समाजकानून और नीति न्याय की समावेशी परिभाषा गढ़ने के लिए जरूरी है नारीवादी न्यायशास्त्र

न्याय की समावेशी परिभाषा गढ़ने के लिए जरूरी है नारीवादी न्यायशास्त्र

नारीवादी सोच कानून की निष्पक्षता को और मजबूत बनाती है। यह दिखाती है कि कैसे कई बार दिखने में 'तटस्थ' कानून असल में पितृसत्ता को मज़बूत करते हैं। नारीवादी न्यायाधीश समाज को एक नए नज़रिए से देखते हैं, जहां हर व्यक्ति को समान और सम्मानजनक मानवीय अधिकार मिलें। ऐसे फैसले लचीले, न्यायपूर्ण और बराबरी को बढ़ावा देने वाले होते हैं।

कानून को अक्सर न्याय का एक तटस्थ और निष्पक्ष साधन माना गया है। लेकिन नारीवादी विचारकों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि कानून असल में उतना निष्पक्ष नहीं है, जितना बताया जाता है। उनके अनुसार, कानून समाज के पितृसत्तात्मक मूल्यों को दिखाता है और उन्हें मजबूत करता है। इसी सोच से नारीवादी न्यायशास्त्र की शुरुआत हुई। यह बताता है कि कानून, उसकी संस्थाएं और प्रक्रियाएं अक्सर पुरुषों के अनुभवों को ज़्यादा महत्व देती हैं, जबकि महिलाओं के अनुभवों को नज़रअंदाज़ करती हैं।

“न्यायशास्त्र” का मतलब है कानून की प्रकृति, उद्देश्य और काम करने के तरीके को समझने वाला सिद्धांत। पारंपरिक न्यायशास्त्र आमतौर पर कानून की वैधता, नैतिकता और व्याख्या जैसे मुद्दों पर केंद्रित रहा है। लेकिन इसमें लिंग या जेंडर को कभी गंभीरता से नहीं देखा गया। नारीवादी न्यायशास्त्र इसी कमी को पूरा करने की कोशिश करता है। यह सवाल उठाता है कि कानून किनके हित में काम करता है? किनकी आवाज़ें इसमें शामिल नहीं होतीं और क्या केवल कानूनी सुधार से असली लैंगिक समानता लाई जा सकती है?

पारंपरिक न्यायशास्त्र आमतौर पर कानून की वैधता, नैतिकता और व्याख्या जैसे मुद्दों पर केंद्रित रहा है। लेकिन इसमें लिंग या जेंडर को कभी गंभीरता से नहीं देखा गया।

क्या है नारीवादी न्यायशास्त्र

नारीवादी न्यायशास्त्र मूल रूप से राजनीति, अर्थशास्त्र और समाज में लैंगिक समानता पर आधारित एक विधिक दर्शन है। विधिक ज्ञान के एक क्षेत्र के रूप में विधि सिद्धांत की शुरुआत 1960 के दशक में हुई। इस अनुशासन के विकास को प्रभावित करने वाला मुख्य कारक नारीवादियों का यह विश्वास है कि लंबे समय से चले आ रहे कानून और प्रथाएं पुरुषों के दृष्टिकोण से बनाई गयी हैं, इसके बनाने में महिलाओं के दृष्टिकोण पर कोई विचार नहीं किया गया। इस प्रकार, नारीवादियों ने एक ऐसा विधिक सिद्धांत विकसित किया जो महिलाओं की ऐतिहासिक अधीनता और एक ऐसे विचार की व्याख्या करने का प्रयास करता है जो महिलाओं की स्थिति को बदल सकता है।

नारीवादी न्यायशास्त्र में तीन अलग-अलग विचारधाराएं हैं, जिन्हें आम तौर पर सांस्कृतिक नारीवाद, उदार नारीवाद और कट्टरपंथी नारीवाद कहा जाता है। कैथरीन ए. मैकिनन (हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1989) की लिखी पुस्तक “टुवर्ड अ फेमिनिस्ट थ्योरी ऑफ़ दा स्टेट” नारीवादी न्यायशास्त्र के आधारभूत ग्रंथों में से एक है। मैकिनन का तर्क है कि कानून तटस्थ नहीं है बल्कि यह पुरुष प्रभुत्व को संस्थागत बनाने का एक शक्तिशाली साधन है, खासकर कामुकता, यौन उत्पीड़न और अश्लील साहित्य जैसे क्षेत्रों में। वह बताती हैं कि महिलाओं की अधीनता कानूनी रूप से निजता, समानता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की परिभाषाओं के माध्यम से मजबूत होती है जो पुरुषों के अनुभवों को विशेषाधिकार प्रदान करती हैं।

नारीवादी न्यायशास्त्र मूल रूप से राजनीति, अर्थशास्त्र और समाज में लैंगिक समानता पर आधारित एक विधिक दर्शन है। विधिक ज्ञान के एक क्षेत्र के रूप में विधि सिद्धांत की शुरुआत 1960 के दशक में हुई। इस अनुशासन के विकास को प्रभावित करने वाला मुख्य कारक नारीवादियों का यह विश्वास है कि लंबे समय से चले आ रहे कानून और प्रथाएं पुरुषों के दृष्टिकोण से बनाई गयी हैं, इसके बनाने में महिलाओं के दृष्टिकोण पर कोई विचार नहीं किया गया ।

भारत में नारीवादी न्यायशास्त्र 

भारत जैसे बहुलवादी और लोकतांत्रिक देश में, जहां नागरिक धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीय मतभेदों से विभाजित हैं और एक संवैधानिक ढांचे से एकजुट हैं, कानूनी विमर्श लैंगिक मानदंडों और सामुदायिक पहचान की अवधारणाओं को परिभाषित और दोबारा स्पष्ट करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और सांप्रदायिक सद्भाव के उन नाज़ुक धागों को एक साथ जोड़े रखने की नैतिक और कानूनी ज़िम्मेदारी भी निभाता है। धर्मनिरपेक्षता की अस्पष्ट प्रकृति और एक सटीक परिभाषा के अभाव के परिणामस्वरूप, देश को जिन धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का पालन करना चाहिए, उनकी व्याख्या करने का प्रमुख दायित्व न्यायपालिका पर आ गया। न्यायपालिका ने विभिन्न समयों और संदर्भों में भारतीय धर्मनिरपेक्षता के विभिन्न रूपों और चरित्रों, जैसे सहिष्णुता, समानता और जीवन शैली, का निर्माण और व्याख्या की है।

भारत में, नारीवादी न्यायशास्त्र एक अलग सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ में विकसित हुआ। हालांकि भारतीय संविधान अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है, व्यक्तिगत कानूनों, दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा और कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में संरचनात्मक बाधाओं की निरंतरता ने कानूनी ढांचों की अपर्याप्तता को उजागर किया। फ्लाविया एग्नेस, लोतिका सरकार और रत्ना कपूर जैसे कार्यकर्ताओं, वकीलों और विद्वानों ने भारत में नारीवादी कानूनी विमर्श को आकार देने में योगदान दिया।

भारत में स्वतंत्रता के बाद के दौर में कार्यस्थलों में समानता, समान वेतन और विवाह, तलाक और संपत्ति के स्वामित्व से संबंधित विभिन्न धर्म-आधारित कानून कानूनी क्षेत्र में बहस के प्रमुख विषय बन गए। साल 1956 का अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1987 का सती प्रथा (निवारण) अधिनियम (1988 का 3), 2005 का घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम और 2013 का कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध और निवारण) अधिनियम महत्वपूर्ण कानून थे जो भारत की स्वतंत्रता के बाद लागू हुए और जिनसे महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ। भारत में नारीवादी कानून द्वारा संबोधित अधिकांश मुद्दे बलात्कार, तलाक, घरेलू हिंसा, लैंगिक भेदभाव, यौन और कार्यस्थल असमानता हैं। इस कानून की व्याख्या लैंगिक रूप से समावेशी तरीके से करने के कई प्रयास किए गए हैं।

फ्लाविया एग्नेस (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1999) ने अपनी पुस्तक “लॉ एंड जेंडर इनइक्वैलिटी: द पॉलिटिक्स ऑफ विमेन राइट्स इन इंडिया” में इस बात का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है कि कैसे भारतीय पर्सनल लॉ, सुधारों के बावजूद, महिलाओं के जीवन पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण को मज़बूत करते रहते हैं। वह विवाह, तलाक, संपत्ति और घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों की पड़ताल करती हैं और तर्क देती हैं कि न्याय व्यवस्था अक्सर महिलाओं की जीवन की वास्तविकताओं को समझने में विफल रहती है। उनका विश्लेषण दर्शाता है कि भारत में नारीवादी न्यायशास्त्र केवल पश्चिमी सिद्धांतों से उधार नहीं ले सकता, बल्कि उसे धर्म, जाति और परंपरा के अनूठे अंतर्संबंधों को भी संबोधित करना होगा। यह कृति भारत में नारीवादी विधिक विद्वत्ता का केंद्रबिंदु बनी हुई है। 

फ्लाविया एग्नेस (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1999) ने अपनी पुस्तक “लॉ एंड जेंडर इनइक्वैलिटी: द पॉलिटिक्स ऑफ विमेन राइट्स इन इंडिया” में इस बात का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है कि कैसे भारतीय पर्सनल लॉ, सुधारों के बावजूद, महिलाओं के जीवन पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण को मज़बूत करते रहते हैं।

भारत में पिछले कई सालों में महिला सम्बन्धी कानूनों में बहुत अधिक बदलाव हुए हैं। भारतीय न्यायालयों ने भी बहुत सारे मामलों में नारीवादी दृष्टिकोण अपनाया है। इतने के बावजूद भी हमें कभी-कभी न्यायालयों की ओर से पितृसत्तात्मक फैसले दिखाई देते हैं। बलात्कार, दहेज, अश्लील साहित्य और सेक्स वर्क से जुड़े हालिया फैसले इस बात के उदाहरण हैं कि कानून की व्याख्या कई बार कैसे बदल जाती है। ये कानून जहां महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों कि लिए बनाये गए हैं वहीं ये कहीं-न-कहीं पुरुषों को छूट देते नज़र आते हैं। ऐसे में आज के समय की मांग है कि भारतीय न्यायालयों में नारीवादी कानूनी विश्लेषण का होना बेहद जरूरी है।

नारीवादी कानूनी विश्लेषण का उद्देश्य न केवल कानूनी विमर्श में महिलाओं और उनके अनुभवों को केंद्र में रखना है, बल्कि यह भी उजागर करना और प्रश्न करना है कि कानून समाज में शक्ति को कैसे अभिव्यक्त और वितरित करते हैं, जिससे शक्ति के अंतर उत्पन्न होते हैं या उन्हें और मज़बूत करते हैं जो हाशिए पर जाने और उत्पीड़न को और बढ़ाते हैं। इस प्रकार, सतही तौर पर तटस्थ नियम, जो पहली नज़र में “महिलाओं के मुद्दों” को छूते नहीं दिखते, सत्ता पर विमर्श के साथ नारीवादी जुड़ाव से लाभान्वित हो सकते हैं।

भारतीय न्यायालयों ने भी बहुत सारे मामलों में नारीवादी दृष्टिकोण अपनाया है। इतने के बावजूद भी हमें कभी-कभी न्यायालयों की ओर से पितृसत्तात्मक फैसले दिखाई देते हैं। बलात्कार, दहेज, अश्लील साहित्य और सेक्स वर्क से जुड़े हालिया फैसले इस बात के उदाहरण हैं कि कानून की व्याख्या कई बार कैसे बदल जाती है।

नारीवादी चेतना का समावेश

न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी ने निर्णयों में नारीवादी विवेक के समावेश के अपने अनुभव का वर्णन करते हुए इस बात पर प्रकाश डाला कि नारीवाद का न्याय करने की प्रक्रिया पर कम स्पष्ट प्रभाव पड़ा है, और न्यायिक निर्णयों में स्पष्ट नारीवादी तर्क देखना अपेक्षाकृत दुर्लभ है। वास्तव में, एक बात जिसे प्राथमिकता नहीं दी गई है, वह है जेंडर नूट्रल कानून निर्माण और वस्तुनिष्ठ कानूनी सोच की पड़ताल, जो अक्सर पुरानी मान्यताओं और सत्ता के पदानुक्रम से जुड़ी होती है। सभी कानूनी कर्ता – न्यायाधीश, वकील और वादी – अपने लिंग, जातीयता, वर्ग, धर्म, विकलांगता, भाषा और यौन अभिविन्यास से प्रभावित दृष्टिकोण से निर्णय लेते हैं। न्यायाधीशों के लिए, यह अक्सर अपरिचित स्थितीय दृष्टिकोण तर्क और मामलों के परिणाम के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। निर्णयकर्ता(ओं) का यह स्थितीय दृष्टिकोण भारतीय न्यायशास्त्र के विकास को उतना ही – यदि उससे भी अधिक नहीं – प्रेरित करता है जितना कि स्टेयर डेसिसिस का सिद्धांत करता है। एक न्यायाधीश का विश्वदृष्टिकोण उन विकल्पों को सूचित कर सकता है जो न्यायाधीश किसी विशेष मामले में अपनी राय के लिए सैद्धांतिक आधार के बारे में करता है।

उदाहरण के लिए, जीजा घोष बनाम भारत संघ में, याचिकाकर्ता, एक प्रख्यात विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता, मस्तिष्क पक्षाघात से पीड़ित थीं। उड़ान में बैठने के बाद उन्हें विमान से उतार दिया गया। विमान से उतारने का कारण उनकी दुर्बलता और लिंग बताया गया क्योंकि विमान में उनकी सहायता के लिए पर्याप्त सुविधाएं नहीं थीं। अब, इस मामले का फैसला करने वाले न्यायाधीशों को यह चुनना था कि क्या वे अपने तर्क को ठोस प्रक्रिया की कसौटी पर आधारित करें, इसे मानवीय गरिमा का उल्लंघन बनाएं, या इसे केवल लैंगिक समानता के बारे में समान सुरक्षा के मामले के रूप में तय करें। न्यायालय ने विकलांगता अधिकारों को एक समग्र अर्थ देते हुए पहला रास्ता अपनाया और माना कि विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों के विषय को किसी भी अन्य चीज़ की तुलना में मानवाधिकार के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। न्यायालय के तर्क में इस दृष्टिकोण ने निर्णय में नारीवादी चेतना को समाहित किया, जिससे निष्पक्षता के रूप में न्याय प्राप्त हुआ।

न्यायालय ने विकलांगता अधिकारों को एक समग्र अर्थ देते हुए पहला रास्ता अपनाया और माना कि विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों के विषय को किसी भी अन्य चीज़ की तुलना में मानवाधिकार के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। न्यायालय के तर्क में इस दृष्टिकोण ने निर्णय में नारीवादी चेतना को समाहित किया, जिससे निष्पक्षता के रूप में न्याय प्राप्त हुआ।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी कहते हैं कि नारीवाद केवल महिलाओं का क्षेत्र नहीं है, और हम ‘महिला’ श्रेणी में निहित विविध, परिवर्तनशील पहचानों को स्वीकार करते हैं और उनका सम्मान करते हैं। इस व्यापक दृष्टिकोण के अंतर्गत, यह स्वीकार किया जाता है कि नारीवादी असहमत हो सकते हैं, और फिर भी नारीवादी हो सकते हैं, और कोई एकात्मक नारीवादी पद्धतियाँ या तर्क प्रक्रियाएँ नहीं हैं। एक न्यायाधीश का दृष्टिकोण किसी राय के सैद्धांतिक आधार के बारे में उसके निर्णय को प्रभावित कर सकता है। अदालत को यह तय करना पड़ सकता है कि किसी मुकदमे का फैसला निजता के अधिकारों से जुड़े एक ठोस प्रक्रियात्मक मामले के रूप में किया जाए या लैंगिक समानता से जुड़े समान संरक्षण के मामले के रूप में। निर्णयकर्ता लिंग, जातीयता, वर्ग, लैंगिकता और अन्य विशेषताओं के बारे में मान्यताओं और अपेक्षाओं से प्रभावित होते हैं। नियमों और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं के संदर्भ में न्यायिक प्रणाली की घोषित निष्पक्षता के बावजूद, अनुभव-आधारित विचारों और धारणाओं का न्यायाधीशों की कानून की व्याख्या और कार्यान्वयन पर एक बड़ा, हालांकि देखने में मुश्किल, प्रभाव हो सकता है।

भारत में नारीवादी न्यायशास्त्र के सामने चुनौतियां

भारत में नारीवादी न्यायशास्त्र के सामने कई चुनौतियां हैं। इनमें सबसे बड़ी चुनौती है हमारे समाज के पुराने कानून, जो पितृसत्तात्मक सोच पर आधारित हैं। जैसे दहेज प्रथा, जिसमें औरतों के साथ भेदभाव गहराई से जुड़ा है। इसी तरह कानूनी प्रत्यक्षवाद नाम का एक सिद्धांत है, जो यह मानता है कि समाज के बनाए नियम ही कानून हैं। यह सोच भारत में मौजूद लैंगिक असमानता को और बढ़ा देती है। कार्यस्थलों पर महिलाओं के साथ भेदभाव अब भी आम बात है। कई जगहों पर महिलाओं को समान काम के लिए कम वेतन दिया जाता है या फिर ऊंचे पदों पर पुरुषों को प्राथमिकता दी जाती है। राजनीति में भी पुरुषों की भागीदारी अधिक है, जिससे महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया में बराबर का स्थान नहीं मिल पाता। यह स्थिति महिलाओं के सशक्तिकरण में बड़ी रुकावट बनती है।

हालांकि कानून समाज में बदलाव लाने का एक ज़रूरी और जीवंत साधन भी है। जब न्यायाधीश अलग-अलग सामाजिक पृष्ठभूमि और अनुभवों से आते हैं, तो वे कानून की व्याख्या अधिक संवेदनशील तरीके से कर पाते हैं। नारीवादी दृष्टिकोण यही सिखाता है कि न्याय केवल नियमों से नहीं, बल्कि समानता और संवेदनशीलता से होना चाहिए। नारीवादी सोच कानून की निष्पक्षता को और मजबूत बनाती है। यह दिखाती है कि कैसे कई बार दिखने में ‘तटस्थ’ कानून असल में पितृसत्ता को मज़बूत करते हैं। नारीवादी न्यायाधीश समाज को एक नए नज़रिए से देखते हैं, जहां हर व्यक्ति को समान और सम्मानजनक मानवीय अधिकार मिलें। ऐसे फैसले लचीले, न्यायपूर्ण और बराबरी को बढ़ावा देने वाले होते हैं। यही नारीवादी न्यायशास्त्र का असली मकसद है ऐसा समाज बनाना जहां हर व्यक्ति को इंसान के रूप में बराबरी का हक़ मिले।

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