संस्कृति भारतीय मेनस्ट्रीम सिनेमा में सांस्कृतिक विविधता की समस्यात्मक पेशकश

भारतीय मेनस्ट्रीम सिनेमा में सांस्कृतिक विविधता की समस्यात्मक पेशकश

जब हम मेनस्ट्रीम सिनेमा और मीडिया प्लेटफॉर्म्स की बात करते हैं, तो हमें यह समझना चाहिए कि यह केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है, बल्कि यह समाज का एक आईना भी है।

भारत एक विशाल और विविधता भरा देश है, जहां हर एक कोने में अलग-अलग संस्कृति, जाति और भाषा का अपना एक अलग रंग है। यह विविधता हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन कभी-कभी यही विविधता मज़ाक का कारण भी बन जाती है। हम हमेशा सुनते हैं कि कैसे लोग एक दूसरे की संस्कृति, जाति और भाषा का मज़ाक बनाते हैं। यह एक ऐसी समस्या है जिसका सामना सभी करते हैं, चाहे वह स्कूल में हो, ऑफिस में या फिर दोस्तों के बीच हों। जब हम किसी नए दोस्त के साथ होते हैं या किसी खास ग्रुप में शामिल होते हैं। अक्सर हमेशा सांस्कृतिक भिन्नताओं के बारे में बातें होती हैं, जैसे-जैसे बातचीत आगे बढ़ती है, उस समय कभी-कभी यह मज़ाक में बदल जाती है। लेकिन क्या हम जानते हैं कि इससे दूसरी संस्कृति के प्रति क्या असर पड़ सकता  है? या उस इंसान पर क्या प्रभाव पड़ेगा जिसका मज़ाक बनाया जा रहा है।

इसका एक उदाहरण यह भी देखा जा सकता है, बीते दिनों यशराज मुखाटे की रील डोसा सोशल मीडिया पर काफी सुर्खियों में रही, अभिनेत्री कीर्ति सुरेश से एक इंटरव्यू में उनके पसंदीदा खाने के बारे में पूछा गया था, तब उन्होंने कहा था कि उन्हें डोसा बहुत पसंद है इस पर ही यह रील बनाई गई थी। जो दक्षिण भारतीयों के लिए मजाक का सबब बन गया। वास्तव में, जब किसी व्यक्ति की भाषा, खान–पान या संस्कृति का मज़ाक उड़ाया जाता है, तो इससे उसकी पहचान को ठेस पहुंच सकती है। मज़ाक करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम किस पर मजाक कर रहे हैं और इसके पीछे की भावनाओं को समझना चाहिए। जब हम मेनस्ट्रीम मीडिया की बात करते हैं, तो हमें यह समझना चाहिए कि यह केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है, बल्कि यह समाज का एक आईना भी है। लेकिन क्या होता है जब ये फिल्में दूसरी संस्कृतियों को मजाक के रूप में पेश करती हैं? यह एक गंभीर मुद्दा है, जो न केवल सिनेमा के दर्शकों पर असर डालता है, बल्कि समाज में भी गहरा असर छोड़ता है।

बीते दिनों यशराज मुखाटे की रील डोसा सोशल मीडिया पर काफी सुर्खियों में रही, अभिनेत्री कीर्ति सुरेश से एक इंटरव्यू में उनके पसंदीदा खाने के बारे में पूछा गया था, तब उन्होंने कहा था कि उन्हें डोसा बहुत पसंद है इस पर ही यह रील बनाई गई थी।जो दक्षिण भारतीयों के लिए मजाक का सबब बन गया।

सांस्कृतिक संवेदनशीलता की कमी

तस्वीर साभार : Get Meme Templates

मेनस्ट्रीम मीडिया प्लेटफॉर्म्स में अक्सर हम देखते हैं कि एक खास या अलग भाषा वाले क्षेत्रों को एक मज़ाक के रूप में पेश किया जाता है। कई फिल्में ऐसे पात्रों को दिखाती हैं जो अलग-अलग भाषाओं में बोलते हैं, और उन्हें एक प्रकार के हास्य या मज़ाक में बदल दिया जाता है। अगर कोई व्यक्ति दक्षिण भारतीय हैं, तो वे इडली डोसा खाता होगा, सफेद लूंगी पहनता होगा। उदाहरण के लिए साल 1968 की फिल्म पड़ोसन में महमूद के किरदार मास्टर पिल्लई को आदर्श दक्षिण भारतीय माना जा सकता है, जो आज भी मौजूद है। विशिष्ट कुदुमी (सिर की गांठ), पट्टाई (माथे पर निशान) और रेशम की धोती और शर्ट के साथ अंगोस्त्रम (कंधे के चारों ओर कपड़े का टुकड़ा) जिसे महमूद ने फिल्म में सजाया था।

कुछ ऐसे दृश्य हैं जो आज भी स्क्रीन पर एक दक्षिण भारतीय के रूप में रूढ़िबद्ध बने हुए हैं। जबकि दक्षिण भारत में भी पांच अलग राज्य और उन राज्यों की अपनी अलग संस्कृति है। तमिलनाडु का खान-पान आंध्र प्रदेश के खान-पान से अलग होता है, और पहनावा भी अलग होता है। उसी प्रकार उस व्यक्ति का बात करने का तरीका भी अलग होगा। यह एक तरह की सांस्कृतिक संवेदनहीनता है, जो दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम वास्तव में विभिन्न या दूसरों की संस्कृतियों का सम्मान कर रहे हैं या नहीं ?

कई फिल्में ऐसे पात्रों को दिखाती हैं जो अलग-अलग भाषाओं में बोलते हैं, और उन्हें एक प्रकार के हास्य या मज़ाक में बदल दिया जाता है। अगर कोई व्यक्ति दक्षिण भारतीय हैं, तो वे इडली डोसा खाता होगा, सफेद लूंगी पहनता होगा।

जातियों का चित्रण और रंगभेद

तस्वीर साभार : Reddit

कई मेनस्ट्रीम फिल्में और मीडिया प्लेटफॉर्म्स एक जाति विशेष (खासकर आदिवासी समुदाय) को केवल उनके रूढ़िबद्ध धारणा के आधार पर चित्रित करते हैं। जैसे साल 1970 की फिल्म अरनयार दीन रात्री में दिखाया गया है। इसमें कुछ पुरुष दोस्तों के एक ग्रुप की कहानी दिखाई गई है, जो छुट्टियां मनाने के लिए झारखंड के पास पलामू घूमने जाते हैं। इनमे से एक पुरुष हरि जो एक स्थानीय संथाल महिला, दुली (सिमी गरेवाल) की ओर आकर्षित है। हरि अपनी मर्दानगी और उच्च आर्थिक स्थिति का उपयोग उसे आकर्षित करने के लिए करता है।

 इसे और अधिक समस्याग्रस्त बनाने वाली बात यह थी कि गरेवाल, जो स्वाभाविक रूप से गोरी थीं, को एक सांबले महिला के किरदार में दिखाने के लिए मेकअप के ज़रिए उनकी त्वचा का रंग गहरा किया गया था। यह प्रक्रिया जिसे आमतौर पर ‘ब्लैकफेस’ कहा जाता है, एक अत्यंत संवेदनशील और विवादित प्रथा मानी जाती है, क्योंकि यह नस्लीय प्रतिनिधित्व को गलत रूप में दिखाती है और ऐतिहासिक रूप से भेदभाव से जुड़ी रही है। यह केवल मनोरंजन नहीं है ये एक गंभीर सामाजिक मुद्दा है। जब हम जातियों के आधार पर मज़ाक करते हैं, तो हम उन लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाते हैं, जो उस जाति से संबंधित होते हैं। यह दिखाता है कि मज़ाक कितना सतही हो गया है, जहां गहरे मुद्दों को छूने के बजाय मज़ाक बनाना आसान होता है।

कई मेनस्ट्रीम फिल्में और मीडिया प्लेटफॉर्म्स एक जाति विशेष (खासकर आदिवासी समुदाय) को केवल उनके रूढ़िबद्ध धारणा के आधार पर चित्रित करते हैं। जैसे साल 1970 की फिल्म अरनयार दीन रात्री में दिखाया गया है।

भाषा का अपमान और लैंगिक रूढ़िवादिता

तस्वीर साभार : Spotboye

भाषा भी एक ऐसा मुद्दा है जिस पर मेनस्ट्रीम मीडिया प्लेटफॉर्म्स हमेशा ठेस पहुंचाता है। कई बार हम देखते हैं कि अन्य भारतीय भाषाओं का मज़ाक बनाना एक सामान्य बात हो गई है। उदाहरण के लिए, फिल्म धमाल में जब एक पात्र जो तमिल भाषा में बात करता है, तो उसे एक मज़ाकिया तरीके से पेश किया जाता है। भारतीय फिल्मों में भाषाओं का अनादर विशेष रूप से महिलाओं के चित्रण में साफ दिखाई देता है। महिला पात्रों को हमेशा उनकी भाषाई पसंद से परिभाषित किया जाता है, जिसका उपयोग लैंगिक रूढ़िवादिता को मजबूत करने के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, जो महिलाएं क्षेत्रीय लहजे या बोलियों में बात करती हैं, उन्हें हमेशा अशिक्षित या हंसी के पात्र के रूप में दिखाया जाता है। इसके अलावा, हर जगह  हिंदी या अंग्रेजी बोलने वाली महिलाओं को आधुनिक, बेहतर और महत्वाकांक्षी के रूप में दिखाया जाता है।

प्रसिद्ध धारावाहिक ‘साथ निभाना साथिया’ में गोपी बहु को पढ़ी-लिखी न होने के कारण कई बार अपमान का सामना करना पड़ता है। धारावाहिक निर्माताओं ने भी गोपी के पात्र को ऐसा दिखाने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसी धारावाहिक का एक सीन जब गोपी लैपटॉप धोकर सुखा देती है। इसमें ऐसा दिखाया जाता है कि जो महिलाएं अच्छी हिंदी या अंग्रेजी बोलती हैं, वही समझदार और अच्छे चरित्र वाली और समझदार होती हैं। ऐसे सीन लोगों को यह यकीन दिलाते हैं कि अगर महिलाओं को समाज में सम्मान चाहिए, तो उन्हें सही भाषा बोलने आनी चाहिए। इससे समाज में मौजूद पुरुषों के बनाए नियम और उम्मीदें और मजबूत होती हैं। ये चीज़ें दर्शकों को सिखाती हैं कि बाकी भाषाएं कमज़ोर या बेकार हैं, जबकि सच तो ये है कि हर भाषा की अपनी खासियत और खूबसूरती होती है।

जो महिलाएं क्षेत्रीय लहजे या बोलियों में बात करती हैं, उन्हें हमेशा अशिक्षित या हंसी के पात्र के रूप में दिखाया जाता है। इसके अलावा हर जगह  हिंदी या अंग्रेजी बोलने वाली महिलाओं को आधुनिक, बेहतर और महत्वाकांक्षी के रूप में दिखाया जाता है।

धर्म के नाम पर भेदभाव

बहुत से ऐसे मेनस्ट्रीम मीडिया प्लेटफॉर्म्स में हम देख सकते हैं कि कैसे एक धर्म विशेष को केवल पूर्वाग्रह के आधार पर दिखाया जाता है। पद्मावत, सूर्यवंशी और द कश्मीर फाइल्स जैसी बॉलीवुड फिल्मों में मुस्लिम पात्रों को अक्सर दो ही धारणाओं में देखा जाता है। उन्हें आतंकवादी के रूप में पेश किया जाता है या फिर एक रूढ़िवादी व्यक्ति के तौर पर, जो महिलाओं का सम्मान नहीं करता है। इस तरह की नकारात्मक छवि न केवल मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत को बढ़ावा देती है। बल्कि एक बड़े समुदाय की विविधता और उनकी संस्कृति को भी सीमित कर देती है। कई फिल्मों में मुस्लिम किरदारों को ऐसे दिखाया गया है जैसे वे हमेशा हिंसा या कट्टरता के प्रति झुकाव रखते हैं, जबकि हकीकत में कई मुस्लिम लोग समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए काम कर रहे हैं। इस तरह की नकारात्मक छवियों से सिर्फ दर्शकों में गलतफहमियां ही नहीं बढ़ती, बल्कि ये उन लोगों की मेहनत और संघर्ष को भी नकार देती हैं। जो अपने समुदाय की सही तस्वीर पेश करने के लिए प्रयासरत हैं।

संवेदनशील बदलाव की आवश्यकता 

तस्वीर साभार : Filmi Beat

जब हम दूसरी संस्कृतियों को  केवल मनोरंजन का साधन समझते हैं, या उनके प्रतीकों का गलत उपयोग  करते हैं। तब हम न केवल उनकी वास्तविकता को कम करते हैं, बल्कि एक गहरे सामाजिक बंटवारे को भी जन्म देते हैं। भारत की विविधता इसकी पहचान है यहां की भाषाएं, कपड़े, रीति-रिवाज, और जिंदगी जीने का तरीका हमारे सांस्कृतिक धरोहर को दिखाते हैं। लेकिन जब मुख्यधारा का मीडिया इन विविधताओं को सिर्फ मज़ाक या पुराने विचारों के जरिए दिखाता है, तो यह न सिर्फ संवेदनशीलता की कमी को दिखाता है, बल्कि समाज में गहरे पूर्वाग्रह और असमानता को बढ़ावा देता है। दक्षिण भारतीयों की संस्कृति को सिर्फ उनके खाने और कपड़ों तक सीमित करना, आदिवासी समुदायों को अलग तरीके से दिखाना।

मुस्लिम किरदारों को हिंसा से जोड़ना और क्षेत्रीय भाषाएं बोलने वाली महिलाओं को कम महत्व देना, ये सब इसके उदाहरण हैं कि मीडिया का प्रभाव किस तरह पहचान को गढ़ता है या तोड़ता है। हमें ऐसे मीडिया की आवश्यकता है जो हर संस्कृति की विविधता को उसके पूरे सम्मान और गहराई के साथ दिखाए। जहां मज़ाक की आड़ में किसी की पहचान को छोटा न किया जाए और जहां प्रतिनिधित्व केवल प्रतीकात्मक न होकर सच्चा, समझदारी भरा और न्यायपूर्ण हो। क्योंकि विविधता जब तक केवल मनोरंजन का साधन बनी रहेगी, तब तक समानता और सम्मान का सपना अधूरा रहेगा। अब समय है कि हम सभी मिलकर एक संवेदनशील, समावेशी और सम्मानजनक मीडिया की मांग करें जो मजाक नहीं, बल्कि पहचान को महत्व दे।

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