कार्यस्थल पर महिलाओं का इतिहास केवल रोज़गार पाने की कहानी नहीं है, बल्कि यह महिलाओं के लिए समाज में बराबरी, अपनी पहचान और सम्मान के लिए लगातार चल रहे संघर्ष की यात्रा है। भारत में महिलाओं ने घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर कपड़ा मिलों से लेकर खेतों, फैक्टरियों, मज़दूर आंदोलनों, आधुनिक दफ़्तरों और सेनाओं तक अपनी जगह बनाई। लेकिन यह सफ़र आसान नहीं था। पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचा, लैंगिक भेदभाव, काम के सीमित अवसर, कम मज़दूरी, असुरक्षित माहौल और यौन हिंसा जैसी बाधाओं ने हमेशा उनके सामने चुनौतियां खड़ी की हैं। इन मुश्किलों के बावजूद महिलाओं ने हर दौर में अपनी भागीदारी दर्ज की और सामूहिक आंदोलनों, क़ानूनी सुधारों और सामाजिक जागरूकता के माध्यम से कार्यस्थल पर अपनी पहचान की नई परिभाषा बनाई।
अनसूया का योगदान और महिला आंदोलनों की शुरुआत

इतिहास की शुरुआत से लेकर आज तक महिलाएं हर क्षेत्र में बढ़-चढ़कर काम करती रही हैं। साल 1920 और 1930 के दशक में अहमदाबाद की कपड़ा मिलों में हज़ारों महिलाएं काम करती थीं। लेकिन इन महिलाओं को पुरुषों की तुलना में बहुत कम वेतन मिलता था और कठिन परिस्थितियों में श्रम करना पड़ता था। अनसूया साराभाई के नेतृत्व में महिला श्रमिकों ने उचित वेतन और कार्यस्थल पर सुरक्षित माहौल की मांग को लेकर एक बड़ी हड़ताल की। अनसूया, जिन्हें श्रमिक आंदोलन की ‘मोटाबेन’ कहा जाता है, उन्होंने महात्मा गांधी के साथ मिलकर इस विवाद को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस हड़ताल के परिणामस्वरूप ‘मजदूर महाजन संघ’ (टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन) का गठन हुआ, जो आगे चलकर भारत का पहला औपचारिक ट्रेड यूनियन बना और महिला श्रमिकों की भागीदारी की एक मिसाल कायम हुई।
साल 1920 और 1930 के दशक में अहमदाबाद की कपड़ा मिलों में हज़ारों महिलाएं काम करती थीं। लेकिन इन महिलाओं को पुरुषों की तुलना में बहुत कम वेतन मिलता था और कठिन परिस्थितियों में श्रम करना पड़ता था।
साल 1940 के दशक में महिलाओं की भूमिका किसान आंदोलनों में भी उभरकर सामने आई। साल 1946 में बंगाल के तेभागा आंदोलन में महिला किसानों ने फसल की ढेरी के चारों ओर मानवीय श्रृंखला बनाकर या फसल के चारों ओर खड़े होकर विरोध किया। इसी समय, साल 1946 में निज़ामशाही के अधीन हैदराबाद में हुए तेलंगाना किसान संघर्ष में भी महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी निभाई। भूमिहीन और कथित दलित वर्ग की महिला श्रमिकों को सामंती जमींदार बंधुआ मज़दूरी के लिए मजबूर करते थे । इसके खिलाफ 1946 से 1951 के बीच हुए तेलंगाना सशस्त्र किसान विद्रोह में महिलाओं ने छापामार संघर्ष में हिस्सा लिया, हथियार छिपाए और भोजन की आपूर्ति संगठित की। भले ही यह विद्रोह दबा दिया गया, लेकिन इसने भूमि सुधार और ग्रामीण नारीवादी आंदोलनों को दिशा दी।
समान वेतन और अधिकार की लड़ाई

साल 1950 के दशक में आज़ादी के बाद संविधान ने समानता की गारंटी दी, लेकिन महिला श्रमिकों को अब भी भेदभाव का सामना करना पड़ा। इसी समय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेन एसोसिएशन ( एआईडीडब्ल्यूए ) सामने आया जिसने कारखानों, खेतों और घरों में महिलाओं को संगठित किया और समान वेतन, मातृत्व लाभ और काम पर बच्चों की देखभाल की सुविधाओं की मांग की। एआईडीडब्ल्यूए ने श्रम अधिकारों को नारीवादी राजनीति से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई और मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 जैसे कानूनों को प्रभावित किया।1960 के दशक में, लेकिन महिलाओं को ज़मीन के स्वामित्व से अब भी बाहर रखा गया। बाद में केरल कृषि श्रमिक अधिनियम, 1974 ने खेती में महिला श्रमिकों के अधिकारों को मान्यता दी। हालांकि ज़मीन के स्वामित्व में असमानता बनी रही। 1970 का दशक अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के लिए अहम रहा।
साल 1946 में बंगाल के तेभागा आंदोलन में महिला किसानों ने फसल की ढेरी के चारों ओर मानवीय श्रृंखला बनाकर या फसल के चारों ओर खड़े होकर विरोध किया। इसी समय, साल 1946 में निज़ामशाही के अधीन हैदराबाद में हुए तेलंगाना किसान संघर्ष में भी महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी निभाई।
सड़क विक्रेता, घर-आधारित या घरेलू उद्योग श्रमिक और कचरा बीनने वाली महिलाएं कानूनी सुरक्षा से वंचित थीं। इस स्थिति में वकील इला भट्ट ने स्व-नियोजित महिला संघ (सेवा) की स्थापना की, जिसमें महिलाओं को संगठित करने के साथ-साथ उन्हें बैंकिंग, स्वास्थ्य सेवाएं और कानूनी सहायता भी उपलब्ध कराई गई। उन्होंने देखा कि कई महिलाएं जो घर पर या कोई छोटा – मोटा काम करती थीं, अपनी कमाई को अपने पतियों से छुपाती थीं, क्योंकि उनके पति इसे अच्छा नहीं मानते थे। इला ने महिलाओं को हिम्मत दी कि वे अपनी कमाई पर गर्व करें और इसे छुपाने की ज़रूरत नहीं है । भारत में साल 1976 में समान पारिश्रमिक अधिनियम लागू किया गया, जिसका उद्देश्य महिलाओं और पुरुषों के बीच वेतन में होने वाले भेदभाव को समाप्त करना था। इस क़ानून में यह सुनिश्चित करने की कोशिश की गई, कि समान काम करने पर हर इंसान को समान वेतन मिलना चाहिए ।
रोज़गार, सुरक्षा और सेना में महिलाओं की भर्ती
1980 के दशक में वैश्वीकरण और औद्योगिक गिरावट ने महिला श्रमिकों को गहरा झटका दिया। मिलों के बंद होने से हज़ारों महिलाएं बेरोज़गार हो गईं। उन्होंने छंटनी के खिलाफ विरोध किया और पुनर्वास व पेंशन की मांग उठाई। हालांकि यह हड़ताल सफल नहीं हुई, लेकिन इसने औद्योगिक क्षेत्र में महिलाओं की असुरक्षा को उजागर किया। साल 1982 बॉम्बे टेक्सटाइल हड़ताल के दौरान महिला श्रमिकों ने फैक्ट्री के फाटकों को सामूहिक रसोई में बदल दिया और 18 महीने तक ढाई लाख हड़ताली मज़दूरों के लिए खाना पकाया। साल1990 के दशक में कार्यस्थल पर यौन हिंसा के खिलाफ महिलाओं ने आवाज़ बुलंद की, जिसमें राजस्थान की भंवरी देवी, जो एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता थीं, बीबीसी में छपी खबर के मुताबिक, उन्हें बाल विवाह रोकने के प्रयास में सामूहिक बलात्कार का सामना करना पड़ा। उनके मामले ने भारत में कार्यस्थल पर यौन हिंसा के खिलाफ पहले कानूनी दिशा निर्देश, विशाखा दिशा निर्देश साल 1997 का आधार बनाया। इन्हीं दिशानिर्देशों के आधार पर आगे चलकर साल 2013 में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम बनाया गया।
सड़क विक्रेता, घर-आधारित या घरेलू उद्योग श्रमिक और कचरा बीनने वाली महिलाएं कानूनी सुरक्षा से वंचित थीं। इस स्थिति में वकील इला भट्ट ने स्व-नियोजित महिला संघ (सेवा) की स्थापना की, जिसमें महिलाओं को संगठित करने के साथ-साथ उन्हें बैंकिंग, स्वास्थ्य सेवाएं और कानूनी सहायता भी उपलब्ध कराई गई।
साल 1992 से भारतीय सशस्त्र बलों ने महिलाओं के लिए गैर-चिकित्सा पदों पर भर्ती की शुरुआत की, जिससे सेना में उनकी भागीदारी के नए अवसर खुले। साल 2005 में महिला श्रमिक आंदोलनों के दबाव ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (नरेगा) को जन्म दिया। मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस ) जैसे नारीवादी संगठनों के संघर्ष से ग्रामीण परिवारों को हर साल 100 दिन का भुगतान युक्त कार्य सुनिश्चित हुआ, जिसमें महिलाओं के लिए 33फीसदी आरक्षण भी रखा गया। इसने ग्रामीण भारत में पुरुषों और महिलाओं के वेतन अंतर को कम करने में मदद की। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, साल 2015 में भारत सरकार ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए घोषणा की कि महिलाएं अब भारतीय वायु सेना में लड़ाकू पायलट के रूप में अपनी भूमिका निभा सकेंगी। यह कदम न केवल सेना में महिलाओं की भागीदारी का दायरा बढ़ाने वाला था, बल्कि लंबे समय से चले आ रहे लैंगिक अवरोधों को तोड़ने वाला भी साबित हुआ।
आशा कार्यकर्ताओं से लेकर महिला किसानों की हक़ के लिए लड़ाई

मी टू आंदोलन ने भी भारत में कार्यस्थल पर महिलाओं के संघर्ष को नई दिशा दी। साल 2017 के बाद इस आंदोलन ने महिलाओं को आगे आकर अपने साथ हुए यौन हिंसा के अनुभव को साझा करने का साहस दिया। इससे मीडिया, फ़िल्म, शिक्षा और राजनीति जैसे क्षेत्रों में छिपे अन्याय उजागर हुए और सुरक्षित कार्यस्थल की मांग मज़बूत हुई। इसने महिलाओं को सामूहिक आवाज़ दी और उनके सम्मान व सुरक्षा की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । भारत में अधिकांश आशा कार्यकर्ता महिलाएं थीं, जिन्हें बिना निश्चित वेतन या लाभ के काम करना पड़ता था। उन्होंने न्यूनतम वेतन और औपचारिक श्रमिक का दर्जा दिए जाने की मांग उठाई। इसके लिए साल 2018 में आशा कार्यकर्ताओं ने आंदोलन का आहवान किया। कुछ राज्यों ने उनका मानदेय बढ़ाया, लेकिन पूर्ण मान्यता अब भी लंबित रही।
जुलाई 2023 से जून 2024 की अवधि में 15 साल और उससे अधिक उम्र के व्यक्तियों के लिए श्रम बल भागीदारी दर 60.1 फीसदी रही, जिसमें पुरुषों की भागीदारी 78.8 फीसदी और महिलाओं की 41.7 फीसदी दर्ज की गई। यह आंकड़ा पुरुषों और महिलाओं के बीच श्रम बल के बड़े अंतर को सामने लाता है।
साल 2020–21 में किसान आंदोलनों में भी महिलाओं की भागीदारी उल्लेखनीय रही। हज़ारों महिला किसानों ने कृषि कानून के विरोध में धरने लगाए और रैलियों का नेतृत्व किया। हालांकि इन कानूनों को वापस ले लिया गया, लेकिन महिला किसानों के ज़मीन के अधिकार और आर्थिक सुरक्षा का मुद्दा आज भी सुलझा नहीं है। मौजूदा समय को देखते हुए कहा जा सकता है कि संवैधानिक सुधारों, नारीवादी आंदोलनों और सामाजिक जागरूकता ने महिलाओं के जीवन में निर्णायक परिवर्तन तो लाए, लेकिन यह बदलाव अभी भी अधूरा है। हालांकि शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रगति हुई है, फ़िर भी निरंतर असमानताएं बनी हुई हैं।
द इकोनॉमिक टाइम्स में छपी आवधिक श्रम बल ( पीएलएफएस) की साल 2023–24 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कुल साक्षरता दर 80.9 प्रतिशत है, जिसमें पुरुषों की साक्षरता दर 85 .6 फीसदी और महिलाओं की साक्षरता दर 73.7 फीसदी है, यानी दोनों के बीच लगभग 12 फीसदी का अंतर अब भी मौजूद है। इसी रिपोर्ट के अनुसार जुलाई 2023 से जून 2024 की अवधि में 15 साल और उससे अधिक उम्र के व्यक्तियों के लिए श्रम बल भागीदारी दर 60.1 फीसदी रही, जिसमें पुरुषों की भागीदारी 78.8 फीसदी और महिलाओं की 41.7 फीसदी दर्ज की गई। यह आंकड़ा पुरुषों और महिलाओं के बीच श्रम बल के बड़े अंतर को सामने लाता है।
अंत में यह कहा जा सकता है कि महिलाओं ने कार्यस्थल पर अपनी जगह बनाने और अपने हक़ का सम्मान पाने के लिए हर संभव कोशिश की है। चाहे वह पुरुषों के समान वेतन की लड़ाई हो या कार्यस्थल पर होने वाली हिंसा के खिलाफ़ कानूनी संघर्ष, उन्होंने हर मोर्चे पर खुद को साबित किया और समाज की जड़ों में मौजूद लैंगिक भेदभाव के सामने डटकर खड़ी रहीं। आंकड़े भले ही अभी संतोषजनक न हों, लेकिन यह संघर्ष एक ऐसा मील का पत्थर है जो आने वाली पीढ़ियों की राह को दिशा देता है। धीरे-धीरे ही सही, महिलाओं को उनके हक़ का सम्मान और स्थान दोनों मिल रहे हैं। हालांकि अभी भी महिलाओं को अपने अधिकारों और कार्यस्थल पर पूर्ण समानता हासिल करने में लंबा रास्ता तय करना बाकी है।

