधिनियम कार्यस्थल की संरचनाओं और नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों पर निर्भर करता है, तो बार काउंसिल दस या उससे ज़्यादा सदस्यों वाले चैंबर्स को आंतरिक शिकायत समितियां गठित करने का निर्देश दे। कार्यस्थल विकसित हो चुका है, और इसलिए क़ानून की व्याख्या भी बदलनी चाहिए।

