अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता हासिल करने के बाद से तालिबान लगातार पढ़ाई, आज़ादी और मानवाधिकारों को ख़त्म करने की तरफ बढ़ रहा है। इसका सबसे ज़्यादा ख़ामियाजा महिलाओं को उठाना पड़ रहा है। हाल ही में तालिबान ने न केवल महिलाओं की लिखी हुई 140 किताबों पर बैन लगाया, बल्कि विश्वविद्यालय और कॉलेजों में मानवाधिकार, जेंडर स्टडीज जैसे विषयों की पढ़ाई पर भी रोक लगा दी है। यह न सिर्फ़ महिलाओं की आवाज़ को दबाने की कोशिश है बल्कि न्याय, समानता और मानवाधिकार जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिहाज से भी ख़तरनाक है जो कि देश को पीछे की ओर ले जाने वाला कदम है। शिक्षा व्यवस्था किसी भी देश के विकास की नींव होती है जो देश का भविष्य सुनिश्चित करती है। ऐसे में इस तरह के रूढ़िवादी फ़ैसले न सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय हैं।
क्या है हालिया मामला?
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, अगस्त के आख़िरी हफ़्ते में तालिबान सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान के विश्वविद्यालयों को 50 पेज का एक दिशानिर्देश जारी किया। इसमें तालिबान में 680 किताबों को ‘शरिया और तालिबान नीतियों के ख़िलाफ़’ बताते हुए बैन करने का आदेश दिया। इनमें से लगभग 140 किताबें महिलाओं की लिखी हुई थीं। ये किताबें मानवाधिकार, जेंडर स्टडीज और यौन हिंसा जैसे विषयों पर आधारित थीं। यही नहीं इसमें सेफ़्टी इन द केमिकल लेबोरेटरी जैसी विज्ञान से जुड़ी किताबें, समाजशास्त्र और कम्युनिकेशन पर लिखी किताबें भी शामिल हैं। बैन की गई किताबों में से 310 किताबें ईरानी लेखकों ने लिखी थीं या फिर ईरान में प्रकाशित हुई थीं।
अगस्त के आख़िरी हफ़्ते में तालिबान सरकार ने अफ़गानिस्तान के विश्वविद्यालयों को 50 पेज का एक दिशानिर्देश जारी किया। इसमें तालिबान में 680 किताबों को ‘शरिया और तालिबान नीतियों के ख़िलाफ़’ बताते हुए बैन करने का आदेश दिया। इनमें से लगभग 140 किताबें महिलाओं की लिखी हुई थीं।
इसके साथ ही तालिबान ने विश्वविद्यालयों में 18 विषयों को पढ़ने-पढ़ाने पर भी रोक लगा दी है। इसमें से 6 तो सीधे तौर पर महिलाओं से जुड़े विषय थे जैसे कि जेंडर और विकास, वीमेंस सोशियोलॉजी और द रोल ऑफ़ वीमेन इन कम्युनिकेशन आदि। इसके अलावा अल जज़ीरा में छपी ख़बर के अनुसार, शासन अभी 201 दूसरे पाठ्यक्रमों की समीक्षा कर रहा है जिनपर फ़ैसला आना बाकी है। ईरानी लेखकों और प्रकाशकों की किताबों पर रोक लगाने के पीछे तालिबान ने ‘ईरानी असर ख़त्म करने’ की बात कही। इसे साफ पता चलता है कि तालिबान अफ़ग़ानी शिक्षा को पूरी दुनिया से काटकर सिर्फ़ तालिबानी कट्टरपंथ की तरफ ले जाना चाहता है। तालिबान सरकार के उच्च शिक्षा मंत्रालय के उप शिक्षा निदेशक जियाउर रहमान आर्योबी ने विश्वविद्यालयों को लिखे एक पत्र में कहा कि ये फ़ैसले ‘धार्मिक विद्वानों और विशेषज्ञों’ के एक पैनल ने लिए हैं और प्रतिबंधित किताबों की जगह ऐसी पाठ्य सामग्री रखी जानी चाहिए जो ‘इस्लाम के ख़िलाफ़’ न हो।
तालिबान शासन में महिलाओं के मानवाधिकार
अगस्त 2021 में अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा करने के बाद से ही तालिबान महिला अधिकारों को ख़त्म करने में लगा हुआ है। इनकी पढ़ाई लिखाई, खेलकूद, रोजगार, आवाजाही से लेकर बोलने तक पर क़ानून बनाकर रोक लगाने का सिलसिला लगातार जारी है। यहां तक कि, तालिबान ने लड़कियों को छठीं कक्षा के बाद पढ़ाई करने पर रोक लगा दी। ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंटरनेशनल अफेयर के अनुसार, साल 2021 से अब तक तालिबान ने महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ भेदभाव को संस्थागत बनाने वाले 130 से ज़्यादा फ़रमान जारी किए हैं ।
अल जज़ीरा में छपी ख़बर के अनुसार, शासन अभी 201 दूसरे पाठ्यक्रमों की समीक्षा कर रहा है जिन पर फ़ैसला आना बाकी है। ईरानी लेखकों और प्रकाशकों की किताबों पर रोक लगाने के पीछे तालिबान ने ‘ईरानी असर ख़त्म करने’ की बात कही।
पिछले ही साल ‘सदाचार और दुर्व्यवहार नियंत्रण क़ानून’ लागू किया गया, जिसके तहत अफ़गानी महिलाओं पर कई पाबंदियां थोपी गई थीं। इसमें दमनकारी प्रावधानों की एक लंबी सूची जारी की गई, जिसमें महिलाओं के लिए नियम क़ायदे बनाए गए। जैसे कि पूरे शरीर को ढकने वाले कपड़े पहनें, सार्वजनिक जगहों पर उनकी आवाज़ तक न सुनाई पड़े। साथ ही बिना पुरुष रिश्तेदार के महिलाओं के बाहर आने जाने पर भी रोक लगा दी गई। इस क़ानून के बारे में यूनाइटेड नेशन में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, ओएचसीएचआर की प्रवक्ता रवीना शामदासानी ने कहा था कि सदाचार और दुर्व्यवहार नियंत्रण क़ानून महिलाओं की आवाज़ को दबाता है और उन्हें उनकी एजेंसी से वंचित करता है। उन्हें चेहरा विहीन, आवाज़ विहीन छाया में बदलने का प्रयास करता है।
तालिबानी प्रतिबंधों का समाज पर असर
यूएन वुमन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अफ़ग़ानिस्तान की 78 फीसद महिलाएं शिक्षा या रोजगार में नहीं हैं, जिस वजह से अफ़ग़ानिस्तान की जीडीपी को हर साल 2.5 फीसद का नुकसान हो रहा है। वहां के वर्कफोर्स में 90 फीसद पुरुषों की तुलना में सिर्फ़ 25 फीसद महिलाएं ही काम कर पा रही हैं या फिर काम की तलाश में हैं। संयुक्त राष्ट्र में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस तरह के अमानवीय क़ानूनों की वजह से अफ़ग़ानिस्तान की 14 लाख महिलाएं शिक्षा से वंचित हो रही हैं और 80 फीसद अफ़ग़ानी महिलाएं गरीबी रेखा के नीचे ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर हैं। अगर राजनीति की बात करें तो साल 2020 में जहां अफ़ग़ानी महिलाओं के पास संसद में 25 फीसद से ज़्यादा सीटें थीं और वे राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लड़ सकती थीं।
अफ़गानिस्तान की 78 फीसद महिलाएं शिक्षा या रोजगार में नहीं हैं, जिस वजह से अफ़गानिस्तान की जीडीपी को हर साल 2.5 फीसद का नुकसान हो रहा है। वहां के वर्कफोर्स में 90 फीसद पुरुषों की तुलना में सिर्फ़ 25 फीसद महिलाएं ही काम कर पा रही हैं या फिर काम की तलाश में हैं।
उसी देश में तालिबानी शासन के दौरान वास्तविक मंत्रिमंडल में महिलाओं की कोई भागीदारी नहीं रही। द गार्डीअन में प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार, अफ़ग़ानिस्तान में साल 2024 के आख़िर में महिलाओं के लिए नर्स और मिडवाइफरी कोर्स बंद कर दिए गए, जिस वजह से वहां के स्वास्थ्य सेवाओं पर बुरा असर पड़ रहा है। यूएनएफपीए के आंकड़ों के अनुसार अफ़गानिस्तान में महिलाओं की सही देखभाल के लिए 18000 मिडवाइफ्स या दाइयों की ज़रूरत है। ग़ौरतलब है कि अफ़ग़ानिस्तान में पहले से ही मातृ मृत्यु दर दुनिया में सबसे ज़्यादा है। साल 2020 में प्रत्येक एक लाख जीवित जन्म पर 620 महिलाओं की मृत्यु हो गई थी।
वैश्विक आलोचना पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं
हाल ही में नीदरलैंड के हेग में स्थित इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट (आईसीसी) ने महिलाओं की शिक्षा समेत मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में तालिबान नेता हैबतुल्लाह अखुंदजादा और मुख्य न्यायाधीश अब्दुल हकीम हक्कानी के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी वारंट जारी किए। हालांकि तालिबान ने इसे ‘शत्रुतापूर्ण’ और ‘इस्लाम के ख़िलाफ़’ बताया। बीबीसी में छपी ख़बर के अनुसार, तालिबान के निजी और सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में लगाए गए प्रतिबंधों की सऊदी अरब, कतर, तुर्की समेत अनेक मुस्लिम बहुल देशों और तमाम अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने निंदा की। इन देशों ने साफतौर पर इस कदम को न सिर्फ़ मानवाधिकारों बल्कि इस्लाम की शिक्षाओं के भी ख़िलाफ़ बताया। इससे साफ पता चलता है कि तालिबान जिस इस्लाम का नाम लेकर इस तरह की अमानवीय रूढ़िवादी कट्टरता को लागू करने की कोशिश कर रहा है उसका तमाम इस्लामिक देश ही विरोध कर रहे हैं। पीबीएस न्यूज को दिए एक इंटरव्यू में संयुक्त राष्ट्र (यूएन ) के विशेष दूत रिचर्ड बेनेट ने कहा कि यह महिलाओं का संस्थागत बहिष्कार है।
अफगानिस्तान में साल 2024 के आख़िर में महिलाओं के लिए नर्स और मिडवाइफरी कोर्स बंद कर दिए गए। जिस वजह से वहां के स्वास्थ्य सेवाओं पर बुरा असर पड़ रहा है। यूएनएफपीए के आंकड़ों के अनुसार अफ़गानिस्तान में महिलाओं की सही देखभाल के लिए 18000 मिडवाइफ्स या दाइयों की ज़रूरत है।
अफ़ग़ानिस्तान की पूर्व न्याय उप मंत्री और बैन की गई किताबों में से एक पॉलिटिकल टर्मिनोलॉजी एंड इंटरनेशनल रिलेशंस की लेखिका ज़किया अदेली ने बीबीसी अफ़ग़ान को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि उन्हें इस प्रतिबंध से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। अदेली ने आगे कहा कि पिछले चार सालों में तालिबान ने जो कुछ किया है, उसे देखते हुए उनसे पाठ्यक्रम में इस तरह के बदलाव की उम्मीद करना अतिशयोक्ति नहीं है। उनकी स्त्री-द्वेषी मानसिकता और नीतियों को देखते हुए यह स्वाभाविक है कि जब महिलाओं को पढ़ाई करने की अनुमति नहीं दी जाती, तो उनके विचारों, सोच और लेखन को भी दबा दिया जाता है।तालिबान का महिलाओं की किताबों और शिक्षा पर इस तरह से रोक न सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान को पूरी दुनिया से अलग-थलग कर दे रहा है, बल्कि देश को पीछे की ओर ले जाने का काम भी कर रहा है।
यह न केवल महिलाओं की आज़ादी, समानता का ही नहीं बल्कि मानव अधिकार का मामला भी है। यह यूनाइटेड नेशन के समानता, शिक्षा और मानवाधिकार से जुड़े सतत समावेशी लक्ष्यों (एसडीजी) को हासिल करने में चुनौती बढ़ाने का काम भी कर रहा है। यह अफ़ग़ानिस्तान को गरीबी, भेदभाव, अशिक्षा और बीमारियों की तरफ भी धकेल रहा है क्योंकि इस तरह के प्रतिबंधों से ख़ासतौर पर महिलाओं की सेहत से जुड़ी समस्याएं बढ़ने का ख़तरा है जैसा कि पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान में हाल ही में आए भूकंप के दौरान भी देखने को मिला। जब महिला स्वास्थ्य कर्मी और बचाव दल के न होने से अफ़गानी महिलाएं 36 घंटे तक मलबे में दबी रहीं और इस दौरान उनमें से कइयों को जान से हाथ धोना पड़ा क्योंकि ‘नो स्किन कॉन्टैक्ट’ नियम होने से पुरुष बचाव दल उन्हें हाथ नहीं लगा सकता था। तालिबान को समझना होगा कि इस तरह के रूढ़िवादी भेदभावपूर्ण नियम समाज और देश को कभी आगे नहीं ले जा सकते। मानव अधिकार किसी भी धर्म और परंपरा से कहीं बढ़कर है जो बिना किसी शर्त के दुनिया के सभी लोगों को समान रूप से सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

