आज के आधुनिक दौर में हमारा स्वास्थ्य केवल डॉक्टरों और अस्पतालों का विषय नहीं रह गया है। सोशल मीडिया, विज्ञापन और उपभोक्तावाद ने हमारे स्वास्थ्य और शरीर की छवि को गढ़ने में गहरी जगह बना ली है। टीवी, इंस्टाग्राम और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर डाइट पिल्स, स्लिमिंग टी के विज्ञापन, फिटनेस इन्फ्लुएंसरों की ‘परफेक्ट बॉडी’ तस्वीरें और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर लगातार बिकते सप्लीमेंट्स ये सब हमें यह संदेश देते हैं कि समाज की नज़रों में ‘स्वस्थ रहने’ का मतलब है एक ऐसी बॉडी या शरीर जो उपभोक्तावाद या सोशल मीडिया प्रमोट कर रहा है। लेकिन इस ‘आदर्श शरीर’ की अवधारणा का असर केवल हमारी जेब पर ही नहीं पड़ता, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य और आत्मसम्मान पर भी पड़ता है। अगर कोई व्यक्ति समाज के आदर्श शरीर वाले ढांचे में फिट नहीं बैठता है, तो उसे बॉडी शेमिंग, भेदभाव और मज़ाक का सामना करना पड़ता है।
इसी बीच अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर हर आकार में स्वास्थ्य संभव है (एचएईएस ) दृष्टिकोण उभर कर सामने आया है। यह विचार पारंपरिक वजन घटाओ तभी स्वस्थ रहोगे वाली सोच को चुनौती देता है और इस बात पर ज़ोर देता है, कि स्वास्थ्य को किसी के बज़न या शरीर के आकार के हिसाव से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। भारत जैसे देश, जहां मोटापा एक बढ़ती सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती है। इसलिए यहां पर एक बड़ा सवाल खड़ा होता है, कि क्या इस मॉडल को अपनाते वक्त हम गलत जीवनशैली जो हमारे स्वास्थ्य के लिए सही नहीं है, और हानिकारक आदतों को नज़रअंदाज़ तो नहीं कर रहे हैं? कहीं हम हर आकार में स्वास्थ्य संभव है कहकर अनजाने में इन समस्याओं को सामान्य तो नहीं बना रहे हैं?
अगर कोई व्यक्ति समाज के आदर्श शरीर वाले ढांचे में फिट नहीं बैठता है, तो उसे बॉडी शेमिंग, भेदभाव और मज़ाक का सामना करना पड़ता है।इसी बीच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एचएईएस दृष्टिकोण उभर कर सामने आया है। यह विचार पारंपरिक वजन घटाओ तभी स्वस्थ रहोगे वाली सोच को चुनौती देता है ।
हेल्थ एट एवरी साइज (एचएईएस) मॉडल क्या है ?
उपभोक्तावाद और समाज हमें हमेशा यह याद दिलाने की कोशिश करते हैं कि एक व्यक्ति की शारीरिक बनावट किस तरीके की होनी चाहिए, इसके विपरीत नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, एचएईएस मॉडल कहता है कि पतला होना स्वाभाविक रूप से स्वस्थ और सुंदर नहीं होता, न ही मोटा होना स्वाभाविक रूप से अस्वस्थ और अनाकर्षक होता है। लोगों के शरीर का आकार और माप स्वाभाविक रूप से अलग-अलग होता है और शारीरिक गतिविधियों के लिए उनकी प्राथमिकताएं भी अलग-अलग होती हैं। जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के एक शोध के अनुसार, एचएईएस मॉडल स्वास्थ्य को केवल बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई ) या वजन से नहीं जोड़ता। बल्कि यह लोगों को यह सिखाता है कि वे अपने शरीर की देखभाल प्यार और समझदारी से करें। यह हर तरह के लोगों का सम्मान करने और उन्हें मज़बूत बनाने पर ज़ोर देता है।
साथ ही, यह ऐसी स्वास्थ्य नीतियों को बढ़ावा देता है जो सबके लिए इलाज की बेहतर सुविधा दें और वजन या मोटापे को लेकर होने वाले भेदभाव को कम करें। इससे लोगों में आत्म स्वीकृति बढ़ती है। क्योंकि इससे आप जिस तरह दिखते हैं, उससे सहज और खुश महसूस करने की अधिक संभावना होती है और सोशल मीडिया पर विज्ञापनों और तस्वीरों से प्रभावित या दबाव महसूस करने की संभावना कम हो जाती है। इससे आत्म सम्मान भी बढ़ता है। जब हम बॉडी पॉज़िटिविटी को अपनाते हैं, तो संतुलित सोच और आज़ादी के साथ स्वस्थ जीवन जीना आसान हो जाता है। लेकिन हमें समझना होगा कि कहीं हम उपभोक्तावाद के जाल में तो नहीं फंस रहे हैं ।
एचएईएस मॉडल कहता है कि पतला होना स्वाभाविक रूप से स्वस्थ और सुंदर नहीं होता, न ही मोटा होना स्वाभाविक रूप से अस्वस्थ और अनाकर्षक होता है। लोगों के शरीर का आकार और माप स्वाभाविक रूप से अलग-अलग होता है और शारीरिक गतिविधियों के लिए उनकी प्राथमिकताएं भी अलग-अलग होती हैं।
भारत में मोटापे की असल समस्या और उपभोक्तावाद
यूनिसेफ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, मोटापा पहली बार स्कूली बच्चों और किशोरों में कुपोषण के सबसे आम रूप के रूप में दुनिया भर में कम वजन से आगे निकल गया है। आज, दुनिया भर में हर दस में से एक बच्चा, यानी लगभग 18.8 करोड़, मोटापे से ग्रस्त है। भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में अधिक वजन और मोटापे की समस्या तेजी से बढ़ रही है। यूनिसेफ में छपे एनएफएचएस के आंकड़ों के अनुसार, साल 2005-06 में यह समस्या 1.5फीसद थी, जो साल 2019-21 तक बढ़कर 3.4फीसद हो गई। किशोर लड़कियों में अधिक वजन और मोटापे में 2.4 फीसद से बढ़कर 5.4 फीसद की बढ़ोतरी हुई, यानी लगभग 125 फीसद हो गई।
किशोर लड़कों में यह दर 1.7 फीसद से बढ़कर 6.6 फीसद हो गई, यानी लगभग 288 फीसद बढ़ गई। अनुमान है कि साल 2030 तक भारत में 5 से 19 साल की उम्र के 2.7 करोड़ से ज्यादा बच्चे और किशोर मोटापे से प्रभावित होंगे। इसका मतलब है कि दुनिया भर में मोटापे के कुल मामलों का लगभग 11 फीसद हिस्सा भारत में होगा। यूनिसेफ में छपी बाल पोषण रिपोर्ट के मुताबिक, बच्चों और किशोरों के खाने के विकल्प अब उनकी अपनी पसंद से ज़्यादा, विज्ञापन और आसानी से मिलने वाले फास्ट फ़ूड और पैक्ड फूड से प्रभावित हो रहे हैं। यूनिसेफ के एक सर्वेक्षण में 171 देशों के 13-24 साल के किशोरों और युवा वयस्कों से जानकारी ली गई।
यूनिसेफ में छपे एनएफएचएस के आंकड़ों के अनुसार, साल 2005-06 में यह समस्या 1.5फीसद थी, जो साल 2019-21 तक बढ़कर 3.4फीसद हो गई । किशोर लड़कियों में अधिक वजन और मोटापे में 2.4 फीसद से बढ़कर 5.4 फीसद की बढ़ोतरी हुई, यानी लगभग 125 फीसद हो गई।
इसमें पता चला कि दो-तिहाई से ज़्यादा युवा लगातार खाद्य विज्ञापनों के संपर्क में हैं। सर्वेक्षण के एक हफ़्ते पहले, 75 फीसद लोगों ने कहा, कि उन्होंने फ़ास्ट फ़ूड या स्नैक्स के विज्ञापन देखे हैं। यूनिसेफ के अनुसार, दिल्ली की आर्थिक विकास संस्थान के सहायक प्रोफेसर डॉ. विलियम जो ने खराब आहार की उच्च लागत पर ज़ोर देते हुए कहा, खराब आहार की एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है । बचपन या किशोरावस्था में एक बार मोटापा स्थापित हो जाने पर, इसे ठीक करना बेहद मुश्किल होता है और यह वयस्कता में भी बना रह सकता है, जिससे मधुमेह, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप और कुछ कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। इससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि एचएईएस मोटापे की समस्या को छुपा रहा है ।
बॉडी पॉजिटिविटी और उपभोक्तावाद का दोहरा चेहरा
आधुनिक उपभोक्तावाद ने शरीर और सुंदरता के प्रति हमारी सोच को गहराई से प्रभावित किया है। इसमें दो अलग, लेकिन समान रूप से लाभकारी दृष्टिकोण नजर आते हैं। इसमें एक में पतले होने और सुंदर दिखने को प्रमोट किया जा रहा है तो दूसरी और मोटापे को स्वीकार करने के लिए कहा जा रहा है। गौरतलब है कि इससे इंसान को फायदा होने के बजाय उपभोकतावाद को फायदा हो रहा है। पिछले कुछ सालों या दशकों से फिटनेस इंडस्ट्री, स्लिमिंग प्रोडक्ट्स, डाइट सप्लीमेंट के विज्ञापनों के जरिए वजन कम करने का संदेश फैलाया जा रहा है। द प्रिंट में छपी खबर के मुताबिक, भारत में जिन लोगों को अधिक वजन या मोटापा है और जो अपना वजन कम करना चाहते हैं, वे अक्सर डाइट सप्लीमेंट्स की ओर रुख करते हैं। ये लोग सोचते हैं कि ये उत्पाद आखिरी विकल्प हैं जिससे उनका वजन कम हो सकता है। दरअसल, ये सप्लीमेंट्स कई बार स्वास्थ्य के लिए छिपे हुए खतरे पैदा कर सकते हैं ।
द प्रिंट में छपी खबर के मुताबिक, भारत में जिन लोगों को अधिक वजन या मोटापा है और जो अपना वजन कम करना चाहते हैं, वे अक्सर डाइट सप्लीमेंट्स की ओर रुख करते हैं। ये लोग सोचते हैं कि ये उत्पाद आखिरी विकल्प हैं जिससे उनका वजन कम हो सकता है। दरअसल, ये सप्लीमेंट्स कई बार स्वास्थ्य के लिए छिपे हुए खतरे पैदा कर सकते हैं ।
इस खतरे के बावजूद, दुनिया भर में इसका उपयोग तेज़ी से बढ़ रहा है। द प्रिन्ट में छपी एलाइड मार्केट रिसर्च की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि वजन घटाने और वजन प्रबंधन आहार बाजार का आकार बहुत बड़ा है। जो कि साल 2019 में 192.2 बिलियन डॉलर था, और साल 2027 तक 295 बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। वहीं एचएईएस मॉडल के तहत बॉडी पॉज़िटिविटी को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसके चलते फैशन की दुनिया में भी लगातार इस चलन तेजी से बढ़ गया है। बॉडी पॉजिटिविटी ने फैशन की दुनिया में बदलाव लाया है, जिसने पारंपरिक सुंदरता के मानदंडों को चुनौती दी है। फैब्रागो के मुताबिक, यह सिर्फ़ एक चलन नहीं, बल्कि एक बदलाव है जो रिटेल बिज़नेस को आर्थिक रूप से प्रभावित करेगा। प्लस साइज़ फ़ैशन अब एक फ़ायदेमंद अवसर बन गया है क्योंकि प्लस साइज़ के ग्राहक बड़े साइज़ खरीदने के लिए ज़्यादा पैसे खर्च कर रहे हैं, और जो रिटेलर इस मांग को पूरा करते हैं, वे अपनी कमाई बढ़ा सकते हैं। यानी इससे उपभोक्तावाद को काफी मुनाफा हो रहा है।
सुधार के लिए क्या किया जा सकता है
भारत में मोटापा तेज़ी से बढ़ रहा है। इसका हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है। इसी बीच बॉडी पॉजिटिविटी और एचएईएस हमें हमारे शरीर को अपनाने और आत्म सम्मान को बढ़ाने में मदद करता है। लेकिन हमें बॉडी पॉजिटिविटी और स्वास्थ्य के बीच संतुलन बनाना होगा। यानी अपने शरीर को स्वीकारना बहुत जरूरी है, लेकिन इसके साथ–साथ सही खानपान, लाइफस्टाइल और व्यायाम को बढ़ावा देना भी उतना ही जरूरी है ताकि हमारा शरीर स्वस्थ रह सके चाहे उसका कोई भी आकार क्यों न हो।
लोगों को यह पता होना चाहिए कि स्वास्थ्य केवल वजन से नहीं, बल्कि जीवनशैली और मानसिक स्वास्थ्य पर भी निर्भर करता है। सोशल मीडिया और उपभोक्तावाद या मार्केट ने इसे बढ़ावा दिया है। यह हर वक्त ‘पतला होना चाहिए’ या ‘प्लस-साइज़ को अपनाओ’ जैसी ट्रेंड्स के जरिए मुनाफ़ा कमाते हैं। हमें इस जाल में फंसे बिना अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखने के बारे में सीखना होगा। यानी न पतले होने की होड और न ही केवल ‘हर आकार ठीक है’ कहकर स्वास्थ्य जोखिमों को अनदेखा नहीं करना होगा। इस संतुलन से ही हम शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।

