जब पूरी दुनिया काम के घंटे कम कर बेहतर जीवन की ओर बढ़ रही है, तब भारत में कुछ राज्य सरकारें पुराने औद्योगिक दौर की नीतियों की ओर लौटती दिख रही हैं। हाल ही में कर्नाटक सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र में काम के घंटे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा है, जिससे राज्य के कामकाजी लोगों की ज़िंदगी में बड़ा बदलाव आ सकता है। खासकर महिलाओं के लिए यह काफी चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है क्योंकि परिवार और बच्चों की जिम्मेदारियों के साथ 12 घंटे काम करने का बोझ बहुत ज्यादा हो जाएगा। यह फैसला न सिर्फ काम के घंटे बढ़ाएगा, बल्कि नौकरी के तरीके, रोज़गार और लोगों की ज़िंदगी में काम और आराम के संतुलन पर भी असर डालेगा। सरकार और इस प्रस्ताव के समर्थकों का कहना है कि इससे प्रॉडक्टिविटी बढ़ेगी और कंपनियां बाज़ार की दौड़ में टिक पाएंगी, जिससे देश की अर्थव्यवस्था भी मज़बूत होगी।
वहीं कर्मचारी संघ और आलोचक इसे कर्मचारियों के शोषण का एक ज़रिया कह रहे हैं जो वर्क लाइफ बैलेंस को बिगाड़ कर इंसान के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल सकता है। यह प्रस्ताव भारत में पहले से ही लचीले श्रम क़ानून और कर्मचारियों के अधिकारों के लिए और ज्यादा ख़तरनाक साबित हो सकता है। जहां कानून होते हुए भी लोगों से तय किए गए न्यूनतम वेतन से कम पैसा देकर काम करवाया जाता है। काम के समय के बाद भी कई बार कर्मचारियों पर ऑफिस से जुड़े रहने का दबाव रहता है, चाहे वह सीधे तौर पर हो या फिर अप्रत्यक्ष रूप में हो। कॉरपोरेट कल्चर में पहले से ही लोग काम का दबाव ज्यादा होने के कारण ख़ुद पर और परिवार पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। ऐसे में काम के घंटे का और बढ़ाया जाना चिंता का विषय है।
कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार ने कर्नाटक दुकान और व्यावसायिक प्रतिष्ठान अधिनियम 1961 में बदलाव का एक प्रस्ताव रखा है जिसमें आईटी और दूसरे व्यावसायिक क्षेत्रों में काम करने के घंटे 10 से बढ़कर 12 किए जाने की योजना है।
क्या है पूरा मामला

कर्नाटक सरकार ने कर्नाटक दुकान और वाणिज्यिक प्रतिष्ठान अधिनियम, 1961 में बदलाव का प्रस्ताव रखा है, जिसके तहत आईटी और अन्य क्षेत्रों में रोज़ाना काम के घंटे 10 और ओवरटाइम मिलाकर 12 घंटे तक किए जा सकते हैं। अभी यह सीमा 9 घंटे और 3 महीनों में ओवरटाइम 50 घंटे है, जिसे 144 घंटे करने की योजना है। इस बदलाव से कर्मचारियों को तीन की जगह दो शिफ्ट में 12-12 घंटे काम करना पड़ सकता है, जिससे उन पर काम का बोझ और थकान दोनों बढ़ने की आशंका है।
काम के घंटे बढ़ाने का विरोध और महिला कर्मचारियों पर असर

कर्नाटक आईटी/आईटीईएस इंप्लॉयीज यूनियन (केआईटीयू) ने 12 घंटे काम के प्रस्ताव का विरोध किया है। यूनियन का कहना है कि इससे तीन की जगह दो शिफ्ट होंगी, जिससे 4.5 से 6.8 लाख लोगों की नौकरियां जा सकती हैं। सरकार कॉरपोरेट फायदे को प्राथमिकता दे रही है और कर्मचारियों के स्वास्थ्य और अधिकारों की अनदेखी कर रही है। इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार, 2024 में छपी स्टेट इमोशनल वेल बीइंग रिपोर्ट के मुताबिक कॉरपोरेट सेक्टर में काम करने वाले 25 साल से कम उम्र के 90 फीसद कर्मचारी ज़्यादा काम के घंटे होने की वजह से चिंता और तनाव जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहे हैं।
लंबे समय तक ऐसा चलने पर बर्नआउट और बीमारियों का खतरा बढ़ता है। इसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं पर पड़ेगा। हमारे समाज में घरेलू ज़िम्मेदारियां ज़्यादातर महिलाओं पर होती हैं। 2024 टाइम यूज़ सर्वे बताता है कि महिलाएं हर दिन 289 मिनट घरेलू कामों और 137 मिनट देखभाल में बिताती हैं, जबकि पुरुष 88 और 75 मिनट ही देते हैं। ऐसे में काम के घंटे बढ़ना महिलाओं के लिए और ज़्यादा तनावपूर्ण हो सकता है।
लंबे समय तक ऐसा चलने पर बर्नआउट और बीमारियों का खतरा बढ़ता है। इसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं पर पड़ेगा। हमारे समाज में घरेलू ज़िम्मेदारियां ज़्यादातर महिलाओं पर होती हैं। 2024 टाइम यूज़ सर्वे बताता है कि महिलाएं हर दिन 289 मिनट घरेलू कामों और 137 मिनट देखभाल में बिताती हैं, जबकि पुरुष 88 और 75 मिनट ही देते हैं।
इस तरह के बदलावों का सबसे ज्यादा असर कामकाजी महिलाओं पर पड़ता है। अक्सर कहा जाता है कि जो महिलाएं नौकरी करती हैं, वे अब सशक्त हो गई हैं और समाज में बराबरी पा चुकी हैं। लेकिन असली तस्वीर इससे बहुत अलग है। काम से लौटने के बाद भी ज़्यादातर महिलाओं को घर के सारे काम करने पड़ते हैं जैसे खाना बनाना, सफाई करना, बच्चों की देखभाल करना आदि। ऐसे में वे दफ़्तर और घर दोनों जगह की दोहरी ज़िम्मेदारी उठाती हैं। महिला और पुरुष दोनों बाहर जाकर काम करते हैं लेकिन जैसे ही घरेलू काम कि बात आती है तब सारी जिम्मेदारी महिलाओं को दे दी जाती है। ऐसे में काम के घंटे बढ़ा देना महिलाओं के लिए और भी ज्यादा तनावपूर्ण साबित हो सकता है।
हसल कल्चर और टॉक्सिक प्रॉडक्टिविटी

आज के भौतिकवादी युग में हर एक इंसान एक दूसरे से आगे निकलना चाहता है। ऐसे में हसल कल्चर यानि लोग एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा काम करने को ही सफलता की गारंटी समझने लगे हैं। सरकार और बड़ी-बड़ी कंपनियों के उद्योगपति भी बढ़ावा दे रहे हैं । इसका एक उदाहरण यह देखा जा सकता है जब जाने-माने उद्योगपति और इन्फोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति ने कहा था कि भारत की वर्क प्रॉडक्टिविटी यानि कार्य उत्पादकता दुनिया में सबसे कम है। इसलिए मेरा अनुरोध है कि हमारे युवाओं को कहना चाहिए, यह मेरा देश है, मैं सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहता हूं। ऐसे कई उदाहरण आये दिन सामने आते रहते हैं। इस तरह के बयानों से हसल कल्चर को और बढ़ावा मिलता है।
साल 2024 के टाइम यूज़ सर्वे के अनुसार,महिलाएं हर दिन घर के कामों में 289 मिनट बिताती हैं, जबकि पुरुष सिर्फ़ 88 मिनट ही बिताते हैं। महिलाएं परिवार , बच्चों और बजुर्गों की देखभाल में रोजाना 137 मिनट बिताती हैं, जबकि पुरुष 75 मिनट ही यह काम कर पाते हैं।
इससे यह संदेश फैलाता है कि सफलता पाने के लिए हर कीमत पर ज़्यादा काम करना ही जरूरी है। इससे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक सप्ताह में 55 घंटे से ज़्यादा काम करना किसी के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। कार्यस्थल पर कई कर्मचारी ओवरटाइम की समस्या का सामना करते हैं फिर भी, उन्हें बहुत कम या कोई अतिरिक्त वेतन नहीं दिया जाता है। डवल्यूएचओ और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के एक संयुक्त अध्ययन के अनुसार, भारत उन देशों में शामिल है जहां काम पर ओवरटाइम के कारण सबसे अधिक मौतें होती हैं।
हालांकि स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक स्टडी में पाया गया कि ज़्यादा घंटे काम करने से प्रॉडक्टिविटी में कमी आती है। रिसर्च के दौरान देखा गया कि सप्ताह में 60 घंटे काम करने वाले कर्मचारियों की प्रॉडक्टिविटी सप्ताह में 40 घंटे काम करने वाले कर्मचारियों की तुलना में दो तिहाई कम पाई गई। इसके पीछे वजह थी काम के अधिक घंटे होने से कर्मचारियों को आराम करने और सोने का समय कम मिला, जिस वजह से उनमें थकान, तनाव और बेचैनी बनी रही। इसका नतीजा यह हुआ कि ज्यादा घंटे काम करने के बावजूद भी प्रॉडक्टिविटी में कमी आई है।
डवल्यूएचओ और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के एक संयुक्त अध्ययन के अनुसार, भारत उन देशों में शामिल है जहां काम पर ओवरटाइम के कारण सबसे अधिक मौतें होती हैं।
दुनियाभर में बदलता रुझान

दुनिया के विकसित और खुशहाली सूचकांक में टॉप करने वाले देश वर्क-लाइफ बैलेंस और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं पर ख़ास ध्यान दे रहे हैं। यहां काम के घंटे कम करने और लोगों की शारीरिक और मानसिक सेहत को प्राथमिकता देने पर काम किया जा रहा है और उसका नतीजा भी अच्छा देखने को मिल रहा है। नॉर्वे, स्वीडन और फिनलैंड जैसे देश जो न सिर्फ़ खुशहाली बल्कि स्वास्थ्य, पर्यावरण और प्रॉडक्टिविटी में भी आगे हैं वहां काम के घंटे दुनिया में सबसे कम यानी हफ़्ते में 37 से 40 के बीच में हैं। यहां तक कि जर्मनी और नीदरलैंड जैसे विकसित देशों में भी हफ़्ते में काम के घंटों का आंकड़ा 29-35 के आसपास ही है। यानी दुनिया में जहां काम के घंटे कम करने की सोच तेजी से बढ़ रही है वहीं भारत में इस तरह से काम के घंटे बढ़ाने की योजना बनाई जा रही है। यह न तो कंपनियों के हित में है, न ही कर्मचारियों के और भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में बिना आम जनता की राय लिए इतना बड़ा फैसला लेना सवालों के घेरे में खड़ा करता है।
क्या हो सकता है समाधान
भारत दुनिया का सबसे ज़्यादा आबादी वाला ही नहीं,बल्कि सबसे ज़्यादा युवा आबादी वाला देश भी बन चुका है। इतनी बड़ी आबादी को जीवनयापन के लिए रोजगार की सख़्त ज़रूरत है। ऐसे में दिन के काम के घंटे 10 से बढ़ाकर 12 होने से कंपनियों में 12-12 घंटे की दो शिफ्ट करने से बेरोजगारी और ज़्यादा बढ़ेगी। इसके साथ ही जो रोजगार में हैं उनकी भी शारीरिक और मानसिक सेहत पर असर होगा। क्योंकि इंसान 12 घंटे काम करेगा तो उसके पास अपनी देखभाल या शौक पूरा करने, घूमने-फिरने, परिवार और दोस्तों के लिए न तो वक़्त बचेगा न ही इच्छा। ऐसे में न सिर्फ़ तनाव, चिंता, डिप्रेशन, बर्नआउट जैसी मानसिक बल्कि शारीरिक बीमारियों का भी खतरा बढ़ेगा जो न सिर्फ़ उस इंसान बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर डालेगी।
काम के घंटे बढ़ाने के बजाय ऐसे उपायों की ज़रूरत है जो कंपनियों और कर्मचारियों दोनों के हित में हों। जैसे—नए स्किल्स की ट्रेनिंग, रिमोट या हाइब्रिड वर्क मॉडल, और कार्यबल में विविधता बढ़ाना। प्रोडक्टिविटी के लिए ज़्यादा घंटे नहीं, बल्कि बेहतर काम के माहौल और कर्मचारियों की सेहत पर ध्यान देना ज़रूरी है। कर्नाटक का 12 घंटे कार्यदिवस प्रस्ताव सिर्फ कानूनी बदलाव नहीं, बल्कि श्रम, स्वास्थ्य, लैंगिक समानता और मानवाधिकार से जुड़ी गंभीर चिंता है। जब दुनिया वर्क-लाइफ बैलेंस सुधारने की दिशा में आगे बढ़ रही है, भारत का यह कदम पीछे ले जाने वाला है। इससे प्रोडक्टिविटी घटेगी, थकान और तनाव बढ़ेगा, खासकर महिलाओं और युवाओं पर इसका गहरा असर पड़ेगा। इसलिए ज़रूरी है कि किसी भी नीति के पहले सभी पक्षों से संवाद हो और ऐसा रास्ता निकले जो विकास के साथ-साथ इंसानी गरिमा और न्याय को भी सुरक्षित रखे।