संस्कृतिख़ास बात खास बात: गाँव की गलियों से अंतरराष्ट्रीय मैदान तक पहुंचने वाली रग्बी खिलाड़ी श्वेता शाही से

खास बात: गाँव की गलियों से अंतरराष्ट्रीय मैदान तक पहुंचने वाली रग्बी खिलाड़ी श्वेता शाही से

शुरुआत मेरे लिए बहुत मुश्किल थी, क्योंकि मैं एथलीट थी लेकिन रग्बी के बारे में कुछ नहीं जानती थी। धीरे-धीरे मैंने इसके नियम समझने शुरू किए। उस समय मुझे कोई औपचारिक ट्रेनिंग नहीं मिली थी, इसलिए मैं वीडियो देखकर ही इसे सीखने लगी।

भारत में क्रिकेट, हॉकी और कबड्डी जैसे खेल हमेशा चर्चा में रहते हैं। लेकिन कुछ खेल ऐसे भी हैं, जिनके बारे में आम लोग बहुत कम जानते हैं। रग्बी उन्हीं में से एक खेल है। यह खेल ताक़त, समझ और टीमवर्क पर आधारित है, फिर भी हमारे देश में इसे अभी तक सही पहचान नहीं मिली। ऐसे में अगर कोई खिलाड़ी बिहार जैसे राज्य से निकलकर देश और दुनिया में अपना नाम बनाए, तो यह असल में बड़ी उपलब्धि है। बिहार की रहने वाली श्वेता शाही ने रग्बी में ऐसी ही सफलता हासिल की है। उनकी कहानी सिर्फ़ एक खिलाड़ी की उपलब्धि नहीं, बल्कि उस संघर्ष और हिम्मत की मिसाल है, जो समाज की पाबंदियों और संसाधनों की कमी के बावजूद हार नहीं मानती। उन्हें ‘रग्बी गर्ल के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने यह साबित किया है कि अगर परिवार का साथ और खुद पर विश्वास हो, तो कोई भी सपना पूरा किया जा सकता है। आज वे न सिर्फ़ बिहार, बल्कि पूरे देश की लड़कियों के लिए उम्मीद और प्रेरणा का चेहरा बन चुकी हैं। भारत में इसकी की शुरुआत 19वीं सदी में हुई , जब अंग्रेज अधिकारी और सैनिक इसे खेला करते थे। हालांकि आज़ादी के बाद यह खेल हाशिए पर चला गया । आज भारत की महिला और पुरुष टीमें एशियाई स्तर पर खेल रही हैं, लेकिन अब भी यह खेल उतनी लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाया है जितनी आवश्यकता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया: आप उस राज्य से आती हैं, जहां लड़कियों के लिए शिक्षा पाना भी आसान नहीं होता। ऐसे में आपने खेल को चुना और इतना लंबा सफर तय किया। यह सब कैसे मुमकिन हो पाया?

श्वेता शाही: मेरा मानना है कि मेहनत और हिम्मत से सब कुछ संभव है। मैं जिस गांव से आती हूं, वहां लड़कियों को पढ़ाई तक करने नहीं दिया जाता, खेलना तो और भी मुश्किल है। लेकिन मेरे दादाजी और पिताजी ने हमेशा मेरा साथ दिया और मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। वे कहते थे कि खेल से मेरा भविष्य बेहतर हो सकता है। मेरे पिताजी एक किसान और मां गृहिणी हैं । हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी फिर भी उन्होंने मेरा साथ दिया। जब मैंने खेलना शुरू किया तब हमारे जिले में एक अच्छा ग्रांउड तक नहीं था और ना ही खेल को समझाने वाला कोई कोच था।

तस्वीर साभार : The Bridge

मैं रोज़ सुबह तीन-चार बजे उठकर सड़क किनारे दौड़ती थी। मुझे दौड़ते या खेलते देखकर लोग ताने मारते थे । बेटी को छोटे कपड़े पहना रहे हैं, क्या यह पी.टी. उषा बनेगी? रिश्तेदार भी कहते थे, अगर लड़की का हाथ-पैर टूट गया तो इसकी शादी कौन करेगा? और भी बहुत ताने दिए जाते थे। लेकिन मेरे परिवार को इन सब बातो का कोई प्रभाव नही पड़ा। उस समय मेरे पास खेल के लिए जरूरी सामान भी नहीं था। जूते, कपड़े और किट के लिए भी संघर्ष करना पड़ता था। इन चुनौतियों के बावजूद मैंने  हार नहीं मानी। मेरे परिवार के अटूट समर्थन और मेरी मेहनत ने मुझे यहां तक पहुंचाया।

मैं रोज़ सुबह तीन-चार बजे उठकर सड़क किनारे दौड़ती थी। मुझे दौड़ते या खेलते देखकर लोग ताने मारते थे । बेटी को छोटे कपड़े पहना रहे हैं, क्या यह पी.टी. उषा बनेगी? रिश्तेदार भी कहते थे । अगर लड़की का हाथ-पैर टूट गया तो इसकी शादी कौन करेगा?

फेमिनिज़म इन इंडिया: रग्बी जैसे कम चर्चित खेल को चुनना एक साहसी फैसला था। इस सफर में आपके सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या रही?

श्वेता शाही:  शुरुआत मेरे लिए बहुत मुश्किल थी, क्योंकि मैं एथलीट थी लेकिन रग्बी के बारे में कुछ नहीं जानती थी। धीरे-धीरे मैंने इसके नियम समझने शुरू किए। उस समय मुझे कोई औपचारिक ट्रेनिंग नहीं मिली थी, इसलिए मैं वीडियो देखकर ही इसे सीखने लगी । मैंने इस खेल के बारे में पहली बार रग्बी सेक्रेटरी से सुना था। उस समय वे टीम बनाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन खिलाड़ियों की संख्या बहुत कम थी। क्योंकि यह एक फुल बॉडी कॉन्टैक्ट वाला खेल है, इसलिए लड़कियां इसे आसानी से अपनाना नहीं चाहती थीं और परिवार वाले भी उन्हें खेलने की इजाज़त नहीं देते थे। उस दौरान मैं दौड़ने जाती थी, तब मेरे भाई ने आस-पास की लड़कियों को इस खेल से जोड़ना शुरू किया। हम मिलकर अभ्यास करते थे और धीरे-धीरे हमने मजबूत टीम बनाई। यह खेल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाता है। मैंने खुद लड़कों और लड़कियों को ट्रेनिंग देना शुरू किया जिससे कुछ खिलाड़ी नेशनल तक खेल चुके हैं।

तस्वीर साभार : The Bridge

फेमिनिज़म इन इंडिया: क्या आपको लगता है कि बिहार या भारत में रग्बी को अभी भी पहचान और मौके नहीं मिल रहे? इसे बदलने के लिए क्या किया जा सकता है?

श्वेता शाही: सरकार को चाहिए कि रग्बी और ऐसे दूसरे कम लोकप्रिय खेलों के लिए बजट बढ़ाए। साथ ही, निजी कंपनियों को खिलाड़ियों को स्पॉन्सर करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। इसे स्कूल और कॉलेजों में एक विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि बच्चे इसे शुरू से ही सीख सकें। मीडिया को भी इन खेलों को ज़्यादा जगह देनी चाहिए, ताकि लोगों और स्पॉन्सर्स का ध्यान इस पर जाए। इन कदमों से खिलाड़ियों को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा मिलेगी और वे बिना किसी चिंता के सिर्फ खेल पर ध्यान दे पाएंगे।

शुरुआत मेरे लिए बहुत मुश्किल थी, क्योंकि मैं एथलीट थी लेकिन रग्बी के बारे में कुछ नहीं जानती थी। धीरे-धीरे मैंने इसके नियम समझने शुरू किए। उस समय मुझे कोई औपचारिक ट्रेनिंग नहीं मिली थी, इसलिए मैं वीडियो देखकर ही इसे सीखने लगी ।

फेमिनिज़म इन इंडिया: कम उम्र में इतनी बड़ी उपलब्धियां  हासिल करने की आपकी प्रेरणा क्या रही, और क्या आज बिहार की लड़कियों के लिए खेलों में आगे बढ़ना आसान हुआ है?

श्वेता शाही: मेरे लिए सबसे बड़ी प्रेरणा मेरे माता-पिता और मेरी टीम रही। जब मैंने पहला मेडल जीता, तो लगा कि मेरी सारी मेहनत सफल हो गई। उस समय मेरे मन में यह विश्वास भी पैदा हुआ कि अगर मैं लगातार मेहनत करूंगी, तो और बड़ी सफलताएं  हासिल कर सकती हूं । बिहार राज्य से आने वाली लड़कियों के लिए चुनौतियां आज भी हैं, लेकिन अब स्थिति पहले से बेहतर हुई है। सरकार और समाज में खेलों को लेकर जागरूकता बढ़ी है और कई माता-पिता अब अपनी बेटियों को खेलने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। एसोसिएशन में चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी एक बड़ी चुनौती है। कई बार प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की जगह ऐसे खिलाड़ियों को चुना जाता है जिनका चयन ‘सांस्कृतिक’ या ‘राजनीतिक’ कारणों से होता है और आवाज उठाने पर खेलने नहीं दिया जाता है। इस स्थिति को बदलने के लिए एक निष्पक्ष चयन समिति और पारदर्शिता लाना ज़रूरी है।

तस्वीर साभार : The Bridge

फेमिनिज़म इन इंडिया: बिहार की ‘मेडल लाओ और नौकरी पाओ’ योजना के तहत आपको सब इंस्पेक्टर की नौकरी मिली। इस प्रकार की सरकारी पहलें क्या महिला खिलाड़ियों के लिए महत्वपूर्ण हैं? अगर हां, तो कैसे और क्यों?

श्वेता शाही: हां, यह योजना महिला खिलाड़ियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। यह हमें आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है और हमारे करियर को स्थिरता देती है। इससे हमें रोज़गार की चिंता नहीं रहती। हम अपने परिवार की आर्थिक मदद कर सकते हैं और पूरी तरह से खेल पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। नौकरी मिलने से समाज में हमारा सम्मान बढ़ता है। इससे अन्य लड़कियों को भी प्रेरणा मिलती है कि वे खेलों को अपना करियर बना सकती हैं।

एसोसिएशन में चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी एक बड़ी चुनौती है। कई बार प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की जगह ऐसे खिलाड़ियों को चुना जाता है जिनका चयन ‘सांस्कृतिक’ या ‘राजनीतिक’ कारणों से होता है और आवाज उठाने पर खेलने नहीं दिया जाता है। इस स्थिति को बदलने के लिए एक निष्पक्ष चयन समिति और पारदर्शिता लाना ज़रूरी है।

तस्वीर साभार : Asia Rugby

फेमिनिज़म इन इंडिया:  क्या रग्बी जैसे खेल में खेलने वाले खिलाड़ियों के लिए रोज़गार और सम्मानजनक आमदनी की पर्याप्त संभावनाएं मौजूद हैं? क्या सरकार या किसी अन्य संस्था से उन्हें इतना आर्थिक सहयोग मिल पाता है कि वे इस खेल को अपना करियर बना सकें और आत्मनिर्भर रह सकें?

श्वेता शाही: अभी तक रग्बी जैसे खेलों में खिलाड़ियों के लिए रोज़गार और आर्थिक सहयोग की पर्याप्त संभावनाएं नहीं हैं। क्रिकेट के मुकाबले, इसे बहुत कम कॉर्पोरेट स्पॉन्सरशिप मिलती है। अधिकांश खिलाड़ियों को आर्थिक रूप से संघर्ष करना पड़ता है। सरकार की कुछ योजनाएं, जैसे मेडल लाओ और नौकरी पाओ‘, मदद करती हैं, लेकिन यह सभी खिलाड़ियों के लिए पर्याप्त नहीं है। इस स्थिति को सुधारने के लिए कॉर्पोरेट कंपनियों को सामाजिक ज़िम्मेदारी (सीएसआर ) के तहत रग्बी खिलाड़ियों को स्पॉन्सर करना चाहिए। साथ ही सरकार को खिलाड़ियों को मासिक वजीफा और करियर विकल्प प्रदान करने के लिए विशेष योजनाएं बनानी चाहिए। जब तक खिलाड़ियों को आर्थिक सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक वे इस खेल को अपना करियर बनाने से हिचकिचाएंगे।

फेमिनिज़म इन इंडिया: इस खेल में आप मानसिक और शारीरिक थकान को कैसे संभालती हैं? टीम का सहयोग इसमें कितना सहायक होता है?

श्वेता शाही: यह शारीरिक रूप से बेहद थकाने वाला खेल है, और इसमें जख्मी होना आम बात है। मैं इन सब से निपटने के लिए, आराम और सही पोषण पर ध्यान देती हूं । मैं अपनी रिकवरी के लिए पर्याप्त नींद लेती हूं और पौष्टिक आहार लेती हूं । मेरी टीम का सहयोग इसमें सबसे महत्वपूर्ण होता है। हम सिर्फ खिलाड़ी नहीं, बल्कि एक परिवार हैं। जब कोई खिलाड़ी घायल होता है, तो हम सब मिलकर उसका ध्यान रखते हैं। टीम के सदस्यों के बीच मजबूत बॉन्डिंग और एक-दूसरे के प्रति सम्मान हमें मुश्किल समय में एक-दूसरे का समर्थन करने में मदद करता है। 

अभी तक रग्बी जैसे खेलों में खिलाड़ियों के लिए रोज़गार और आर्थिक सहयोग की पर्याप्त संभावनाएं नहीं हैं। क्रिकेट के मुकाबले, इसे बहुत कम कॉर्पोरेट स्पॉन्सरशिप मिलती है। अधिकांश खिलाड़ियों को आर्थिक रूप से संघर्ष करना पड़ता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया: आप भारतीय खेल नीतियों में कौन से बदलाव देखना चाहती हैं ताकि रग्बी जैसी खेलों को ज़्यादा पहचान और खिलाड़ियों को सहारा मिल सके?

तस्वीर साभार : The Bridge

श्वेता शाही: सबसे पहले हर जिले और ब्लॉक में रग्बी के लिए अच्छी सुविधाएं और पेशेवर कोच होने चाहिए। चयन समिति में ऐसे लोग होने चाहिए जो खेल को समझते हो और निष्पक्ष रूप से खिलाड़ियों का चयन करें ।  खिलाड़ियों को प्रशिक्षण, यात्रा और उपकरण के लिए वित्तीय सहायता मिलनी चाहिए। अगर ये बदलाव होगा तो संभव है कि रग्बी जैसे खलों को प्रोत्साहन मिलेगा औऱ नए प्रतिभाशाली खिलाड़ी आएंगे।

फेमिनिज़म इन इंडिया: वर्ल्ड रग्बी कैंपेन वीडियो में आपका चयन भारत के लिए क्या मायने रखता है और भारत में महिला रग्बी को प्रभावित करता है?

श्वेता शाही: वर्ल्ड रग्बी कैंपेन में मेरा चयन एक बड़ा सम्मान है और यह पूरे भारतीय रग्बी के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। इसका मतलब यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय महिला रग्बी को पहचान मिल रही है। भारत की महिला रग्बी को दुनिया भर में एक नया मंच मिला है। यह वीडियो भारत की अन्य युवा लड़कियों को प्रेरित करेगा कि वे भी इसे चुनें और अपने सपनों को पूरा करें।  इस तरह के अंतरराष्ट्रीय एक्सपोज़र से भारत में रग्बी को और अधिक स्पॉन्सरशिप और आर्थिक सहायता मिल सकती है। यह एक संकेत है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और हमें अब रुकना नहीं चाहिए।

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