इंटरसेक्शनलजेंडर भारत की गोद लेने की प्रणाली: देरी, भेदभाव और सामाजिक पूर्वाग्रह

भारत की गोद लेने की प्रणाली: देरी, भेदभाव और सामाजिक पूर्वाग्रह

आंकड़ें बताते हैं कि साल 2021 में, CARA पोर्टल पर 26,734 गोद लेने के इच्छुक माता-पिता पंजीकृत हुए, और 2,430 बच्चे कानूनी रूप से गोद लेने की स्थिति में थे। दूसरे शब्दों में, साल 2021 में गोद लेने की स्थिति में मौजूद प्रत्येक बच्चे के लिए 11 भावी माता-पिता थे।

हाल ही में द हिन्दू में प्रकाशित रिपोर्ट में यह पाया गया कि भारत में गोद लेने के लिए मौजूद हर बच्चे के लिए, 13 संभावित माता-पिता कतार में इंतज़ार करते हैं। साथ ही संभावित माता-पिता को गोद लेने के लिए रेफ़रल मिलने में लगने वाला औसत विलंब बढ़कर तीन साल से ज़्यादा हो गया है। देश की नोडल दत्तक ग्रहण एजेंसी, केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (कारा) वर्षों से गोद लेने की प्रक्रिया को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने में संघर्ष कर रही है। हालांकि बड़ी संख्या में माता-पिता अनाथ बच्चों को गोद लेने के इच्छुक हैं, लेकिन केवल सीमित संख्या और परिस्थितियों में बच्चों को ही कानूनी रूप से गोद लेने की अनुमति मिल पाती है। यह असंतुलन अनदेखा नहीं किया जा सकता। साल 2022 में, एक संसदीय पैनल ने इस असंतुलन को एक ‘विरोधाभासी स्थिति’ कहा था और 2023 में, सर्वोच्च न्यायालय ने ‘समय लेने वाली’ गोद लेने की प्रक्रिया पर ‘नाराजगी व्यक्त’ की थी। इसके बावजूद 2 वर्ष के बाद भी स्थिति वहीं की वहीं हैं।

द हिंदू के अनुसार के आरटीआई आवेदन के माध्यम से मिले आंकड़े बताते हैं कि यह असमानता 2025 में भी जारी रहेगी, साथ ही यह अंतर और भी बढ़ जाएगा। आंकड़ें बताते हैं कि साल 2021 में, CARA पोर्टल पर 26,734 गोद लेने के इच्छुक माता-पिता पंजीकृत हुए, और 2,430 बच्चे कानूनी रूप से गोद लेने की स्थिति में थे। दूसरे शब्दों में, साल 2021 में गोद लेने की स्थिति में मौजूद प्रत्येक बच्चे के लिए 11 भावी माता-पिता थे। इस साल भी, जुलाई 2025 के मध्य तक, गोद लेने के इच्छुक माता-पिता की संख्या बढ़कर 36,381 हो गई, जो 2021 की तुलना में लगभग 9,600 की वृद्धि है। वहीं गोद लेने के लिए कानूनी रूप से स्वतंत्र बच्चों की संख्या बढ़कर 2,652 हो गई है – जो 2021 की तुलना में केवल 222 अधिक है। वर्तमान में, गोद लेने के लिए स्वतंत्र प्रत्येक बच्चे के लिए 13 संभावित माता-पिता हैं।

आंकड़ें बताते हैं कि साल 2021 में, कारा पोर्टल पर 26,734 गोद लेने के इच्छुक माता-पिता पंजीकृत हुए, और 2,430 बच्चे कानूनी रूप से गोद लेने की स्थिति में थे। दूसरे शब्दों में, साल 2021 में गोद लेने की स्थिति में मौजूद प्रत्येक बच्चे के लिए 11 भावी माता-पिता थे।

बच्चे गोद लेना आखिरी सहारा होता है

भारत में, जब बाकी सब प्रकार विफल हो जाता है, तो गोद लेना माता-पिता बनने का अंतिम उपाय माना जाता है। गोद लिए गए बच्चों की तुलना में जैविक संतानों को ज़्यादा प्राथमिकता दी जाती है। ऐसे में, किसी दंपत्ति के लिए गोद लेने का विकल्प चुनना और ऐसे बच्चे का माता-पिता बनना, जो जैविक रूप से उनका नहीं है, बहुत बड़ी कदम है। आंकड़ें बताते हैं कि साल 2025 में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में संभावित माता-पिता की संख्या 50 फीसद से ज़्यादा होगी। संभावित माता-पिता को गोद लेने के लिए रेफरल मिलने में लगने वाला औसत विलंब 2017 में एक वर्ष से बढ़कर 2022 तक तीन वर्ष हो गया है, जो वर्तमान में लगभग 3.5 वर्ष है। अगर कारा जल्द ही कार्रवाई नहीं करता है, तो आने वाले वर्षों में यह विलंब और बढ़ जाएगा और माता-पिता अवैध रूप से बच्चा गोद लेने के लिए मजबूर होंगे, जैसा कि संसदीय समिति ने चेतावनी दी है।

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया

आज के समय में युगल दंपत्तियों के सामने माता-पिता बनना एक बढ़ी चुनौती बन गया है। महिलाओं और पुरुषों दोनों में पहले की तुलना में इनफर्टिलिटी बढ़ गया है। साथ ही युवा अब बच्चे के अलावा अपने करियर पर फोकस कर रहे हैं। देर से शादी भी माता-पिता न बनने का एक कारण है। ऐसे में गोद लेने के इच्छुक माता-पिता की बढ़ती संख्या और गोद लिए जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ता अंतर एक कारण हो सकता है। इस बारे में द हिन्दू में छपी रिपोर्ट में पैडमी की संस्थापक गायत्री अब्राहम कहती हैं कि गोद लेने का विकल्प चुनने वाले लोगों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। इनफर्टिलिटी जैसे मुद्दे अब माता-पिता के गोद लेने पर विचार करने के एकमात्र कारण नहीं रह गए हैं। हमारे देश में जहां 2020 की विश्व अनाथ रिपोर्ट के अनुसार अनुमानित 3.1 करोड़ बच्चे अनाथ हैं, यह तथ्य कि केवल कुछ हज़ार बच्चों को ही गोद लेने के लिए स्वतंत्र पाया गया, उचित ठहराना मुश्किल है।

द हिन्दू में छपी रिपोर्ट में पैडमी की संस्थापक गायत्री अब्राहम कहती हैं कि गोद लेने का विकल्प चुनने वाले लोगों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। इनफर्टिलिटी जैसे मुद्दे अब माता-पिता के गोद लेने पर विचार करने के एकमात्र कारण नहीं रह गए हैं।

विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के सामने आने वाली चुनौतियां

विशेष आवश्यकता वाले बच्चे कई वर्षों तक गोद लिए जाने का इंतज़ार करते हैं। इन बच्चों के लिए गोद लेने का घर ढूंढना कहीं ज़्यादा मुश्किल होता है। विकलांग बच्चे का पालन-पोषण वैवाहिक और पारिवारिक रिश्तों पर तनाव और दबाव का कारण बन सकते हैं अगर संभावित माता-पिता को इस प्रक्रिया में सही जानकारी और सहायता न मिले। इसके अलावा, विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को और भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें सामाजिक कलंक और भेदभाव भी शामिल हैं। गहरी सांस्कृतिक मान्यताओं में छिपी उनकी क्षमताओं और संभावनाओं के बारे में प्रचलित गलत धारणाएं अक्सर उनकी स्वीकृति में बाधा डालती है।

तस्वीर साभार: Scroll.in

समाज में तिरस्कार के डर से भी भावी माता-पिता ऐसे बच्चों को गोद लेने से बचते हैं। वहीं विकलांग बच्चों की ज़रूरतों की भी उपेक्षा की जाती है। दत्तक ग्रहण विनियमों का विनियमन 5(8) तीन या अधिक बच्चों वाले दम्पतियों को गोद लेने की अनुमति नहीं देता है, लेकिन विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए इस संबंध में एक अपवाद बनाता है। ऐसे मामलों में यह समझ आता है कि सरकार का नजरिया ये नहीं कि बच्चे गोद लिए जाने चाहिए बल्कि ऐसे अपवाद बनाकर वह यह उदाहरण पेश करता है कि विकलांग बच्चों को गोद लेने वाले जोड़े कोई अनोखा काम कर रहे हैं। ऐसे में इन बच्चों को छोड़ देने कोई संभावना भी ज्यादा होती है।

सरकार विकलांग बच्चों की चिकित्सा, शिक्षा और पुनर्वास संबंधी ज़रूरतों का ध्यान रखने में विफल रहा है और इसके बजाय उनकी स्थिति को गोद लेने के बाज़ार में लाने के अवसर में बदलने का विकल्प चुना है। यहां तक कि साधारण रूप से इलाज की जा पाने वाली विकलांगता वाले बच्चों को भी एक माता-पिता से दूसरे माता-पिता को सौंप दिया जाता है, जिनके पास ऐसे सुधार और पुनर्वास के लिए आवश्यक चिकित्सा प्रक्रिया में निवेश करने की आर्थिक क्षमता हो सकती है। संसदीय समिति ने कहा था कि बड़े बच्चों और विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों को आमतौर पर भारतीय माता-पिता गोद लेने के लिए पसंद नहीं करते। इसके अलावा, देरी से उस बच्चे के लिए, जो इतने लंबे समय से संस्था में रह रहा है, दूसरे परिवार के अनुसार खुद को ढालना और भी मुश्किल हो जाएगा।

दत्तक ग्रहण विनियमों का विनियमन 5(8) तीन या अधिक बच्चों वाले दम्पतियों को गोद लेने की अनुमति नहीं देता है, लेकिन विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए इस संबंध में एक अपवाद बनाता है। ऐसे मामलों में यह समझ आता है कि सरकार का नजरिया ये नहीं कि बच्चे गोद लिए जाने चाहिए बल्कि ऐसे अपवाद बनाकर वह यह उदाहरण पेश करता है

लड़कों की तुलना में लड़कियों को लिया जा रहा है गोद

तस्वीर साभार: The Indian Express

कारा के निदेशक के मार्च 2024 में सर्वोच्च न्यायालय में दायर हलफनामे के अनुसार, हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम (हामा) के तहत 2021 से 2023 के बीच 11 राज्यों में 18 वर्ष तक की आयु के कुल 15,536 बच्चों को गोद लिया गया। इस समय के दौरान संम्भावित माता-पिता ने 6,012 लड़कों की तुलना में 9,474 लड़कियों को गोद लिया। यह सच है कि हालिया समय में लड़कियों को लड़कों से अधिक गोद लिया जाने लगा है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि लोगों की लड़कियों को लेकर सोच में पूरी तरह से बदलाव आया है। यह घटना इसलिए है क्योंकि राज्य के गोद लेने वाले केंद्रों में लड़कियों की संख्या ज़्यादा है। विशेषज्ञों के अनुसार, इन केंद्रों में लड़कियों की संख्या ज़्यादा होने का एक बड़ा कारण सामाजिक पूर्वाग्रह और लड़कों को ज़्यादा महत्व देना है।

हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट में गैर सरकारी संस्था हक़: सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स की सह-संस्थापक और कार्यकारी निदेशक भारती अली कहती हैं कि ज़्यादा लड़कियों की उपलब्धता के कारण उन्हें गोद लेने की संख्या बढ़ रही है। यह वृद्धि शायद इसलिए है क्योंकि ज़्यादा लड़कियां उपलब्ध हैं, ज़्यादा बेटियों को छोड़ दिया जाता है।

लड़का पैदा करने की चाह में अमूमन जोड़े अधिक संख्या में बच्चे पैदा करते हैं और यदि उनकी लड़की होती है तो उसे छोड़ दिया जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि लड़कों की तुलना में ज़्यादा लड़कियों को छोड़ा जाता है, जिससे उनके गोद लेने की संख्या में वृद्धि हुई है। हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट में गैर सरकारी संस्था हक़: सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स की सह-संस्थापक और कार्यकारी निदेशक भारती अली कहती हैं कि ज़्यादा लड़कियों की उपलब्धता के कारण उन्हें गोद लेने की संख्या बढ़ रही है। यह वृद्धि शायद इसलिए है क्योंकि ज़्यादा लड़कियां उपलब्ध हैं, ज़्यादा बेटियों को छोड़ दिया जाता है।

गोद लेने की प्रक्रिया में बढ़ती देरी, विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों की अनदेखी और लड़कियों की अधिक संख्या—ये सभी संकेत करते हैं कि भारत की दत्तक ग्रहण व्यवस्था में गहरी खामियां हैं। जब लाखों अनाथ बच्चे उपलब्ध हैं और हज़ारों माता-पिता उन्हें अपनाना चाहते हैं, तब व्यवस्था की जटिलताएं और असंवेदनशीलताएं इस मानवीय आवश्यकता को बाधित करती हैं। ज़रूरत है कि नीति-निर्माता, संस्थाएं और समाज मिलकर गोद लेने की प्रक्रिया को सरल, पारदर्शी और समावेशी बनाएं, ताकि हर बच्चे को एक सुरक्षित और स्नेहमयी घर मिल सके।

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