भारत के ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा का अहम हिस्सा निभाती आशा कार्यकर्ता, आज भी खुद ही बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं। साल 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत नियुक्त इन महिलाओं की ज़िम्मेदारियां लगातार बढ़ी हैं, लेकिन उन्हें अब भी ‘स्वयंसेविका’ के रूप में बताया जाता है। इसका मतलब है कि न तो इन्हें अच्छा मानदेय दिया जाता है, न पेंशन और न ही कोई सामाजिक सुरक्षा। प्रोत्साहन आधारित भुगतान प्रणाली में उन्हें हर सेवा के लिए कुछ सौ रुपये मिलते हैं, जो कई बार महीनों तक लंबित रहता है। साल 2022 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने उन्हें ग्लोबल हेल्थ लीडर्स अवार्ड से नवाज़ा, लेकिन भारत में यह सम्मान नीतियों में बदलाव नहीं ला सका है। देशभर में आशा कार्यकर्ताएं नियमित वेतन और सरकारी कर्मचारी का दर्जा पाने के लिए हजारों आंदोलन कर चुकी हैं।
बावजूद इसके, नीति निर्धारण में उनकी आवाज़ अब भी गुम है। यह स्थिति इस बात को साफ करती है कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था आज भी महिला श्रम के कमतर या बिना वेतन वाले काम पर निर्भर है लेकिन उसे वह ओहदा देने को समाज या सरकार तैयार नहीं। जनवरी 2024 की शुरुआत में, केरल की आशा कार्यकर्ताओं ने कोच्चि में विरोध प्रदर्शन की शुरुआत की। उनकी मुख्य मांगें थीं — तीन महीने से लंबित प्रोत्साहन राशि और दो महीने से अटके हुए मासिक मानदेय का तत्काल भुगतान। ये महिलाएं, जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच स्वास्थ्य सेवाओं की पहली कड़ी हैं, आज खुद बुनियादी वेतन और अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर हैं।

फरवरी आते-आते यह आंदोलन राज्य भर में फैल गया। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) से जुड़ी अन्य महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता भी प्रदर्शन में शामिल हो गईं। सरकार पर आरोप लगा कि केंद्र द्वारा 820 करोड़ रुपये की राशि जारी न किए जाने के कारण न केवल वेतन वितरण बाधित हुआ, बल्कि स्वास्थ्य सेवाएं भी प्रभावित हो रही हैं। जिन सेवाओं में इन कार्यकर्ताओं की प्रमुख भूमिका होती है, जैसे कि टीकाकरण अभियान, प्रसव संबंधी देखभाल और रोग-नियंत्रण, वे भी संकट में पड़ गईं।
सरकार पर आरोप लगा कि केंद्र द्वारा 820 करोड़ रुपये की राशि जारी न किए जाने के कारण न केवल वेतन वितरण बाधित हुआ, बल्कि स्वास्थ्य सेवाएं भी प्रभावित हो रही हैं। जिन सेवाओं में इन कार्यकर्ताओं की प्रमुख भूमिका होती है, जैसे कि टीकाकरण अभियान, प्रसव संबंधी देखभाल और रोग-नियंत्रण, वे भी संकट में पड़ गईं।
क्या है मुख्य मांगे
मार्च 2024 में आंदोलन ने और तेज़ रुख़ अख्तियार किया। तिरुवनंतपुरम स्थित सचिवालय के बाहर आशा कार्यकर्ताओं ने लगातार 36 दिनों तक धरना दिया। उनकी प्रमुख मांगों में 21 हजार का न्यूनतम मासिक वेतन, समय पर सभी लंबित भुगतानों का निपटान, सेवा समाप्ति पर 5 लाख की एकमुश्त राशि, और सरकारी कर्मचारी का दर्जा था। यह विरोध केवल वेतन वृद्धि की मांग नहीं था, बल्कि प्रणालीगत उपेक्षा के ख़िलाफ़ एक संगठित प्रतिरोध था। इन महिलाओं ने कोविड महामारी के दौर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कोविड महामारी के समय बिना सुरक्षा उपकरणों के घर-घर जाकर जागरूकता फैलाना, टीकाकरण और दवाइयाँ वितरित करने को कोई नहीं भूल सकता। जनवरी 2024 में शुरू हुई असंतोष की यह लहर फरवरी 2025 में फिर एक बार केरल की सड़कों पर लौट आई, जब आशा कार्यकर्ताओं ने तिरुवनंतपुरम में अनिश्चितकालीन हड़ताल का ऐलान किया।

आंदोलन की शुरुआत 10 फरवरी 2025 से हुई, और जैसे-जैसे यह आगे बढ़ा, सरकार के प्रति नाराज़गी और गहराती गई। आशा कार्यकर्ताओं के आंदोलन के दौरान कुछ श्रम संगठनों ने सहयोग देने के बजाय विरोधाभासी रुख अपनाया। भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (CITU) ने त्रिशूर की चार आशा कार्यकर्ताओं को आंदोलन में भाग लेने पर संगठन से निष्कासित कर दिया। वहीं, एलडीएफ सरकार ने आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संगठन केरल आशा हेल्थ वर्कर्स एसोसिएशन (KAHWA) को छोटा बताकर आंदोलन को कमतर आंकने की कोशिश की। हालांकि, आंदोलन KAHWA की सीमाओं से आगे बढ़ चुका था और कई कार्यकर्ताओं ने यूनियन से इतर जाकर इसका समर्थन किया।
शुरुआत में, मुझे सिर्फ आस-पड़ोस के लोगों की हालचाल पूछने के लिए कहा गया था, तब मैं इसके अलावा कुछ और काम भी करती थी। मगर जल्द ही यह भूमिका बहुत व्यापक हो गई।
निष्कासन की समस्या और आशा कार्यकर्ता पर बोझ
जूनियर हेल्थ इंस्पेक्टर (JHI) की कॉल्स तब शुरू हुईं जब एक टीवी चैनल की क्लिप में चार आशा कार्यकर्ताओं की पहचान आंदोलन में भाग लेते हुए हो गई। उन्होंने कहा कि आंदोलन में शामिल होना उनका संवैधानिक अधिकार है और रविवार को बाहर जाने के लिए अनुमति लेना जरूरी नहीं होना चाहिए। उनके मुताबिक पहले भी वे प्रदर्शन स्थल पर गई थीं, लेकिन इस बार वीडियो क्लिप के ज़रिए उनकी पहचान सार्वजनिक हो गई थी। इसके बाद CITU ने अनुशासन का हवाला देते हुए इन चारों को स्थानीय व्हाट्सएप समूह से निष्कासित कर दिया। हालांकि, इसका उनके कार्यक्षेत्र पर कोई असर नहीं पड़ा। वहीं प्रदर्शन के 50वें दिन, महिलाओं ने बाल काटकर और सिर मुंडवाकर सरकार की चुप्पी के खिलाफ अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दर्ज की। यह आंदोलन अब केवल आर्थिक नहीं, बल्कि पहचान और सम्मान की लड़ाई बन चुकी थी।

इस विषय पर 59 वर्षीय आशा वर्कर गीता बताती हैं कि उन्होंने यह काम बेहद साधारण अपेक्षाओं के साथ शुरू किया था। वह कहती हैं, “शुरुआत में, मुझे सिर्फ आस-पड़ोस के लोगों की हालचाल पूछने के लिए कहा गया था, तब मैं इसके अलावा कुछ और काम भी करती थी। मगर जल्द ही यह भूमिका बहुत व्यापक हो गई।” नेशनल हेल्थ सिस्टम्स रिसोर्स सेंटर के अनुसार, आज एक आशा कार्यकर्ता को 45 से अधिक कामों का बोझ उठाना पड़ता है। इसमें टीकाकरण, टीबी देख-रेख, मातृ-शिशु स्वास्थ्य और नॉन-कम्युनिकेबल बीमारियों के प्रबंधन जैसे काम शामिल हैं। फिर भी ज़्यादातर आशा वर्कर्स को मात्र 2,000–3,000 प्रतिमाह मानदेय मिलता है, जो न्यूनतम मज़दूरी से भी काफी कम है। गीता आगे कहती हैं, “इन सालों में काम का बोझ बढ़ गया है, लेकिन वेतन बहुत कम है। अब और काम करने की ताकत नहीं है, तो इसी में लगी हूं।”
जनवरी 2024 में शुरू हुई असंतोष की यह लहर फरवरी 2025 में फिर एक बार केरल की सड़कों पर लौट आई, जब आशा कार्यकर्ताओं ने तिरुवनंतपुरम में अनिश्चितकालीन हड़ताल का ऐलान किया।
आखिर सरकार आशा कार्यकर्ताओं की क्यों नहीं सुन रही
नैशनल इंस्टिट्यूट्स ऑफ हेल्थ की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि कोविड महामारी के दौरान ग्रामीण इलाकों में संक्रमण रोकने में आशा कार्यकर्ताओं की भूमिका अहम रही। इसके बावजूद, न तो उन्हें पर्याप्त सुरक्षा उपकरण दिए गए और न ही कोई विशेष भत्ता मिला। इसके विपरीत, सरकार उन्हें अब भी ‘वॉलंटियर’ यानी स्वयंसेवक कहती है—एक ऐसा लेबल जिससे कई आशाएं आहत भी होती हैं। तिरुवनंतपुरम की 56 वर्षीय सिंधु कहती हैं, “मुझे ‘वॉलंटियर’ कहलाना अच्छा नहीं लगता। मुझे आशा वर्कर कहकर नियुक्त किया गया था। जब मीडिया हमें वॉलंटियर कहता है, तो दुख होता है। सरकारी दफ्तरों और मोहल्ले में आज भी लोग हमें आशा वर्कर ही कहते हैं।” उनकी यह आपत्ति केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि एक व्यापक नीति विरोध का हिस्सा है, जो देशभर में आशाओं के आंदोलनों में दिखाई देता है।

आंदोलन में भाग लेना आशा कार्यकर्ताओं के लिए सिर्फ पेशेवर फैसला नहीं है। यह उनके लिए सामाजिक और पारिवारिक लड़ाई का हिस्सा बन जाता है। 48 वर्षीय शीजा बताती हैं कि उन्हें अपने परिवार का पूरा समर्थन मिलता है, “मेरे पति और बच्चे खाना और सफाई जैसे सारे काम संभालते हैं। वे मेरी जिम्मेदारियां समझते हैं और कहते हैं कि अपने हक़ के लिए विरोध करना जायज़ है।” कई आशा कार्यकर्ता अपनी जिम्मेदारियों से आगे बढ़कर सेवाएं देती हैं। एक शोध के अनुसार एक आशा कार्यकर्ता रोज़ाना औसतन 8 से 10 घंटे फील्ड में काम करती हैं जिसमें से अमूमन अधिकतर कामों का उन्हें कोई भुगतान नहीं मिलता।
मार्च 2024 में आंदोलन ने और तेज़ रुख़ अख्तियार किया। तिरुवनंतपुरम स्थित सचिवालय के बाहर आशा कार्यकर्ताओं ने लगातार 36 दिनों तक धरना दिया। उनकी प्रमुख मांगों में 21 हजार का न्यूनतम मासिक वेतन, समय पर सभी लंबित भुगतानों का निपटान, सेवा समाप्ति पर 5 लाख की एकमुश्त राशि, और सरकारी कर्मचारी का दर्जा था।
नजरअंदाज की गई आशा कार्यकर्ताओं का भविष्य
आशा कार्यकर्ताओं की स्थिति भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली में मौजूद विडंबना को उजागर करती है। वे दूरदराज़ और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ हैं, फिर भी उन्हें समय-समय पर ‘स्वयंसेवक’ कहकर उनके योगदान को नकारा जाता है। इन महिलाओं की भूमिका को न केवल अनदेखा किया जाता है, बल्कि उन्हें नियमित कर्मचारियों जैसी सामाजिक सुरक्षा, सम्मान और सुविधाएं भी नहीं मिलतीं। आशा कार्यकर्ताओं की कहानियां यह सोचने पर मजबूर करती है कि समाज उनके योगदान को कैसे पहचानता है। वे केवल स्वास्थ्य सेवाएं नहीं देतीं, बल्कि जागरूकता, रोगों की रोकथाम और आपातकाल में भी सबसे आगे रहती हैं। इसके बावजूद, उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता जिसकी वे हकदार हैं। यह हमें याद दिलाता है कि स्वास्थ्य सेवाएं केवल अस्पतालों तक सीमित नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर काम करने वालों की मेहनत और समर्पण पर भी टिकी होती हैं और उन्हें उनका अधिकार मिलना चाहिए।