भारत विविधताओं से भरा देश है, जहां भाषा, धर्म, जाति, जगह और समुदाय की अनेक परतें हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा हैं। इसी विविधता का एक बड़ा हिस्सा आदिवासी समुदाय भी है, जिनकी अपनी अलग पहचान, जीवन शैली, सामाजिक व्यवस्थाएं और परंपराएं हैं। ये परंपराएं एक ओर सांस्कृतिक धरोहर की तरह हैं, तो दूसरी ओर इनमें कई ऐसे तत्व भी मौजूद हैं जो आज के आधुनिक, संवैधानिक भारत को सवालों के घेरे में खड़ा करते हैं, खासकर तब, जब बात महिलाओं के अधिकारों से जुड़ी हुई हो । भारतीय संविधान में साफ़ तौर पर बताया गया है कि भारत सभी नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की गारंटी देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में समानता का अधिकार और अनुच्छेद 15 में जेंडर, जाति, धर्म आदि के आधार पर भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा जैसे प्रावधान इस बात को सिद्ध करते हैं कि हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी समुदाय से हो, उसे बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए। लेकिन क्या असल में हर भारतीय नागरिक को वह समानता मिलती है जिसकी बात संविधान करता है?
जब हम आदिवासी महिलाओं की स्थिति पर नज़र डालते हैं, तो यह साफ पता चलता है कि कानूनी समानता और वास्तविक समानता के बीच एक लंबा फासला है। खासकर संपत्ति के अधिकार के मामले में आदिवासी महिलाएं अक्सर सामुदायिक परंपराओं के नाम पर वंचित कर दी जाती हैं। समाज और परिवार, दोनों ही जगह पर यह मान लिया जाता है कि संपत्ति का अधिकार केवल पुरुषों का ही अधिकार है और महिलाएं केवल बेटी, बहू और पत्नी के रूप में देखी जाती हैं लेकिन एक उत्तराधिकारी के रूप में नहीं हैं। लेकिन इसी अन्याय के खिलाफ एक साहसी आवाज़ उठी छत्तीसगढ़ की एक आदिवासी महिला के केस की। साल 1994 में, जब उन्होंने अपने अधिकार के लिए कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, तब शायद उन्हें भी यह अंदाज़ा नहीं था कि उनकी यह कानूनी लड़ाई एक दिन देश की लाखों आदिवासी महिलाओं के लिए रास्ता बनाएगी। उस समय यह एक छोटा सा पारिवारिक संपत्ति विवाद माना गया था, लेकिन यह दरअसल में एक बड़े सामाजिक ढांचे को चुनौती देने वाला मामला बन गया।
यह मामला एक मृत गोंड आदिवासी समुदाय की महिला के कानूनी उत्तराधिकारियों से जुड़े विवाद से शुरू हुआ था। वह महिला अपने नाना की पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा चाहती थी लेकिन उसके भाइयों ने आदिवासी रीति-रिवाजों का हवाला देते हुए दावे का विरोध किया।
क्या है पूरा मामला ?

यह मामला गोंड आदिवासी समुदाय की एक मृत महिला के कानूनी उत्तराधिकारियों से जुड़े विवाद से शुरू हुआ था। वह अपने नाना की पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा चाहती थी लेकिन उसके भाइयों ने आदिवासी रीति-रिवाजों का हवाला देते हुए दावे का विरोध किया, जिनमें महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित रखा गया था। द वायर के मुताबिक सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय दस्तावेज में दी गई पृष्ठभूमि की जानकारी के अनुसार, यह मामला साल 1992 में उनके उत्तराधिकारियों रामचरण और अन्य परिजनों ने मिलकर निचली अदालत या स्थानीय अदालत में दायर किया था, लेकिन अदालत ने इस मामले को इस आधार पर खारिज कर दिया यह कहकर कि गोंड समुदाय की परंपरा के अनुसार बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं दिया जाता है, और साथ ही परिवार यह भी साबित नहीं कर पाया कि वे हिंदू धर्म की मान्यता प्राप्त उत्तराधिकार प्रथाओं का पालन करते हैं, जिनमें बेटियों को संपत्ति में अधिकार प्राप्त होता है।
प्रथम अपीलीय न्यायालय, जहां यह मामला निचली अदालत या स्थानीय न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील के रूप में पहुंचा, उसने भी साल 2008 में अपने फैसले में निचली अदालत के निर्णय को ज्यों का त्यों बरकरार रखा। इसके बाद, साल 2009 में उन्होंने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में अपील की वहां भी कोई सुनवाई नहीं हुई। इसके बाद साल 2022 में, उच्च न्यायालय ने भी यही रुख अपनाया और स्थानीय अदालत के फैसले को सही ठहराया। अदालत ने कहा कि रिकॉर्ड में ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे यह साबित हो सके कि परिवार ने हिंदू परंपराओं को अपनाया है, जिसके अंतर्गत महिलाओं को संपत्ति में अधिकार प्राप्त होता है। इस तरह, परंपरा और प्रमाण के अभाव में महिला का उत्तराधिकार का यह दावा लगातार तीन स्तरों पर खारिज होता रहा, जब तक यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंचा।
यह मामला साल 1992 में एक आदिवासी महिला के उत्तराधिकारियों रामचरण और अन्य परिजनों ने मिलकर स्थानीय अदालत में दायर किया था, लेकिन अदालत ने इस मामले को इस आधार पर खारिज कर दिया कि गोंड समुदाय की परंपरा के अनुसार बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं दिया जाता।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक 17 जुलाई 2025 को, सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि आदिवासी समुदाय की महिलाओं को भी अपने परिवार की पैतृक संपत्ति में समान अधिकार है। न्यायालय ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें 2022 में अपीलकर्ता को उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करने के लिए किसी विशेष प्रथागत कानून के अभाव का हवाला दिया गया था। द इंडियन ट्राइबल के अनुसार, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची, पीठ ने कहा कि महिलाओं को पैतृक संपत्ति से वंचित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण है और समानता के अधिकार का उल्लंघन है। उन्होंने अनुच्छेद 14 का हवाला दिया, जो कानून के सामने समानता की गारंटी देता है, और अनुच्छेद 15(1) जिसमें कहा गया है कि राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
यह, अनुच्छेद 38 और 46 के साथ, संविधान की सोच, मूल्य और भावना को दिखाता है। जो यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं के साथ कोई भेदभाव न हो। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि आदिवासी महिलाओं को उनकी विरासत से वंचित कर दिया जाना चाहिए। पोलिटिकल साइंस सोलयूशन के मुताविक न्यायालय ने दिसंबर 2024 में की गई अपनी अपील को दोहराया जिसमें संसद से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन करने का आग्रह किया गया था ताकि अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं को समान उत्तराधिकार का अधिकार साफ़ तौर से प्रदान किया जा सके। पीठ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि संविधान अपनाने के 70 साल बाद भी आदिवासी महिलाओं को बिना वसीयत के उत्तराधिकार से वंचित रखना अस्वीकार्य और अन्यायपूर्ण है। यह फैसला सिर्फ एक कानूनी बात नहीं है, बल्कि यह पुरुष प्रधान समाज को यह समझाने वाला कदम है कि अब आदिवासी महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। यह बराबरी और न्याय की ओर एक मजबूत पहल है।
द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक 17 जुलाई 2025 को, सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि आदिवासी समुदाय की महिलाओं को भी अपने परिवार की पैतृक संपत्ति में समान अधिकार है।
आदिवासी महिलाओं की दोहरी लड़ाई

यह फैसला आदिवासी महिलाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि जब किसी महिला के पास भूमि का अधिकार नहीं होता है, तब महिलाओं को कई बार आर्थिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। रिसर्च गेट के एक अध्य्यन के मुताबिक़, असम के बोडोलैंड क्षेत्र में यह देखा गया कि महिलाओं को जमीन या सम्पति का अधिकार न मिलने से आदिवासी परिवारों के रोजगार और बच्चों की पढ़ाई पर भी असर पड़ता है। यह अध्ययन तीन आदिवासी समुदायों बोडो, राभा और गारो के 384 परिवारों पर किया गया था। इसमें पाया गया कि 11.46 फीसद आदिवासी समुदाय के लोग पूरी तरह से भूमिहीन हैं यानी उनके पास कोई ज़मीन नहीं है और जिनके पास है वहां ज़मीन पर पुरुषों का अधिकार ज़्यादा है, उनके पास करीब 64.32 फीसद ज़मीन है। जबकि महिलाओं के पास केवल 4.68 फीसद ज़मीन का अधिकार है। डेक्कन हेराल्ड में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं के पास दुनिया की 20 प्रतिशत से भी कम भूमि का स्वामित्व है। लगभग 43 प्रतिशत महिलाएं खेती का काम करती हैं, फिर भी 161 देशों में से केवल 37 देशों में ही भूमि के स्वामित्व का अधिकार देने वाले कानून लागू हो पाए हैं।
ज़्यादातर महिलाएं ज़मीन की मालिक नहीं होतीं, जिससे उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत होने में मुश्किल होती है। मीडियम पत्रिका के मुताबिक भारत में दुनिया की सबसे बड़ी आदिवासी आबादी रहती है। देश की कुल आबादी में आदिवासियों की संख्या लगभग 8.6 फीसद है। वे देश के सबसे हाशिए पर रहने वाले समुदायों में से एक हैं। आदिवासी समुदाय में साक्षरता दर काफी कम है साल 2011 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों की साक्षरता दर 59 फीसद थी, जबकि देश की कुल साक्षरता दर 73 फीसद थी। आदिवासी समुदाय शिक्षा के मामले में बाकी देशों से पीछे है। इस संबंध में जनजातीय बच्चों की भागीदारी का स्तर बहुत कम है। महिलाओं का कम पढ़ा – लिखा होना भी उन्हें उनके अधिकारों तक पहुंच बनाने में बाधा उत्तपन करता है।
द इंडियन ट्राइबल के अनुसार, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची, पीठ ने कहा कि महिलाओं को पैतृक संपत्ति से वंचित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण है और समानता के अधिकार का उल्लंघन है।
इस फैसले का महत्व क्या है ?

सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला केवल एक महिला की कानूनी जीत नहीं है, बल्कि लाखों आदिवासी महिलाओं के लिए समानता और न्याय की दिशा में एक निर्णायक कदम है। इस निर्णय ने साफ़ कर दिया कि परंपरा चाहे जैसी भी हो, वह संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों से ऊपर नहीं हो सकती है। यह फैसला बताता है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहां संविधान सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देता है, वहां आदिवासी महिलाओं को भी उनके पैतृक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
यह निर्णय आदिवासी समाज में पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी सोच और संपत्ति के अधिकारों में जेंडर आधारित भेदभाव या लैंगिक असमानता को सीधे तौर पर चुनौती देता है। साथ ही यह उस सामाजिक बदलाव का संकेत भी है, जहां महिलाएं अब सिर्फ परिवार की देखभाल करने वाली नहीं, बल्कि भूमि और संसाधनों की कानूनी मालिक भी मानी जाएंगी। इससे न केवल महिलाओं की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी, बल्कि उनके आत्मसम्मान, निर्णय लेने की क्षमता और सामाजिक स्थान में भी सकारात्मक परिवर्तन आएगा। लेकिन परिवर्तन तब ही आ सकता है जब महिलाओं को कानून के डर से नहीं बल्कि समानता के आधार पर एक इंसान के तौर पर बराबरी के अधिकारों में शामिल किया जाए।

