भारत में खेलों की दुनिया अब भी महिलाओं के लिए आसान नहीं है। कई बार उन्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों, समाज की रूढ़िवादी सोच और संसाधनों की कमी से जूझना पड़ता है। खासकर जब कोई लड़की किसी छोटे कस्बे या दूर-दराज के इलाके से आती है, तो उसके सपनों को हकीकत बनाने की राह और भी मुश्किल हो जाती है। ऐसे में अगर कोई लड़की ओलंपिक जैसे बड़े मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व करती है, तो वह सिर्फ एक खिलाड़ी नहीं रहती, बल्कि हजारों लड़कियों के लिए प्रेरणा बन जाती है। लौरेम्बम ब्रोजेशोरी देवी भी एक ऐसी ही महिला थीं, जिन्होंने मणिपुर के छोटे से गांव से निकलकर अपने सपनों को पूरा करने का एक लंबा सफर तय किया ।
वह मणिपुर की पहली महिला जूडो खिलाड़ी बनीं जिन्होंने ओलंपिक में भाग लिया। लेकिन उनका यह सफर सिर्फ खेल तक सीमित नहीं था। यह एक ऐसी महिला की कहानी है जिसने समाज की पाबंदियां, परिवार की नाराजगी और पितृसत्ता की दीवारों को पार कर खुद के लिए एक नया रास्ता बनाया।उन्होंने सिर्फ जूडो में पदक ही नहीं जीते, बल्कि हर उस सोच को चुनौती दी जो यह मानती है कि लड़कियां सिर्फ पढ़ाई या घर तक सीमित रहें। उनकी यात्रा हमें यह सिखाती है कि सपनों को पूरा करने के लिए ज़रूरी नहीं है कि आपके पास सारी सुविधाएं हों ज़रूरी है तो बस एक सच्चा सपना, और उसे पाने की लगन।
लौरेम्बम ब्रोजेशोरी देवी भी एक ऐसी ही महिला थीं, जिन्होंने मणिपुर के छोटे से गांव से निकलकर अपने सपनों को पूरा करने का एक लंबा सफर तय किया । वह भारत की पहली महिला जूडो खिलाड़ी बनीं जिन्होंने ओलंपिक में भाग लिया।
प्रारंभिक जीवन और सपनों की शुरुआत
लौरेम्बम ब्रोजेशोरी देवी का जन्म 1 जनवरी 1981 को मणिपुर के इम्फाल पश्चिम जिले के एक छोटे से गांव खगेमपल्ली हुइड्रोम लेइकाई में हुआ था। उनके पिता का नाम लौरेम्बम मंगलम सिंह और माता का नाम लौरेम्बम ओंगबी तरुणी देवी था। बचपन से ही वह खेलों की ओर आकर्षित थीं, लेकिन उस समय लड़कियों का खेलों में जाना बहुत आम बात नहीं थी। हर साल मणिपुर में मनाया जाने वाला ‘याओशांग’ त्योहार, जिसमें गाँवों और मोहल्लों में खेल प्रतियोगिताएं होती हैं, उनके लिए सबसे पसंदीदा समय होता था। वे इन खेलों में बहुत उत्साह से हिस्सा लेती थीं।

सातवीं कक्षा से उन्होंने खेलों में भाग लेना शुरू किया और नौवीं कक्षा में आकर उनका झुकाव जूडो की तरफ बढ़ा। उनकी इस राह में सबसे पहली प्रेरणा बनीं उनकी खेल शिक्षिका अमुसाना, जो सिर्फ स्कूल की टीचर नहीं थीं बल्कि उनके मोहल्ले के क्लब की एक सशक्त महिला नेता भी थीं। अमुसाना ने ही उन्हें पहली बार यह विश्वास दिलाया कि वह खेलों में कुछ बड़ा कर सकती हैं। एक छोटी-सी गली से चलकर, परिवार की पाबंदियों को पार कर, उन्होंने ओलंपिक जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच तक का सफर तय किया। यह सिर्फ एक खिलाड़ी की कहानी नहीं, बल्कि एक सपने को सच करने की जिद का नाम है।
वह अपने खेल के कपड़ों को छिपाने के लिए ऊपर से फानेक पहनती थीं, फानेक मणिपुर की पारंपरिक पोशाक होती है, जिसे महिलाएं कमर के चारों ओर लपेटती हैं, एक साड़ी की तरह। वह ऐसा इसलिए करती थीं ताकि घरवालों को पता न चले कि वह खेल रही हैं।
पारिवारिक विरोध और प्रशिक्षण
उनका खेलों के प्रति जुनून तब भी मजबूत बना रहा जब उनका परिवार इसके सख्त खिलाफ था। उनके माता-पिता चाहते थे कि वह केवल पढ़ाई पर ध्यान दें, क्योंकि उनके हिसाब से खेल लड़कियों के लिए नहीं था न तो सुरक्षित, न ही भविष्य देने वाला। घर के माहौल में अनुशासन और परंपरा का दबाव था, जहां लड़कियों से यह उम्मीद की जाती थी कि वे परिवार और समाज की तय की गई सीमाओं में ही रहें। उन्होंने अपने अंदर की आवाज़ सुनी और जूडो खेलना जारी रखा, भले ही इसके लिए उन्हें कई बार छुपकर अभ्यास करना पड़ा हो। वह अपने खेल के कपड़ों को छिपाने के लिए ऊपर से फानेक पहनती थीं, फानेक मणिपुर की पारंपरिक पोशाक होती है, जिसे महिलाएं कमर के चारों ओर लपेटती हैं, एक साड़ी की तरह। वह ऐसा इसलिए करती थीं ताकि घरवालों को पता न चले कि वह खेल रही हैं।

स्थानीय क्लबों में भाग लेकर उन्होंने अपने आत्मविश्वास को मज़बूत किया और धीरे-धीरे उनके भीतर यह विश्वास पनपा कि वह इस रास्ते को आगे भी जारी रख सकती हैं। ब्रोजेशोरी देवी ने जूडो की शुरुआती ट्रेनिंग थौनौजम विश्वजीत, टोंडन और साई कोच साबित्रि के मार्गदर्शन में ली। ये सभी मणिपुर के जूडो जगत के प्रतिष्ठित प्रशिक्षक रहे हैं, जिन्होंने राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कई खिलाड़ियों को तैयार किया है। खासकर साई कोच साबित्रि का नाम मणिपुर में महिलाओं के खेल प्रशिक्षण में एक प्रेरणास्रोत के रूप में लिया जाता है। इसके अलावा उन्होंने जूडो की अन्य तकनीकें एम. देवेन सिंह से भी सीखी, जो मणिपुर के एक अनुभवी जूडो प्रशिक्षक रहे हैं। जब उन्होंने राज्य स्तरीय कैंप में भाग लेने की इच्छा जताई, तो यह फिर से एक बड़ी चुनौती थी क्योंकि परिवार अब भी पूरी तरह समर्थन में नहीं था। तब उनके कोच देवेन् ने उनके माता-पिता से बात की और उन्हें समझाने की कोशिश की।
उन्होंने 16 राष्ट्रीय और 20 अंतरराष्ट्रीय जुडो प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया और भारत का नाम गर्व से ऊंचा किया। इस सफर में उन्होंने 3 स्वर्ण पदक, 1 रजत पदक, और 3 कांस्य पदक जीते, जो उनकी मेहनत, लगन और आत्मविश्वास की मिसाल हैं।
इसके बाद उनके माता-पिता ने शर्त रखी और एक साल का मौका दिया, अगर वह सफल नहीं होतीं हैं, तो उसे खेल छोड़ना होगा। इसके बाद ब्रोजेशोरी ने इम्फाल में स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एसएआई ) के एक खास केंद्र में रहकर एक साल का जूडो प्रशिक्षण लिया। साल 1996 में जब वह मणिपुर के खुमा लमपक खेल केंद्र पहुंची, तो वहां उनकी मुलाकात कोच देवी से हुई। उन्होंने ब्रोजेशोरी को और भी मेहनत से जूडो सीखने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने उस एक साल में दिन-रात मेहनत की, सिर्फ एक महीने में ही उन्हें एसएआई ट्रेनिंग कैंप के लिए चुन लिया गया। उसी साल उन्होंने जूनियर नेशनल चैंपियनशिप में तीसरा स्थान प्राप्त किया और 1997 में ऑल इंडिया एसएआई प्रतियोगिता में भी तीसरे स्थान पर रहीं। उनकी मेहनत और लगातार सफलता के चलते उन्हें देश के नेशनल कोचिंग कैंप में दो अन्य खिलाड़ियों के साथ चुना गया। यह वह मोड़ था, जहां से उनका सपना और रास्ता दोनों साफ़ दिखाई देने लगे । मणिपुर की लौरेम्बम न सिर्फ राज्य की पहली महिला जूडो खिलाड़ी थीं जिन्होंने ओलंपिक में जगह बनाई, बल्कि वे ओलंपिक में भाग लेने वाली पहली भारतीय महिला जूडोका भी बनीं।
उपलब्धियां और सम्मान

कई मुश्किलों और पारिवारिक विरोध के बावजूद, ब्रोजेशोरी ने अपने सपनों को सच करने का हौसला नहीं छोड़ा। उन्होंने 16 राष्ट्रीय और 20 अंतरराष्ट्रीय जुडो प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया और भारत का नाम गर्व से ऊंचा किया। इस सफर में उन्होंने 3 स्वर्ण पदक, 1 रजत पदक, और 3 कांस्य पदक जीते, जो उनकी मेहनत, लगन और आत्मविश्वास की मिसाल हैं। इस दौरान उन्हें फिलीपींस में एशियाई जूडो चैंपियनशिप में भारत की ओर से खेलने का मौका मिला।उन्होंने साल 2000 के ओलंपिक खेलों में महिलाओं के हाफ-लाइटवेट वर्ग में भाग लिया था और चीन की लियू युक्सियांग के खिलाफ सेमीफाइनल में पहुंची थीं। ब्रोजेशोरी ने साल 2000 में सिडनी ओलंपिक, 2006 के दक्षिण एशियाई खेलों, और 2012 में एशियाई व कॉमनवेल्थ खेलों में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। साल 2013 में उनकी मृत्यु हो गई लेकिन अपने संघर्ष और उपलब्धियों के कारण वो हमेशा याद की जाती रहेंगी।
उनकी कहानी सिर्फ एक एथलीट की उपलब्धियों की नहीं, बल्कि एक ऐसे संघर्ष की गवाही है, जो पितृसत्तात्मक सोच, पारिवारिक विरोध और सामाजिक सीमाओं को चुनौती देता है। उन्होंने साबित किया कि प्रतिभा और हिम्मत किसी खास वर्ग, लिंग या संसाधन की मोहताज नहीं होती। जूडो के मैदान में उनकी सफलता ने हजारों लड़कियों को यह विश्वास दिलाया कि वे भी अपने सपनों को साकार कर सकती हैं, चाहे उनका रास्ता कितना भी कठिन क्यों न हो। उन्होंने भारतीय खेल जगत में महिलाओं की भागीदारी का जो रास्ता खोला, वह आज भी प्रेरणा का स्रोत है। उनकी विरासत, उनके साहस और संघर्ष से कहीं बड़ी है यह एक सोच है, जो बदलाव लाती है। ऐसे दौर में जब लड़कियों को अब भी खेलों में आगे बढ़ने के लिए कई बाधाओं से जूझना पड़ता है, ब्रोजेशोरी की यात्रा हमें याद दिलाती है कि असली जीत पदक नहीं, बल्कि वह राह है जिसे हम अपने आत्मसम्मान, जिद और सपनों से बनाते हैं।

