संस्कृतिकिताबें हिंदी साहित्य में महिलाओं के शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण और उनका सामाजिक बहिष्कार

हिंदी साहित्य में महिलाओं के शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण और उनका सामाजिक बहिष्कार

साहित्य लेखन में ज्यादातर पुरुषों का वर्चस्व रहा है। इसलिए महिलाओं का अनुभव, उनका दुख और उनकी इच्छाएं लंबे समय तक साहित्य में हाशिए पर रहीं। पुरुष लेखक, आलोचक और प्रकाशन संस्थाओं ने मिलकर एक ऐसा ढांचा तैयार कर दिया, जहां महिलाओं को देखा तो गया, पर सुना नहीं गया। 

हिन्दी साहित्य में लंबे समय तक महिलाओं के शरीर और उनकी इच्छाओं पर खुलकर बात करना गलत समझा गया। साहित्य लेखन में महिलाओं को जगह तो दी गई। लेकिन उसे हमेशा संस्कारी, त्याग करने वाली और आदर्श महिला की छवि के रूप में ही सीमित कर दिया गया। हमारे रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज की तरह शायद साहित्य ने भी मान लिया कि महिला का शरीर निजी नहीं, सामूहिक नैतिकता का प्रतीक है और यह कथित इज़्ज़त का सवाल है। इसलिए महिलाओं की यौनिक इच्छाएं शर्म और लाज के पर्दे में छिपा दी जानी चाहिए। साहित्य लेखन में ज्यादातर पुरुषों का वर्चस्व रहा है। इसलिए महिलाओं का अनुभव, उनका दुख और उनकी इच्छाएं लंबे समय तक साहित्य में हाशिए पर रहीं। पुरुष लेखक, आलोचक और प्रकाशन संस्थाओं ने मिलकर एक ऐसा ढांचा तैयार कर दिया, जहां महिलाओं को देखा तो गया, पर सुना नहीं गया। 

लेकिन बदलते समय के साथ – साथ कुछ लेखकों और खासकर महिला लेखिकाओं ने इस चुप्पी को तोड़ने की कोशिश की और लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया कि आखिर क्यों महिला का शरीर नियंत्रण का विषय है? क्यों उसकी इच्छाएं और विकल्प असामाजिक कहे जाते हैं? हालांकि कुछ रचनाओं ने महिला विमर्श को नई दिशा दी, लेकिन सामाजिक आलोचना ने इन्हें आज भी स्वीकार नहीं किया है। यही विरोध और स्वीकार न करना हिंदी साहित्य के राजनीतिक सच को सामने लाता है। जब कोई महिला अपने शरीर की बात करती है, तो वह केवल अपने शरीर की नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व की आज़ादी की बात कर रही होती है और महिलाओं का आज़ाद होना शायद पितृसत्तात्मक समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसलिए महिलाओं के शरीर, उनकी यौनिकता और उनके निर्णयों पर नियंत्रण बना कर उन्हें साहित्य और समाज दोनों जगह में हाशिए पर रखा गया है।

हिन्दी साहित्य में लंबे समय तक महिलाओं के शरीर और उनकी इच्छाओं पर खुलकर बात करना गलत समझा गया। साहित्य लेखन में महिलाओं को जगह तो दी गई। लेकिन उसे हमेशा संस्कारी, त्याग करने वाली और आदर्श महिला की छवि के रूप में ही सीमित कर दिया गया।

पितृसत्ता और महिला के शरीर पर नियंत्रण

हिन्दी साहित्य में पितृसत्तात्मक समाज ने महिला के शरीर, इच्छाओं और उसकी पहचान को हमेशा सामाजिक मर्यादाओं और नैतिकताओं की सीमाओं में बांध कर देखा और उसके शरीर को हमेशा इज्जत, संस्कार और परिवार की मर्यादा के तौर पर प्रस्तुत किया है। लेखक प्रेमचंद, जिन्होंने समाज की असमानताओं को सामने लाने के लिए लेखन किया, वे भी इस पितृसत्तात्मक संरचना से पूरी तरह मुक्त नहीं थे। उनके उपन्यास ‘निर्मला में नायिका जब 15 साल की थी तब उसकी शादी 40 साल की उम्र के व्यक्ति से कर दी जाती है। उम्र के अंतर ने निर्मला के सारी इच्छाओं, भावों और चंचलता को ख़त्म कर दिया। गौरतलब है कि इसमें निर्मला का चरित्र बहुत अच्छा दिखाया गया है क्योंकि उसने समाज के बनाए हुए, कथित पत्नी धर्म का पालन किया बिना कोई शिकायत किए बगैर। उसका जीवन एक ऐसी महिला की त्रासदी है, जिसे अपने ही शरीर पर स्वामित्व नहीं है। वह केवल एक पत्नी, बहू और माँ की भूमिका में सीमित रह जाती है। उसकी इच्छाएं, कामुकता जो स्वाभाविक है, उन्हें अनदेखा कर दिया जाता है । 

इसके बाद के साहित्य में भी यही बात देखने को मिलती है । फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आंचल में ग्रामीण समाज की नैतिकता महिला के शरीर पर सामाजिक नियंत्रण को और गहराई से दिखाती है। कि किस तरह उपन्यास की महिलाएं ग्रामीण संस्कृति और नैतिकता की बेड़ियों में बंधी हैं। अपनी माटी में छपे लेख के मुताबिक, इस उपन्यास में एक गांव का जिक्र किया गया है जहां मठ और महंत वाली परंपरा होती है। यानी महंत शादी नहीं कर सकते, लेकिन इसमें महंत मठ के पूराने सेवक की बेटी लक्ष्मी को कानूनी लड़ाई के बाद अपने मठ पर ले आते हैं। यह रास्ता महंत के जीवन में भले ही प्रसन्नता लाने वाला हो लेकिन अबोध लड़की का जीवन इससे बर्बाद हो रहा था। यादव टोली का किसलू कहता है,’महंत जब लक्ष्मी दासिन को मठ पर लाया था तो वह एकदम अबोध थी, एकदम नादान। कहां वह बच्ची और कहां पचास बरस का बूढ़ा गिद्ध! रोज रात में लक्ष्मी रोती थी ऐसा रोना कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघल जाए।’ इसके बावजूद भी दोष लक्ष्मी का ही है क्योंकि उसने माया बनकर महंत के धर्म को भ्रष्ट कर दिया। यानी किसी महिला के साथ अगर यौन हिंसा भी हो रही है तो उसमें भी उसी का दोष है । उनका शरीर सिर्फ उनके अपने अस्तित्व का नहीं, बल्कि पूरे परिवार और गांव की इज़्ज़त का प्रतीक बना दिया गया है और इस इज़्ज़त के नाम पर पुरुष एक महिला के शरीर और उसके व्यवहार पर नियंत्रण बनाए रखता है।

फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ में ग्रामीण समाज की नैतिकता महिला के शरीर पर सामाजिक नियंत्रण को और गहराई से दिखाती है। कि किस तरह उपन्यास की महिलाएं ग्रामीण संस्कृति और नैतिकता की बेड़ियों में बंधी हैं।

यौनिकता और सामाजिक बहिष्करण

हिंदी साहित्य में महिलाओं की यौनिकता के चित्रण को लंबे समय तक पुरुषों ने अपने  नियंत्रण में रखा  । जिसमें महिला के शरीर को या तो ‘पूजनीय’ देवी के रूप में प्रस्तुत किया गया, या एक वस्तु के रूप में। समाज की तरह साहित्य ने भी तय किया कि अच्छी महिला वह है जो संयम और मर्यादा में रहती  है। लेकिन जो महिला अपनी यौनिक इच्छाओं को जाहीर करती है उसे चरित्रहीन कहकर अच्छी महिला होने की श्रेणी से बाहर कर दिया जाता है। प्रेमचंद का उपन्यास  सेवासदन की नायिका सुमन  जब अपने पति और समाज की मर्यादाओं से मुक्त होकर आज़ाद जीवन चुनती है और आजीविका के लिए सेक्स वर्क करती है तो इसे उसकी यौनिकता से जोड़कर एक अपराध की तरह देखा जाता है। जब वो ये काम छोड़कर एक अनाथालय में शिक्षिका के रूप में काम करने की कोशिश करती है तो भी उसे भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसी तरह मोहन राकेश के नाटकआषाढ़ का एक दिन की महिला किरदार या नायिका मल्लिका इसी संघर्ष का सामना करती है और चाहने के बावजूद अपनी इच्छाओं को खुलकर नहीं जी पातीं।

वहीं दूसरी और दूसरी ओर कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग जैसी लेखिकाओं ने महिलाओं की यौनिकता को ‘पाप’ की बजाय स्वाभाविक और मानवीय अनुभव के रूप में प्रस्तुत किया। मृदुला गर्ग का चित्तकोबरा उपन्यास हिंदी साहित्य में महिलाओं की यौनिकता पर सबसे बहुचर्चित और विवादास्पद उपन्यासों में से एक है। जिसमें नायिका ‘मृणाल’ एक विवाहित महिला है जो एक अन्य पुरुष के प्रति आकर्षित होती है और यह आकर्षण केवल भावनात्मक नहीं, शारीरिक भी है। उन्होंने  महिला की यौन भावनाओं की इच्छा को स्वीकार किया है। इसी आधार पर मनु की यौन भावनाओं का बेबाक वर्णन भी किया है। स्क्रॉल इन के मुताबिक, इस उपन्यास के बाद उन पर कई आरोप लगे यहां तक कि उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया था। लेकिन यह वही रचना है जिसने पहली बार हिंदी साहित्य में यह कहा कि महिला की यौन इच्छा अपराध नहीं स्वाभाविक है। इसी तरह कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी  में मित्रो एक ऐसी महिला है जो अपनी कामना को बिना अपराधबोध के स्वीकार करती है। वह एक ऐसे ही मध्यमवर्गीय परिवार की सदस्य है, जहां उसका पति उसकी यौन इच्छाओं की उपेक्षा करता है। जब वह इसका विरोध करती है और अपने अधिकारों का हनन बताती है तो उसे ‘सेक्स वर्कर’ तक कह दिया जाता है।  

कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी  में मित्रो एक ऐसी महिला है जो अपनी कामना को बिना अपराधबोध के स्वीकार करती है। वह एक ऐसे ही मध्यमवर्गीय परिवार की सदस्य है, जहां उसका पति उसकी यौन इच्छाओं की उपेक्षा करता है। जब वह इसका विरोध करती है और अपने अधिकारों का हनन बताती है तो उसे ‘सेक्स वर्कर’ तक कह दिया जाता है।  

निर्णय लेने और आज़ादी का अभाव

हिंदी साहित्य में महिला का चित्रण लंबे समय तक एक ऐसे ढांचे में किया गया, जहां उसकी पहचान, इच्छाएं और निर्णय पुरुषों या समाज की स्वीकृति पर निर्भर रहते हैं। ज्यादातर कहानियों में महिला किरदार परिवार, परंपरा और सामाजिक मर्यादाओं की दीवारों में क़ैद दिखाई देती हैं। वह अपने जीवन में प्रेम, शादी, नौकरी और मातृत्व से जुड़े निर्णय खुद नहीं ले पाती। यह प्रेमचंद की किताब ‘निर्मला’ में भी देखा जा सकता है। जब उसकी शादी उम्र में बड़े व्यक्ति से केवल पिता की सामाजिक प्रतिष्ठा बचाने के लिए कर दी जाती है। वह अपनी इच्छा से कुछ भी तय नहीं कर पाती। इसी तरह अमृता प्रीतम की किताब पिंजर विभाजन के दौर में महिला के शरीर और अस्तित्व पर हुए नियंत्रण को सामने लाता है। जब एक पारिवारिक विवाद का बदला लेने के कारण नायिका पूरो का अपहरण होता है तो उसे कई हफ्तों तक एक झोपड़ी में बंद करके रखा जाता है और वह जब अपने परिवार के पास वापस आती है, तो उसे ठुकरा दिया जाता है। 

क्योंकि परिवार ने उससे ज़्यादा अपनी कथित इज्जत और समाज की मर्यादा को महत्व दिया गया। इसी तरह महादेवी वर्मा ने ‘श्रृंखला की कड़ियां ’ में अपनी नारीवादी लेखनी के माध्यम से इसका बहुत अच्छे तरीके से वर्णन किया है। वह लिखती हैं कि समाज में वही व्यक्ति सम्मान का अधिकारी होता है, जिसमें सोचने, समझने और निर्णय लेने की क्षमता हो और यह क्षमता महिलाओं में भी पुरुषों के समान ही होती है। गौरतलब है कि, हमारा पारंपरिक समाज महिलाओं के मानसिक विकास को रोकता रहा है। महिलाओं को उनके आजाद व्यक्तित्व की बजाय पुरुषों की छाया बनने के लिए बाध्य किया गया। इतिहास में शायद ही कहीं यह देखने को मिले कि कोई पुरुष अपनी पत्नी की छाया बनकर रहा हो या उसके निर्देशों पर चला हो, लेकिन समाज हमेशा महिलाओं से यही अपेक्षा करता आया है।इन सभी उदाहरणों से यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि हिंदी साहित्य में महिला पात्रों को लंबे समय तक निर्णय और आज़ादी से वंचित रखा गया।

हिंदी साहित्य में महिलाओं के शरीर, इच्छाओं और अस्तित्व को लेकर जो दृष्टिकोण लंबे समय तक बना रहा, वह हमारे समाज की पितृसत्तात्मक सोच का ही विस्तार था। महिला पात्रों को हमेशा संस्कारी, त्याग करने वाली और आदर्श महिला की परिधि में सीमित कर दिया गया, ताकि वे पुरुषवादी सोच के मुताबिक बनी रहें। उनके शरीर को निजी आज़ादी की जगह सामूहिक नैतिकता का प्रतीक बना दिया गया मानो वह समाज की संपत्ति हो। लेकिन धीरे-धीरे कुछ महिला लेखिकाओं ने इस चुप्पी  की परंपरा को तोड़ा। कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, महादेवी वर्मा और अमृता प्रीतम जैसी रचनाकारों ने यह दिखाया कि महिला की कामना, संवेदना और निर्णय लेने की क्षमता उतनी ही स्वाभाविक और मानवीय है जितनी किसी पुरुष की। हिंदी साहित्य का यह पूरा सफर हमें यह सिखाता है कि महिला की आज़ादी केवल उसके शरीर तक सीमित नहीं है। यह उसकी सोच, उसकी पसंद और उसके निर्णयों की आज़ादी से जुड़ा सवाल है। जब तक साहित्य और समाज दोनों इस आज़ादी को स्वीकार नहीं करते, तब तक बराबरी की बात अधूरी रहेगी।

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