इतिहास अमीरबाई कर्नाटकी: गायन और अदाकारी की मिसाल|#IndianWomenInHistory

अमीरबाई कर्नाटकी: गायन और अदाकारी की मिसाल|#IndianWomenInHistory

अमीरबाई कर्नाटकी  प्रारंभिक हिंदी सिनेमा की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री, गायिका और पार्श्वगायिका थीं और कन्नड़ कोकिला के रूप में प्रसिद्ध थीं ।

भारतीय सिनेमा के शुरूआती समय में  गायिकाओं के लिए फिल्म इंडस्ट्री में जगह बनाना बहुत मुश्किल था।  न तकनीक आज जैसी थी और न ही समाज का नजरिया इतना खुला था। ऐसे माहौल में अमीरबाई कर्नाटकी का उभरना एक असाधारण घटना थी। उन्होंने अपनी मधुर और भावनाओं से भरपूर आवाज़ के बल पर हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास में एक विशेष स्थान बनाया। वह केवल एक गायिका नहीं थीं, बल्कि उस दौर की उन चुनिंदा कलाकारों में से थीं जिन्होंने अपनी मेहनत और प्रतिभा से यह साबित किया कि महिला कलाकार भी पुरुष-प्रधान फिल्म उद्योग में समान रूप से सफल हो सकती हैं। उनके गीतों में वह गहराई थी जो सीधे श्रोताओं के दिल में उतर जाती थी, चाहे वह प्रेम का कोमल स्पर्श हो, बिछड़ने का दर्द हो या देशभक्ति की उमंग।

उनका जीवन सिर्फ कला में ऊंचाई तक पहुंचने  की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी मुस्लिम महिला की कहानी है, जिसने निजी परेशानियों, सामाजिक रुकावटों और पैसों की तंगी के बावजूद अपना रास्ता खुद बनाया। अमीरबाई ने फिल्मों में गाने के साथ-साथ कई भाषाओं में भी गाया, जिससे उन्होंने भारतीय संगीत के अलग-अलग रंगों को अपनाया और हर जगह  फैलाया। आज भले ही तकनीक और संगीत का रूप बदल गया हो, लेकिन उनके गीत हमें उस दौर में ले जाते हैं जब संगीत दिल से पैदा होता था और सीधे दिल में उतरता था। उनका जीवन और उनका संगीत भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का एक अनमोल अध्याय है, जिसे जानना और सहेजना आज भी उतना ही जरूरी है जितना उनके समय में था।

वह केवल एक गायिका नहीं थीं, बल्कि उस दौर की उन चुनिंदा कलाकारों में से थीं जिन्होंने अपनी मेहनत और प्रतिभा से यह साबित किया कि महिला कलाकार भी पुरुष-प्रधान फिल्म उद्योग में समान रूप से सफल हो सकती हैं।

शुरूआती जीवन और संघर्ष  

तस्वीर साभार : Deccan Herald

अमीरबाई कर्नाटकी  प्रारंभिक हिंदी सिनेमा की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री, गायिका और पार्श्वगायिका थीं और कन्नड़ कोकिला के रूप में प्रसिद्ध थीं । उनका जन्म साल 1906  में कर्नाटक के बीजापुर ज़िले के बिलगी कस्बे में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उनकी पांच बहनें थीं, जिनमें से एक बड़ी बहन, गौहरबाई, उनसे पहले फ़िल्मों में आ गई थीं। दोनों बहनों को प्यार से बिलागी बहनें कहा जाता था। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, लेकिन घर में कला और संगीत के प्रति एक सहज सम्मान था। उन्होंने बीजापुर में स्कूली शिक्षा पूरी की और पंद्रह साल  की उम्र  में बम्बई चली गईं। उसके बाद उन्होंने हिमालयवाला से शादी की, जो कि एक अभिनेता थे। वह फिल्मों में खलनायक की भूमिका निभाने के लिए जाने जाते थे। 

उनकी शादी ज़्यादा दिन तक नहीं चल पाई, जिसके चलते उनका तलाक हो गया। उनके जीवन में यह सबसे कठिन समय था लेकिन वह टूटी नहीं और अपना काम करती रहीं। उन्होंने गायकी के साथ – साथ फिल्मों में अभिनेत्री की भूमिका में रहकर भी काम किया। उनका फिल्मी सफर साल 1934-35 में शुरू हुआ, जब उन्हें अपनी पहली भूमिका विष्णु भक्ति नामक फिल्म में मिली। यह भूमिका छोटी थी, और उस समय वे इंडस्ट्री में एक नए चेहरे के रूप में ही देखी जाती थीं। उनकी अदाकारी को नोटिस तो किया गया, लेकिन इससे उन्हें तुरंत कोई बड़ी पहचान नहीं मिली। साल 1934 के बाद उन्होंने फिल्म प्रतिमा में मुख्य भूमिका निभाई। यह उनके लिए एक बड़ा मौका था, लेकिन उस समय तक वे अब भी गुमनाम थीं। फिल्म ने उन्हें थोड़ी पहचान तो दी, मगर उन्हें वह लोकप्रियता नहीं मिली जिसकी उम्मीद की जा रही थी। 

अमीरबाई कर्नाटकी  प्रारंभिक हिंदी सिनेमा की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री, गायिका और पार्श्वगायिका थीं और कन्नड़ कोकिला के रूप में प्रसिद्ध थीं । उनका जन्म साल 1906  में कर्नाटक के बीजापुर ज़िले के बिलगी कस्बे में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था।

गायन के क्षेत्र में पहचान 

तस्वीर साभार : Mehfil Mein Meri

वह केवल हिंदी फिल्म जगत तक सीमित नहीं थीं, बल्कि वह एक बहुभाषी कलाकार थीं। उनकी मातृभाषा कन्नड़ थी, जिसमें वे सहजता से गाती थीं। इसके साथ ही वे गुजराती भाषा में भी पूरी तरह पारंगत थीं। इस भाषाई दक्षता ने उन्हें अलग-अलग राज्यों और भाषाओं के दर्शकों के बीच लोकप्रिय बना दिया। साल 1943 में बॉम्बे टॉकीज़ की फिल्म किस्मत रिलीज़ होने पर उन्हें पहचान मिली। फिल्म के गाने बहुत मशहूर हुए। हिज मास्टर्स वॉयस  (एचएमवी) का एक प्रतिनिधि उनकी गायकी से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उनसे एक कव्वाली गाने को कहा।

यह कव्वाली फिल्म निर्देशक शौकत हुसैन रिज़वी की साल 1945 की फिल्म जीनत के लिए रिकॉर्ड की गई थी। फिल्म के इस गीत ने संगीत प्रेमियों के बीच तहलका मचा दिया और बहुत कम समय में लोकप्रिय हो गया। उस दौर में महिला गायिकाओं की गाई गई कव्वालियां कम ही सुनने को मिलती थीं, इसलिए यह गीत अपने आप में अनोखा था। उन्होंने लता मंगेशकर के साथ अपना मशहूर युगल गीत ‘गोरे गोरे ओ बांके छोरे’ फिल्म समाधि में गाया। शुरुआत में लोग उन्हें मुख्य गायिका के रूप में जानते थे, लेकिन करियर के आख़िरी दौर में वह पार्श्वगायिका बन गईं।

उन्होंने लता मंगेशकर के साथ अपना मशहूर युगल गीत ‘गोरे गोरे ओ बांके छोरे’ फिल्म समाधि में गाया। शुरुआत में लोग उन्हें मुख्य गायिका के रूप में जानते थे, लेकिन करियर के आख़िरी दौर में वह पार्श्वगायिका बन गईं।

बदलाव और अभिनय की ओर वापसी

तस्वीर साभार : Pinterest

साल 1947 तक वह अपने करियर के सबसे ऊंचे मुकाम पर पहुंच चुकी थीं। महात्मा गांधी भी उनके गीत वैष्णव जनतो के प्रशंसक थे। साल 1947 के बाद, लता मंगेशकर एक उभरता सितारा बन गईं,इसलिए अमीरबाई ने दोबारा अभिनय की तरफ़ ध्यान दिया। बाद में उन्होंने ज़्यादातर चरित्र भूमिकाएं निभाईं। उन्होंने वहाब पिक्चर्स की साल 1948 की फिल्म शहनाज़ के लिए संगीत भी तैयार किया।उसी साल उन्होंने गुजराती और मारवाड़ी फ़िल्मों के लिए हिंदी सिनेमा लगभग छोड़ ही दिया था। मशहूर फिल्म पत्रिका फिल्म इंडिया ने एक बार लिखा था कि 20वीं सदी के उस समय, जब दूसरे गायकों को एक गाना गाने के 500 रुपये मिलते थे, वहीं उनको एक रिकॉर्डिंग के 1000 रुपये मिलते थे। उन्होंने 1950 के दशक के शुरुआती वर्षों तक अपना करियर जारी रखा। उन्होंने बिराजपुर में अमीरबाई टॉकीज़ नामक एक सिनेमा हॉल की स्थापना की, जो आज भी चल रहा है। साल 1965 में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन अपने गायन और अदाकारी के माध्यम से वो हमेशा याद की जाती रहेंगी। 

अमीरबाई कर्नाटकी का जीवन और करियर भारतीय सिनेमा के उस दौर का सशक्त उदाहरण है, जब महिला कलाकारों को अपनी पहचान बनाने के लिए अटूट संघर्ष करना पड़ता था । तकनीकी साधनों की कमी और समाज और परिवार के संकुचित दृष्टिकोण या विरोध के बावजूद, उन्होंने अपनी मधुर, भावनाओं से भरी आवाज़ से दर्शकों का दिल जीता और हिंदी फिल्म संगीत में अमिट छाप छोड़ी। वह केवल गायिका ही नहीं, बल्कि एक बहुभाषी कलाकार थीं, जिन्होंने कन्नड़, गुजराती, हिंदी और अन्य भाषाओं में गाकर भारतीय संगीत की विविधता को समृद्ध किया। उनके गीतों में वह भावनात्मक गहराई थी, जो प्रेम, विरह या देशभक्ति हर विषय पर श्रोताओं के दिल को छू जाती थी। उन्होंने यह साबित किया कि प्रतिभा और मेहनत के बल पर, महिला कलाकार भी पुरुष-प्रधान फिल्म जगत में न सिर्फ जगह बना सकती हैं, बल्कि शिखर तक पहुंच  सकती हैं। उनका सफर संघर्ष, कला के प्रति समर्पण और आत्मनिर्भरता की मिसाल है। आज, भले ही संगीत का रूप और तकनीक बदल गई हो, लेकिन अमीरबाई के गीत हमें उस सुनहरे दौर में ले जाते हैं, जब संगीत दिल से निकलकर सीधे दिल में उतरता था। उनका योगदान भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का एक अनमोल अध्याय है, जिसे सहेजना आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।  

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