साहित्य का क्षेत्र शुरू से ही पुरुषों का बोलबाला रहा है । जहां लंबे समय तक लेखन, विचार और अभिव्यक्ति का अधिकार लगभग पूरी तरह पुरुषों के हाथों में था। महिलाओं की आवाज़ को या तो दबा दिया गया, या फिर उन्हें घर और परिवार तक सीमित कर दिया गया। महिलाओं को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था। लेकिन भारतीय साहित्य के इतिहास में कुछ नाम ऐसे भी हैं जिन्होंने न केवल लेखन के माध्यम से समाज को एक नई दिशा दी, बल्कि अपनी उपस्थिति से उस समय की रूढ़ियों और सीमाओं को भी चुनौती दी। नलिनी बाला देवी ऐसा ही एक नाम हैं। जब महिलाओं का सार्वजनिक साहित्य में भाग लेना और अपनी बात खुल कर सबके सामने रख पाना काफी मुश्किल माना जाता था। ऐसे समय में वे असम की पहली प्रमुख महिला कवयित्री थीं, जिन्होंने महिलाओं के जीवन, भावनाओं, समाज और संस्कृति को बेहद संवेदनशील और सशक्त तरीके से अपनी कविताओं में जगह दी। उनका लेखन उस दौर में महिलाओं के लिए एक नई राह दिखाने जैसा था। उन्होंने न केवल लिखा बल्कि महिलाओं को भी अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए प्रेरित किया।
शुरुआती जीवन, शिक्षा और संघर्ष
नलिनी बाला देवी का जन्म 23 मार्च 1898 को असम के गुवाहाटी शहर में हुआ था। वे एक ऐसे परिवार में पली-बढ़ीं जहां शिक्षा और साहित्य का वातावरण था। उनके पिता कर्मवीर नवीन चंद्र बोरदोलोई एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने नलिनी को पढ़ाई-लिखाई के लिए हमेशा प्रेरित किया। नलिनी बचपन से ही संवेदनशील और कल्पनाशील थीं। नलिनी प्रकृति, किताबों और कविता की दुनिया में खोई रहती थीं। उन्होंने बहुत छोटी उम्र में कविता लिखना शुरू कर दिया था। जब वह 10 साल की थी तब उन्होंने अपनी पहली कविता “ पिता “ लिखी थी। यह उस समय की बात है जब लड़कियों की शिक्षा को ज़रूरी नहीं माना जाता था।
वे असम की पहली प्रमुख महिला कवयित्री थीं, जिन्होंने महिलाओं के जीवन, भावनाओं, समाज और संस्कृति को बेहद संवेदनशील और सशक्त तरीके से अपनी कविताओं में जगह दी।
लेकिन नलिनी को पढ़ने-लिखने का अवसर मिला, और उन्होंने उसका पूरा लाभ उठाया। उन्होंने तेज़पुर के बंगाली प्राथमिक विद्यालय में शुरुआती शिक्षा पूरी की। इसके बाद अपनी उच्च शिक्षा घर पर ही अपने चाचा कीर्तिनाथ बोरदोलोई, यज्ञेश्वर बरुआ, निशिकांत आदि की देखरेख में पूरी की। एक शिक्षित परिवार में पले – बड़े होने के बावजूद, उनकी शादी 12 साल की उम्र में कर दी गई, क्योंकि उस समय बाल विवाह समाज में बहुत प्रचलित था। लेकिन कुछ साल बाद उनके पति जीवेश्वर चांगकाकोटी की मृत्यु हो गई जब वो मात्र 19 साल की थीं । उनके चार बेटे थे लेकिन उन्होंने उन्होंने अपने दो बेटों को भी कम उम्र में ही खो दिया था। उन्होंने आग लगने की एक दुर्घटना में अपने पांच साल के बेटे को खो दिया था। इसी के साथ साल 1922 में, उनके पिता को अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम या भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण जेल हो गई।

इन दुखद घटनाओं ने नलिनी के जीवन को गहरे रूप से प्रभावित किया। कम उम्र में शादी, फिर पति और बच्चों को खो देना किसी भी इंसान को तोड़ सकता था, लेकिन नलिनी ने इन तकलीफों को अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया। उन्होंने अपने दुख को शब्दों में बदल दिया और यही उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताकत बनी। उन्होंने अकेलेपन, पीड़ा और आत्मबल जैसे अनुभवों को अपनी रचनाओं में इस तरह ढाला कि वे सिर्फ व्यक्तिगत भावनाएं नहीं रहीं, बल्कि समाज की अनेक महिलाओं की आवाज़ बन गईं। एक विधवा महिला, माँ और लेखिका के रूप में उनका संघर्ष असम की महिलाओं के लिए एक मिसाल बना।
नलिनी बाला देवी का जन्म 23 मार्च 1898 को असम के गुवाहाटी शहर में हुआ था। वे एक ऐसे परिवार में पली-बढ़ीं जहां शिक्षा और साहित्य का वातावरण था। उनके पिता कर्मवीर नवीन चंद्र बोरदोलोई एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने नलिनी को पढ़ाई-लिखाई के लिए हमेशा प्रेरित किया।
साहित्य के क्षेत्र में योगदान

नलिनी की कविताओं ने असमिया साहित्य को एक नई दिशा दी। उन्होंने न केवल परंपरागत विषयों पर लिखा, बल्कि महिलाओं के अनुभवों, समाज की समस्याओं को भी बहुत आसान और साधारण तरीके से अपनी लेखनी के माध्यम से सबके सामने व्यक्त किया। उनके साहित्यिक जीवन की शुरुआत साल 1928 में हुई जब उनकी पहली कविता संग्रह “संध्यार सूर” (शाम की धुन) प्रकाशित हुई, जिसे बाद में साल 1946 कलकत्ता विश्वविद्यालय और साल 1951 में गुवाहाटी विश्वविद्यालय ने अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया। यह उनकी लेखन प्रतिभा की बड़ी पहचान थी।
उनकी अन्य रचनाओं में अलकनंदा, सोपुनार सूर (स्वप्नों का राग), पोरोश मोनी, युग देवता (युग का नायक), शेष पूजा (अंतिम पूजा), पारिजात अभिषेक, प्रह्लाद, मेघदूत, सुरवी, रूपरेखा, शांतिपथ (निबंध संकलन), शेषोर सूर (अंतिम राग) आदि शामिल हैं। नलिनी ने साल 1948 में अपने पिता नबीन चंद्र बोरदोलोई की जीवनी – स्मृतिर तीर्थ लिखी। साथ ही विश्वदीपा ( महिलाओं की जीवनियों का संग्रह), एरी ओहा दिन्बर (द डेज़ पास्ड, ऑटोबायोग्राफी) और सरदार वल्लवभाई पटेल उनकी कुछ अन्य जीवनी संबंधी रचनाएं और मीराबाई नामक नाटक भी लिखा।
एक शिक्षित परिवार में पले – बड़े होने के बावजूद, उनकी शादी 12 साल की उम्र में कर दी गई, क्योंकि उस समय बाल विवाह समाज में बहुत प्रचलित था। लेकिन कुछ साल बाद उनके पति जीवेश्वर चांगकाकोटी की मृत्यु हो गई जब वो मात्र 19 साल की थीं ।
सम्मान और मान्यता
साल 1950 में, उन्होंने “सदौ असोम पारिजात कानन” की स्थापना की, जो बाद में असम में बच्चों के संगठन “मोइना पारिजात” के रूप में प्रसिद्ध हुआ। साल 1955 में जोरहाट में असम साहित्य सभा के 23वें सत्र के दौरान अध्यक्ष चुना गया । साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें साल 1957 में भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया और साल 1968 में उनके कविता संग्रह “अलकनंदा” के लिए उन्हें साहित्य अकादमी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया। 24 दिसंबर 1977 में उनकी मृत्यु हो गई लेकिन असमिया साहित्य में उन्हें उनकी प्रसिद्ध रचनाएं और कविता नटघर (रंगमंच) की अंतिम चार पंक्तियां आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई हैं।

कुन कर जोगोटर, कुन कर मोरोमोर, चोकुर चिनाकी दुदिनोर, ससीमोर रूपरेखा, असिमोत बुर जाबो, खोही गोले जोरी मोरोमोर यानी इस दुनिया में कौन किसका है? कौन किसकी सच्ची देखभाल करता है? हम बस कुछ पल के लिए एक-दूसरे के लिए होते हैं। कुछ समय के लिए आंखों से आंखें मिलती हैं,चेहरे की पहचान होती है, पर वह भी थोड़े समय की होती है। अगर हमारे बीच का प्यार और अपनापन टूट जाए,तो ये सब पहचानें और रिश्ते धीरे-धीरे खत्म हो जाते हैं। उनकी स्मृति को सम्मानित करते हुए, गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज ने उन्हें मरणोपरांत सम्मान दिया और साल 1986 में अपने गर्ल्स हॉस्टल का नाम “पद्मश्री नलिनी बाला देवी गर्ल्स हॉस्टल” रखा। यह न सिर्फ उनके योगदान की सराहना है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत भी है।
नलिनी बाला देवी सिर्फ एक कवयित्री नहीं थीं, बल्कि वह असम की पहली महिला लेखिका थीं जिन्होंने उस समय लिखा जब महिलाओं के लिए बोलना और लिखना बहुत मुश्किल था। उन्होंने अपने जीवन के दुख, संघर्ष और भावनाओं को अपनी कविताओं में इस तरह दिखाया कि बहुत सी महिलाओं को हिम्मत और रास्ता मिला। उनकी रचनाएं आज भी लोगों को छूती हैं, क्योंकि वे सच्चाई, संवेदना और आत्मबल से भरी हैं। उन्होंने बताया कि लेखन के माध्यम से समाज को बदला जा सकता है और महिलाओं की आवाज़ को मजबूत बनाया जा सकता है। उनके काम के लिए उन्हें कई बड़े सम्मान भी मिले, और आज भी उनका नाम असम और पूरे देश में सम्मान के साथ लिया जाता है। नलिनी का जीवन हमें यह सिखाता है कि मुश्किलें कितनी भी हों, अगर हम अपने सपनों और आवाज़ पर भरोसा रखें, तो हम समाज में एक नई रोशनी फैला सकते हैं। चाहे फिर राह कितनी भी मुश्किल क्यों न हो।

