संस्कृति स्टिरियोटाइप से परे पूर्वोत्तर भारत की समृद्ध परंपराएं

स्टिरियोटाइप से परे पूर्वोत्तर भारत की समृद्ध परंपराएं

भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य जैसे असम, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, मिज़ोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम अपनी अनूठी संस्कृतियों और पहनावों के लिए प्रसिद्ध हैं। लेकिन अक्सर उन्हें मुख्यधारा से अलग समझा जाता है।

भारत का भोजन अपनी विविधता के लिए दुनिया भर में मशहूर है। उत्तर भारत के छोले-भटूरे, दक्षिण भारत के इडली-सांभर या गुजरात के ढोकले जैसे व्यंजन हर जगह पहचाने जाते हैं। लेकिन भारत का एक हिस्सा ऐसा भी है, जहां का भोजन और संस्कृति मुख्यधारा की पहचान से अलग है। यह क्षेत्र है पूर्वोत्तर भारत, जो कई जातीय समूहों, भाषाओं और परंपराओं का संगम है। पूर्वोत्तर भारत के भोजन में एक अलग ही स्वाद और ताज़गी है। यहां बैंबू शूट (बांस के अंकुर), भुट जोलोकिया (मिर्च) और स्थानीय साग-सब्ज़ियों जैसी चीज़ों का प्रयोग होता है। अधिकतर व्यंजनों में मांस का इस्तेमाल भी आम है।

यह भोजन यहां के लोगों के जीवन जीने के जीवंत और सरल तरीकों की तरह ही अनोखा है। हालांकि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल जैसे क्षेत्रों ने आपस में संस्कृति और भोजन का आदान-प्रदान किया है, लेकिन पूर्वोत्तर भारत इससे काफी हद तक अलग रहा। इसके पीछे कई ऐतिहासिक और भौगोलिक कारण हैं। पहाड़ी इलाकों और सिलीगुड़ी कॉरिडोर (जिसे चिकन नेक कहा जाता है) ने पूर्वोत्तर और बाकी भारत के बीच संपर्क को हमेशा कठिन बनाए रखा।

पूर्वोत्तर भारत के भोजन में एक अलग ही स्वाद और ताज़गी है। यहां बैंबू शूट (बांस के अंकुर), भुट जोलोकिया (मिर्च) और स्थानीय साग-सब्ज़ियों जैसी चीज़ों का प्रयोग होता है। अधिकतर व्यंजनों में मांस का इस्तेमाल भी आम है।

यही वजह है कि पूर्वी भारत ने अपनी अलग पहचान और संस्कृति को बनाए रखा। यहां के लोग अलग-अलग जातीय समूहों से आते हैं। हर समूह की अपनी परंपराएं, भाषाएं और धार्मिक मान्यताएं हैं। कुछ हिंदू धर्म से है, तो कहीं ईसाई धर्म और अन्य धार्मिक मान्यताएं भी मौजूद हैं। इसी कारण यहां की धार्मिक और आहार विविधता और भी समृद्ध है। लेकिन मुख्यधारा भारत में पूर्वोत्तर के बारे में कई तरह के मिथक और गलत धारणाएं प्रचलित हैं। अक्सर यह मान लिया जाता है कि यहां के लोग केवल कीड़े-मकोड़े या सांप खाते हैं। जबकि सच यह है कि उनका भोजन बेहद विविध, पौष्टिक और प्राकृतिक स्वादों से भरपूर है। यह सोच केवल पूर्वाग्रह का हिस्सा है, जिसने पूर्वोत्तर को भारत की मुख्यधारा की सांस्कृतिक और आहारिक पहचान से अलग कर दिया है।

पूर्वोत्तर राज्यों के लिए हमारी रूढ़िवादी मानसिकता

आम तौर पर भारतीय समाज में यह धारणा पाई जाती है कि पूर्वोत्तर के सभी लोगों की खान-पान की आदतें ‘अजीब’ होती हैं। बिना तथ्य के अक्सर कहा जाता है कि वहां के लोग कुत्ते या सांप जैसे जानवर खाते हैं। लेकिन, असल में यह सोच बहुत सीमित जानकारी और अतिसामान्यीकरण पर आधारित है। पूर्वोत्तर भारत के हर राज्य और क्षेत्र की अपनी अलग खाद्य संस्कृति है, जो वहां की भौगोलिक परिस्थितियों से जुड़ी हुई है। वहां के सामान्य घरेलू भोजन में अनाज शामिल होता है—जैसे चावल या बाजरा। इसके साथ स्थानीय रूप से उगाई गई सब्ज़ियां, सेम और बांस की कोंपलें होती हैं। इन्हें स्थानीय मसालों में पकाया जाता है और इसके साथ मांसाहारी भोजन भी शामिल होता है। यह सच है कि इस क्षेत्र में मांस की खपत ज़्यादा है। लेकिन यह कहना कि यहां का भोजन केवल अजीब और असामान्य होता है, सही नहीं है। यह हमारी स्टीरियोटाइप है कि हम इस रूढ़ियों में जकड़े हैं और बिना तथ्यों के किसी दूसरे समुदाय का खान-पान या रहन-सहन के आधार पर मजाक बनाते हैं।

तस्वीर साभार : फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए इंद्रजीत सिन्हा

मुख्यधारा के भारतीयों में एक बड़ी संख्या ऐसी है जो पूर्वोत्तर की संस्कृति से अनजान है। अक्सर सभी पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाता है। कई बार उन्हें नेपाली या फिर चीनी समझ लिया जाता है। यह भी धारणा बना दी गई है कि पूर्वोत्तर के सभी लोग चमगादड़ और साँप खाते हैं। लोग इस ग़लत धारणा को बदलना भी नहीं चाहते। पूर्वोत्तर से कई छात्र-छात्राएँ पढ़ाई के लिए दिल्ली, मुंबई, इंदौर और भोपाल जैसे शहरों में जाते हैं। लेकिन, इन शहरों में रहने वाले लोगों की पूर्वोत्तर के लोगों के बारे में बनी ग़लत धारणाएं उनके लिए मानसिक और सामाजिक तौर पर तकलीफ़देह साबित होती हैं। यह भेदभाव उनमें असहजता पैदा करता है, जिसकी वजह से वे कई बार अपनी संस्कृति और पारंपरिक तरीक़ों को खुलकर नहीं अपना पाते। नतीजा यह होता है कि उन्हें अपनी भाषा, अपने खानपान की आदतों और अपनी पहचान को बदलने या छुपाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

आम तौर पर भारतीय समाज में यह धारणा पाई जाती है कि पूर्वोत्तर के सभी लोगों की खान-पान की आदतें ‘अजीब’ होती हैं। बिना तथ्य के अक्सर कहा जाता है कि वहां के लोग कुत्ते या सांप जैसे जानवर खाते हैं। लेकिन, असल में यह सोच बहुत सीमित जानकारी और अतिसामान्यीकरण पर आधारित है।

पूर्वोत्तर भारत और भेदभाव की हकीकत

प्राकृतिक संसाधनों, जैव-विविधता और समृद्ध सांस्कृतिक पहचान से भरे होने के बावजूद पूर्वोत्तर भारत कई चुनौतियों से जूझ रहा है। कमजोर बुनियादी ढांचा, बाज़ारों तक सीमित पहुंच, बेरोज़गारी और सामाजिक असमानताएं यहां की प्रमुख समस्याएं हैं। इन कारणों से पूर्वोत्तर के कई लोग काम और व्यापार के लिए भारत के बड़े शहरों का रुख करते हैं। लेकिन वहां पहुंचने पर उन्हें अक्सर भेदभाव और रूढ़िवादी धारणाओं का सामना करना पड़ता है। देश के बड़े शहरों में पूर्वोत्तर के लोगों के चेहरे की बनावट, खान-पान या बोली पर अपमानजनक टिप्पणियां की जाती हैं। 2020 में इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च (ICSSR) की एक रिपोर्ट में सामने आया कि महानगरों में पढ़ाई या नौकरी करने वाले लगभग 78 फीसद पूर्वोत्तर युवाओं ने कभी न कभी नस्लीय भेदभाव का सामना किया है।

उत्तर-पूर्व की संस्कृति विविधता को अपनाने की ज़रूरत

जिस तरह उत्तर और दक्षिण भारत ने एक-दूसरे से सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंधों के माध्यम से लाभ उठाया है, उसी तरह हमें उत्तर–पूर्व भारत की संस्कृति और परंपराओं को भी बिना किसी पूर्वाग्रह या धारणा के अपनाना चाहिए। उत्तर–पूर्व भारत भी हमारे देश का ही अभिन्न हिस्सा है। यहां की अपनी अनूठी संस्कृति, भाषाएं और खानपान हैं। हो सकता है कि उनका भोजन हमारी रोज़मर्रा की थाली से अलग लगे, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे कम भारतीय हैं। उत्तर–पूर्व भारत को ‘सात बहनें’ कहा जाता है। असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड और त्रिपुरा—ये सातों राज्य अपनी दुर्लभ प्राकृतिक सुंदरता, विविध परंपराओं और समृद्ध खानपान के लिए जाने जाते हैं। मिज़ोरम और सिक्किम को भी जोड़ लें, तो उत्तर–पूर्व भारत और भी विविध हो जाता है। यहां के खानपान में मांसाहार ज़्यादा प्रचलित है।

तस्वीर साभार: Lady Shri Ram College for Women

मछली, बतख, चिकन, बांस की कोपलें और कई तरह की जड़ी–बूटियां यहां के भोजन का हिस्सा हैं। कुछ व्यंजनों में घोंघे (स्नेल) भी खाए जाते हैं। यही कारण है कि अक्सर भारत के अन्य हिस्सों के लोग यह सोचकर दूरी बना लेते हैं कि उत्तर–पूर्व का खाना सिर्फ़ मांसाहारी है। उत्तर–पूर्व भारत में कई पारंपरिक शाकाहारी पकवान भी मिलते हैं। जैसे, बोरोर टेंगा (असम का खट्टा करी जैसा व्यंजन), थुकपा (अरुणाचल और सिक्किम की नूडल सूप), आलू पितिका (असम का मसले हुए आलू का व्यंजन), केली चना (मेघालय का पारंपरिक व्यंजन), पुमालोई (मेघालय की स्टीम्ड ब्रेड जैसे कई व्यंजन प्रसिद्ध हैं। इन व्यंजनों से साफ़ है कि उत्तर–पूर्व सिर्फ़ मांसाहारी खाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यहां शाकाहारी खाने की भी उतनी ही समृद्ध परंपरा है।

2020 में इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च (ICSSR) की एक रिपोर्ट में सामने आया कि महानगरों में पढ़ाई या नौकरी करने वाले लगभग 78 फीसद पूर्वोत्तर युवाओं ने कभी न कभी नस्लीय भेदभाव का सामना किया है।

मुख्यधारा भारत और पूर्वोत्तर के बीच संबंध

भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य जैसे असम, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, मिज़ोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम अपनी अनूठी संस्कृतियों और पहनावों के लिए प्रसिद्ध हैं। लेकिन अक्सर उन्हें मुख्यधारा से अलग समझा जाता है। यह दूरी केवल भौगोलिक नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक भी है। आज समय है कि इस दूरी को खत्म किया जाए और आपसी समझ को मज़बूत किया जाए। पूर्वोत्तर भारत रणनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। यहां से भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग और कलादान मल्टी-मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट जैसे बड़े प्रोजेक्ट पूरे क्षेत्र को जोड़ सकते हैं। इससे न केवल पूर्वोत्तर बल्कि पूरे भारत की अर्थव्यवस्था को मज़बूती मिलेगी और भारत दक्षिण-पूर्व एशिया में एक अहम शक्ति के रूप में उभरेगा। पूर्वोत्तर भारत प्रकृति के लिहाज़ से भी अनोखा है। यहां ट्रॉपिकल रेनफॉरेस्ट हैं, हिमालयी घास के मैदान हैं और समृद्ध जैव विविधता है। असम का काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान विश्व-प्रसिद्ध एक-सींग वाले गैंडों का घर है। मेघालय के जीवित जड़ पुल पर्यावरण और संस्कृति के मेल का अद्भुत उदाहरण हैं। मणिपुर का केइबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान दुनिया का एकमात्र तैरता हुआ राष्ट्रीय उद्यान है।

तस्वीर साभार : Northeast

ये धरोहरें भारत को पर्यावरण संरक्षण और जलवायु संतुलन में मदद करती हैं और पर्यटन की बड़ी संभावनाएं भी खोलती हैं। भारत जैसे विशाल देश में भाषाएं, रीति-रिवाज, खानपान और पहनावा अलग हो सकते हैं, लेकिन इन सबके बीच हमें यह समझना चाहिए कि हम सबसे पहले भारतीय हैं। किसी की पहचान, भाषा, धर्म, जाति या शारीरिक बनावट अलग होने का मतलब यह नहीं है कि वह गैर-भारतीय है। भारत की सबसे बड़ी ताक़त उसकी विविधता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 121 से अधिक प्रमुख भाषाएं और लगभग 19,500 बोलियां बोली जाती हैं। 700 से ज़्यादा जनजातियां और अनेकों धार्मिक-सांस्कृतिक समुदाय यहां एक साथ रहते हैं। यही विविधता हमारी पहचान भी है और हमारी शक्ति भी। अगर हम केवल राज्य, क्षेत्र, जाति या नस्ल के आधार पर सोचेंगे, तो विभाजन गहरा होगा। लेकिन जब हम एक देश के रूप में सोचेंगे, तो विकास और प्रगति की राह आसान होगी। एक समावेशी और सहिष्णु समाज ही वास्तव में मज़बूत और उन्नत हो सकता है। जब हर व्यक्ति को उसकी पहचान के साथ सम्मान मिलेगा, तभी हम सचमुच आगे बढ़ पाएंगे।

भारत की ताक़त उसकी विविधता है। यहां हर राज्य, हर समुदाय और हर संस्कृति की अपनी पहचान है। उनका पहनावा, भाषा और परंपराएंइस विविधता को और समृद्ध बनाती हैं। जब अलग-अलग संस्कृतियों के लोग एक-दूसरे के साथ जुड़ते हैं, तो यह न केवल आपसी समझ बढ़ाता है बल्कि जीवन को भी नए अनुभवों से भर देता है। सांस्कृतिक विनिमय किसी भी समाज के लिए बहुत ज़रूरी होता है। यह हमें सिखाता है कि हम दूसरों की परंपराओं, इतिहास और जीवन शैली से क्या सीख सकते हैं। साथ ही यह आपसी रिश्तों को मज़बूत बनाता है। हमें यह समझना चाहिए कि भोजन केवल स्वाद का विषय नहीं है, बल्कि यह किसी समुदाय की पहचान और संस्कृति से गहराई से जुड़ा होता है। उत्तर–पूर्व के लोगों का खानपान उनकी जलवायु, भौगोलिक स्थिति और पारंपरिक ज्ञान से विकसित हुआ है। इसलिए हमें इसे सम्मान की नज़र से देखना चाहिए। भारतीय समाज में विविधता हमेशा से रही है। जैसे उत्तर भारत की रोटियां, दक्षिण भारत का इडली–डोसा, पश्चिम भारत का ढोकला और उत्तर–पूर्व का थुकपा—ये सब मिलकर भारत की थाली को पूरा बनाते हैं। हमें इस विविधता को अपनाकर ही एक सच्चे ‘भारत’ को समझना होगा।

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