विज्ञान और शोध के क्षेत्र में हमेशा पुरुषों का नाम अधिक सुनाई देता रहा है और कई बार महिलाओं के योगदान को अनदेखा कर दिया जाता रहा है। लेकिन कुछ महिलाओं ने पितृसत्ता के रूढ़िवादी नियमों को तोड़कर यह साबित किया, कि महिलाओं की भी इस क्षेत्र में उतनी ही क्षमता और योगदान हो सकता है। जिनमें से एक हैं ‘डेम जेन गुडॉल’ उन्होंने अपने जीवन का ज्यादातर समय तंजानिया के गोम्बे स्ट्रीम राष्ट्रीय उद्यान में चिम्पैंजियों के व्यवहार और जीवन पर शोध में बिताया और इस दौरान इंसानों और जानवरों के बीच गहरे रिश्तों और समझ को सामने लाया। उनकी कहानी केवल जीव-जन्तु शोध की नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी महिला की कहानी है जिन्होंने कठिनाइयों, सामाजिक बंधनों और पितृसत्तात्मक सोच के बावजूद अपने सपनों को पूरा किया। उनका जीवन लड़कियों, युवाओं और शोधकर्ताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है, जो दिखाता है कि जुनून, मेहनत और साहस के बल पर कोई भी इंसान अपनी सीमाओं से परे जाकर बदलाव ला सकता है।
जेन गुडॉल और उनके चिम्पैंजी प्रेम की शुरुआत?
जेन गुडॉल का पूरा नाम ‘डेम वैलेरी जेन मॉरिस गुडॉल’ था। उन्हें तंजानिया के गोम्बे स्ट्रीम राष्ट्रीय उद्यान में रहने वाले चिम्पैंजियों पर उनके असाधारण विस्तृत और दीर्घकालिक शोध के लिए जाना जाता है। वे एथोलॉजिस्ट और प्राइमेटोलॉजिस्ट होने के साथ-साथ एक लेखिका भी थीं। उनका जन्म 3 अप्रैल, साल 1934 को इंग्लैंड के बोर्नमाउथ शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम मोर्टिमर हर्बर्ट मॉरिस-गुडॉल और माँ का नाम मार्गरेट मायफैनवे जोसेफ था। बेडटाइम हिस्ट्री में छपे एक लेख के मुताबिक, जब जेन छोटी थीं तब उनके पिता ने उन्हें गिफ्ट में एक खिलौना चिम्पैंजी दिया। उस समय उनके पिता को यह नहीं पता था कि आगे चलकर चिम्पैंजी जेन की ज़िन्दगी का इतना अहम हिस्सा बन जाएंगे। कहा जाता है कि यहीं से जेन की दिलचस्पी चिम्पैंजियों में बढ़ी और बाद में उन्होंने अपना लगभग पूरा जीवन ही उन्हें समझने में बिता दिया।
उन्हें तंजानिया के गोम्बे स्ट्रीम राष्ट्रीय उद्यान में रहने वाले चिम्पैंजियों पर उनके असाधारण विस्तृत और दीर्घकालिक शोध के लिए जाना जाता है। वे एथोलॉजिस्ट और प्राइमेटोलॉजिस्ट होने के साथ-साथ एक लेखिका भी थीं।
उनकी दिलचस्पी काफी छोटी उम्र से ही जीव-जन्तुओं में थी। डेढ़-दो साल की उम्र में वे मुट्ठी भर केंचुओं को अपने बिस्तर पर ले आई थीं जिसे लेकर उनकी माँ ने उन्हें बताया कि केंचुए घर के अंदर ज़िन्दा नहीं रह पाएंगे। उनके परिवार में एक बहुत प्यारा कुत्ता, रस्टी, एक टट्टू और एक कछुआ था, जो उनके पालतू जानवरों में से थे। जब वे लगभग दस साल की थीं, तब उन्होंने टार्ज़न और डॉ. डूलिटल की सीरीज़ की किताबें पढ़ी। इससे उनका अफ़्रीका से प्रेम बढ़ा तथा वे अपनी पसंदीदा किताबों में वर्णित जानवरों के साथ काम करने के लिए अफ़्रीका जाने का सपना देखने लगीं। बाद में उन्होंने अपनी कमाई से पैसे जोड़े और अपने इस सपने को पूरा करने के लिए 23 साल की उम्र में एक दोस्त से मिलने अफ़्रीका के लिए निकल पड़ीं। वहां उनकी मुलाकात प्रसिद्ध मानवविज्ञानी और पुरातत्वविद लुई और मेरी लीकी से हुई और उन्होंने ही उन्हें चिम्पैंजियों पर अध्ययन का काम सौंपा।
लड़कियों के लिए किन मायनों में प्रेरणास्रोत हैं जेन?
जब जेन दस साल की थीं और उन्होंने लोगों से अफ्रीका जाने, जंगली जानवरों के बीच रहने और उन पर किताबें लिखने का अपना सपना साझा किया तो लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया। उन्हें कहा गया, तुम लड़की हो, लड़कियां इस तरह के काम नहीं करतीं। उस समय उनकी माँ ने उनसे कहा था कि अगर सच में उन्हें यह करना है। तो इसके लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी और उन्होंने उन्हें कभी हार न मानने की सलाह भी दी। यह सब इतना आसान नहीं था। जेन का प्राइमेटोलॉजी की पहली महिलाओं में से एक होने के कारण, ब्रिटिश प्रबंधकों को लगा कि जंगल में काम करने वाली एक युवा महिला के लिए जेन सुरक्षित नहीं रहेगी। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि वह अपने साथ एक संरक्षक या कोई ऐसा व्यक्ति लेकर आए जो उसकी देखभाल करे, हालांकि वह एक वयस्क थी और पहले भी अकेले रह चुकी थी।
जब जेन दस साल की थीं और उन्होंने लोगों से अफ्रीका जाने, जंगली जानवरों के बीच रहने और उन पर किताबें लिखने का अपना सपना साझा किया तो लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया। उन्हें कहा गया, तुम लड़की हो, लड़कियां इस तरह के काम नहीं करतीं।
जेन की माँ एक बार फिर अपनी बेटी का साथ देने के लिए आगे आईं और उसके साथ गोम्बे गईं जहां उसने अपना शोध शुरू किया। जंगल चारों ओर पेड़ों, पौधों और बेलों से घिरा हुआ था। वहां खतरनाक जानवर भी थे, इसलिए डर लगना स्वाभाविक था। लेकिन जब वह जानवरों को देखने जाती थी, तो उसके पास बस एक नोटबुक, एक दूरबीन और थोड़ा-सा खाना होता था। गोम्बे प्रिज़र्व के प्रबंधक उसकी सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते थे, लेकिन जेन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। पहली बार जब वह जंगल में गई, तो डरने की बजाय उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह अपने घर लौट आई हो एक ऐसी जगह जहां वह सच में अपनी लगती थी। उन्होंने एक ऐसे दौर में यह साबित किया कि लड़कियां अच्छी वैज्ञानिक और शोधकर्ता हो सकती हैं जब विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी काफी कम थी। जेन महिलाओं को उनकी पारम्परिक भूमिकाओं से निकलकर पढ़ने, आगे बढ़ने और पितृसत्तात्मक समाज में अपनी जगह बनाने के लिए प्रेरित करती थीं।
चिम्पैंजियों और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उनके काम
जेन ने करीब 150 चिम्पैंजियों के एक समूह का उनके अपने जंगल में ध्यान से अध्ययन किया। इसी दौरान उन्होंने एक चिम्पैंजी को देखा, जिसका नाम उन्होंने डेविड ग्रेबियर्ड रखा था। उसने एक तिनका लेकर उसकी पत्तियां हटा दीं और फिर उसे दीमक के टीले में डालकर कीड़े निकालने के लिए इस्तेमाल किया। यह देखकर जेन को पता चला कि चिम्पैंजी भी औज़ार बना और इस्तेमाल कर सकते हैं। यह इन्सानों के अलावा किसी अन्य प्रजाति के औज़ार बनाने का पहला प्रमाण था। उन्होंने जिन चिम्पैंजियों का अध्ययन किया, संवेदनशीलता बरतते हुए उनके नाम रखे जबकि इससे पहले के अध्ययनों में जानवरों के लिए केवल नम्बर तय किए जाते थे। इसके अलावा, उन्होंने ही सबसे पहले इस बात का अवलोकन किया कि चिम्पैंजी इंसानों की तरह दोस्तियां करते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं और सुख-दुख महसूस करते हैं।
उन्होंने जिन चिम्पैंजियों का अध्ययन किया, संवेदनशीलता बरतते हुए उनके नाम रखे जबकि इससे पहले के अध्ययनों में जानवरों के लिए केवल नम्बर तय किए जाते थे। इसके अलावा, उन्होंने ही सबसे पहले इस बात का अवलोकन किया कि चिम्पैंजी इंसानों की तरह दोस्तियां करते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं और सुख-दुख महसूस करते हैं।
उन्होंने यह भी अवलोकन किया कि झगड़े के बाद फिर से मेल-मिलाप के मामले में चिम्पैंजी बहुत अच्छे होते हैं और इन्सानों को उनसे यह सीखना चाहिए क्योंकि विवाद होने पर इंसान आम तौर पर एक दूसरे के प्रति दुर्भावना पाल लेते हैं। साल 1965 में उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने गोम्बे नेशनल पार्क में कई सालों तक चिम्पैंजियों पर अपना अनुसंधान और संरक्षण कार्य जारी रखा। जेन ने अपने अनुभवों और अध्ययनों पर कई किताबें और लेख लिखे, जिनमें साल 1971 में प्रकाशित प्रसिद्ध पुस्तक इन द शैडो ऑफ मैन भी शामिल है।, जिसने दुनियाभर में लोगों को चिम्पैंजियों और प्रकृति को समझने की नई दृष्टि दी। साल 1977 में उन्होंने ‘जेन गुडॉल इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की, जो आज भी पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में सक्रिय है।
वह ज़िन्दगी भर चिम्पैंजियों, उनके आवासों और पर्यावरण को बचाने की जद्दोजहद में लगी रहीं। अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दशक में उन्होनें साल के 300 दिन यात्राएं की। वह विद्यार्थियों, सरकारी अधिकारियों से पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर बात करती थीं। उनका न्यूयॉर्क सिटी क्लाइमेट वीक के दौरान एक इंटरव्यू जो पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति से जुड़ने की उनकी चिंता को उजागर करता है। इस इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि इन दिनों हर कोई तकनीक में इतना डूबा हुआ है कि हम भूल जाते हैं कि हम न सिर्फ इस प्रकृति का हिस्सा हैं, बल्कि बाकी जानवरों की तरह हम भी एक जानवर ही हैं। हम साफ़ हवा, पानी, कपड़े और खाद्य पदार्थों और हरेक चीज़ के लिए प्रकृति पर न निर्भर हैं, लेकिन फिर भी हम इसे तबाह कर रहे हैं।
इसी दौरान उन्होंने एक चिम्पैंजी को देखा, जिसका नाम उन्होंने डेविड ग्रेबियर्ड रखा था। उसने एक तिनका लेकर उसकी पत्तियां हटा दीं और फिर उसे दीमक के टीले में डालकर कीड़े निकालने के लिए इस्तेमाल किया। यह देखकर जेन को पता चला कि चिम्पैंजी भी औज़ार बना और इस्तेमाल कर सकते हैं।
पुरस्कार और सम्मान
उन्होंने अपने जीवन में कुल 32 किताबें लिखीं जिनमें से कई बच्चों के लिए थीं। उनकी कुछ किताबें चिम्पैंजियों, जानवरों के अधिकारों और प्रकृति जैसे अलग-अलग विषयों पर हैं। जेन पर बहुत-सी फिल्में और डाक्यूमेंट्री भी बन चुकी हैं। पर्यावरण संरक्षण और शांति की दिशा में उनके कामों की वजह से उन्हें साल 2002 में संयुक्त राष्ट्र का शांतिदूत भी नियुक्त किया गया। वह फ्यूचर काउंसिल की सदस्य थीं। उन्हें अपने काम और समर्पण के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले, जिनमें नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी का हबर्ड मेडल, क्योटो पुरस्कार, टेम्पलटन पुरस्कार, और संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम शामिल हैं। साल 2003 में, महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर’ की डेम कमांडर की उपाधि से सम्मानित किया गया, जो ब्रिटेन के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक है।
वे अपने जीवन के आखरी साल तक काम करती रहीं और 91 साल की उम्र में 1अक्टूबर 2025 को उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन वो अपने शोध और लेखन के माध्यम से हमेशा याद की जाती रहेंगी। उनकी कहानी यह दिखाती है कि महिलाओं का विज्ञान और शोध के क्षेत्र में योगदान उतना ही महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक हो सकता है जितना किसी पुरुष का। उन्होंने अपने जीवन में साहस, मेहनत और लगन से कठिनाइयों और सामाजिक बाधाओं को पार किया और चिम्पैंजियों के व्यवहार, उनकी सामाजिक संरचना और पर्यावरण संरक्षण पर अमूल्य शोध किया। उनका जीवन यह संदेश देता है कि जुनून, समर्पण और धैर्य से कोई भी इंसान अपनी सीमाओं को पार कर सकता है और समाज, प्रकृति और विज्ञान के लिए बदलाव ला सकता है।

