संस्कृतिकिताबें ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को चुनौती देती, स्त्री अस्मिता की आवाज़ है कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी’

ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को चुनौती देती, स्त्री अस्मिता की आवाज़ है कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी’

मित्रो मरजानी के माध्यम से सोबती अनछुए पहलूओं को बेबाकी से लोगों के सामने रखती हैं। उनकी सहज, सरल भाषा और दृढ़ता उपन्यास के मुख्य पात्र ‘मित्रो’ में झलकती है।

‘मित्रो मरजानी’ कृष्ण सोबती की लिखी हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी उपन्यास है। साल 1967 में प्रकाशित यह उपन्यास साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ जैसे पुरस्कारों से सम्मानित होने के बावजूद, कृष्णा सोबती की लेखनी आलोचनाओं का कम सामना नहीं की है। मित्रो मरजानी के प्रकाशन के बाद उनपर जातिवादी होने का गंभीर आरोप लगाया गया। नारी स्वतंत्रता को केवल यौनिकता की परिधी तक सीमित रखने की बात भी की गई। जब कोई लेखक किसी नए परिप्रेक्ष्य को पाठकों के सामने रखते हैं, जो सामाजिक मूल्यों और मानदंडों से अलग होता है, तो उसकी किसी न किसी रूप में आलोचना तय होती है। मित्रो मरजानी के माध्यम से सोबती सबसे अनछुए पहलू को बहुत ही बेबाकी से लोगों के सामने रखती हैं।

उनकी सहज, सरल भाषा और दृढ़ता उपन्यास के मुख्य पात्र ‘मित्रो’ में झलकती है। लेकिन, सहज और सरल तरीके से कही गई बात को आसानी से स्वीकार कर लेने का सामर्थ्य समाज में नहीं था। कृष्णा सोबती न जाने ऐसे ही कितने बेशुमार लेखों कहानियों और उपन्यासों से स्त्री विमर्श, उनकी स्वतंत्रता, सामाजिक संरचना में स्त्री का स्थान और उनके जीवन की कठिनाइयों का वर्णन बड़े ही साहस के साथ किया है। उनका लेखन पूरे समाज के लोगों को एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है और महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत है।

मित्रो मरजानी के माध्यम से सोबती सबसे अनछुए पहलू को बहुत ही बेबाकी से लोगों के सामने रखती हैं। उनकी सहज, सरल भाषा और दृढ़ता उपन्यास के मुख्य पात्र ‘मित्रो’ में झलकती है।

सोबती का लेखन और वर्जित मुद्दे  

वैसे तो भारतीय समाज में महिलाओं के लिए बहुत से क्षेत्र वर्जित हैं, लेकिन वह वहां अप्रत्यक्ष रूप से होती हैं। उसमें महिलाओं के यौन संबंध या यौन इच्छाओं की बात, महिलाएं अपने घर, परिवार या यहां तक कि अपने पति से भी जाहिर नहीं कर पाती। मित्रो एक ऐसे ही मध्यमवर्गीय परिवार की सदस्य है, जहां उसका पति उसकी यौन इच्छाओं की उपेक्षा करता है। जब वह इसका प्रतिरोध करती है और अपने अधिकारों का हनन बताती है तो उसे ‘सेक्स वर्कर’ तक कह दिया जाता है। समाज का यह दोहरा चेहरा सदियों से चलता चला आ रहा है। आज भी यदि कोई महिला अपनी इच्छाओं को या इच्छाओं के न पूरा होने की बात करे तो उसे अच्छी नजर से नहीं देखा जाता।

तस्वीर साभार: Indian Express

ऐसे में अनेक नकारात्मक विशेषणों से उसके संपूर्ण जीवन और चरित्र पर प्रश्न खड़ा कर दिया जाता है। लेकिन, आपको यही मानसिकता पुरुषों के लिए कभी भी देखने को नहीं मिलेगी। अमूमन पुरुषों की स्वाभाविक प्रकृति बताकर महिलाओं के साथ हो रहे मैरिटल रेप तक को समाज उचित ठहरा देता है। ऐसी ही बेबाक, अपनी इच्छाओं को सबके सामने खुलकर रखने वाली, किसी के सामने सिर न झुकाने वाली, पितृसत्ता के आगे घुटने न टेकने वाली चरित्र को गढ़ने वाली कृष्णा सोबती की आलोचना इतनी चौंकाने वाली बात नहीं है। मित्रो मरजानी उस समय की लिखी गई ऐसी पहली रचना थी जिसमें महिलाओं के दैहिक अधिकारों की बात कही गई।

मित्रो: नायिका नहीं, एक सोच की प्रतीक

इस उपन्यास की भूमिका को लिखते हुए लेखिका खुद ही लिखती हैं कि मित्रो एक विवादास्पद पात्र है। यह रचना संयुक्त परिवार की पृष्ठभूमि पर रखी गई है। गुरुदास और धनवंती इस परिवार के सबसे बड़े हैं जिनके तीन पुत्र बनवारीलाल, सरदारीलाल और गुलज़ारी लाल उनकी पत्नियां सुहागवंती, सुमित्रवंती (मित्रो) और फूलवंती हैं। ये तीनों महिलाएं एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं और इनके माध्यम से ही अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है। सुहागवंती घर की सबसे लाडली और प्रिय है क्योंकि वह उसी ढांचे में रची-बसी है, जिस ढांचे में यह समाज किसी महिला को स्वीकार करता है। फूलवंती को घर–परिवार से कोई मतलब नहीं है।

लेकिन, सुमित्रवंती (मित्रो) बिल्कुल अलग है। वह कोई महान आदर्शवादी महिला नहीं है। वह न तो समाज से डरती है, न ईश्वर से। वह प्रेम और ममता से भरी हुई मां बनने की उच्च लालसा रखने वाली लेकिन किसी के सामने सिर न झुकाने वाली निडर और सुलझी हुई महिला है। वह अपने जीवन को भरपूर जीना चाहती है। मित्रो का चित्रण कहानी के पात्र मात्र नहीं है। ऐसी बहुत सी मित्रो इस समाज में पहले से मौजूद हैं जिनकी बात नहीं कि जाती या खुद भी अपनी बात नहीं कर पाती। मित्रो अपने जीवन को अपने मनमाफिक जीना चाहती है। सभी जरूरतों के साथ वह अपने दैहिक जरूरतों को भी पूरा करना अनिवार्य समझती है। मित्रो का पालन पोषण एक सेक्स वर्कर ने ही किया है। वह एक अलग परिवेश से आई हुई है जिसकी जानकारी न होने की दुहाई देकर धनवंती इसे अपने साथ धोखा भी मानती हैं। इसलिए, मित्रो सामाजिक मूल्यों को नहीं जानती या उसे जानते हुए भी खुद को एक सांचे में फिट नहीं करना चाहती।

वह किसी भी गलत फैसले से बचती है लेकिन वह अपनी अस्मिता को खोने नहीं देती। सोबती ने इस उपन्यास के जरिए यह दिखाया कि स्त्रियों के संघर्ष केवल बाहरी नहीं होते — वे मानसिक, भावनात्मक और सांस्कृतिक भी होते हैं और जब कोई स्त्री इन सब से जूझकर अपने अधिकारों की बात करती है, तो वह नायक बन जाती है।

समाज का जातिवादी चेहरा और सोबती का लेखन

मित्रो अपने देवरानी और जेठानी के ‘सुखी वैवाहिक जीवन’ को देखकर आहत होती है और अपने पति से कई बार लड़ाई करती है। सरदारीलाल न सिर्फ उसकी इच्छाओं की उपेक्षा करता है, बल्कि कई बार उसे जातिसूचक गालियां भी देता है। यही कारण था कि कृष्णा सोबती पर जातिवादी होने के आरोप लगे। उपन्यास के अंत में जब मित्रो अपने पति के साथ अपनी मां से मिलने जाती है, जो कि एक सेक्स वर्कर है, तो उसकी मां मित्रो को अपने प्रेमी के पास भेजती है। लेकिन मित्रो वहां नहीं रुकती। वह लौट आती है क्योंकि वह जानती है कि उसके लिए अपने आत्मसम्मान की रक्षा ज़्यादा ज़रूरी है। मित्रो जानती है कि वैवाहिक जीवन और सामाजिक रिश्तों की गरिमा क्या होती है, लेकिन वह अपनी इच्छाओं और आत्मनिर्णय से समझौता नहीं करती।

तस्वीर साभार: Pustaknama

वह किसी भी गलत फैसले से बचती है लेकिन वह अपनी अस्मिता को खोने नहीं देती। सोबती ने इस उपन्यास के जरिए यह दिखाया कि स्त्रियों के संघर्ष केवल बाहरी नहीं होते — वे मानसिक, भावनात्मक और सांस्कृतिक भी होते हैं और जब कोई स्त्री इन सब से जूझकर अपने अधिकारों की बात करती है, तो वह नायक बन जाती है। जब मित्रो अपनी इच्छाओं के बारे में सुहागवंती से कहती है तो वह उसे झिड़ककर समाज के नियमों को याद दिलाती है। मित्रो कहती है कि मैं नहीं मानती किसी ऐसी सीमा को, जो मुझे मेरे शरीर और मन की स्वतंत्रता से वंचित करती हो। आगे वह घर में हो रहे बाद विवाद के दौरान कहती है कि यह समाज तुमसे कहता है, तुम्हारी देह, तुम्हारी इच्छा, तुम्हारी संतुष्टि सिर्फ तुम्हारे पति के लिए है।

मित्रो अपने देवरानी और जेठानी के ‘सुखी वैवाहिक जीवन’ को देखकर आहत होती है और अपने पति से कई बार लड़ाई करती है। सरदारीलाल न सिर्फ उसकी इच्छाओं की उपेक्षा करता है, बल्कि कई बार उसे जातिसूचक गालियां भी देता है।

लेकिन मैं तो कहती हूं, यह सब मेरी अपनी चीजें हैं। मित्रो इस खोखले समाज से अलग है और वह खुदको पहचानती है। वह अपने अधिकार जानती है और उसपर कायम रहना चाहती है। मित्रो सभी पारंपरिक सामाजिक मूल्यों का विरोध करती है और रूढ़िवादी विचारधारा के चंगुल से बचने का एक संदेश देती है। महिलाओं को मानना होगा कि जीवन का एक बड़ा सच है कि जबतक वह खुद अपना वजूद नहीं पहचानेगी, समाज भी उन्हें वह स्थान नहीं देगा। उन्हें खुद को पाने के लिए मजबूती से उठना होगा और हर कदम पर विद्रोह करना होगा। लेखिका बताती हैं कि यह विद्रोह का तरीका सहज हो सकता है। उग्रता हमेशा मानव जीवन के लिए हानिकारक रही है।

कृष्णा सोबती की लेखनी और सामाजिक चेतना

तस्वीर साभार: Pustaknama

कृष्णा सोबती को सामाजिक और लैंगिक भेदभाव जैसे मुद्दों पर खुलकर अपनी बात कहने के कारण कई बार विरोध का सामना करना पड़ा। उनकी कहानियाँ और उपन्यास इतने समृद्ध और यथार्थपूर्ण हैं कि वे सामाजिक और व्यक्तिगत जटिलताओं के बीच की खाई को उजागर करते हैं। उनकी रचनाओं के पात्र न केवल अपने समाज से प्रभावित होते हैं, बल्कि वे अपने भीतर चल रहे मानसिक संघर्षों और दबी इच्छाओं से भी जूझते हैं। यही विशेषता उन्हें अन्य लेखकों से अलग करती है। कृष्णा सोबती और उनकी जैसी अनेक वरिष्ठ लेखिकाएं हमें एक ऐसा समृद्ध साहित्य दे गई हैं, जिसे पढ़कर हम न केवल अपने समय को बेहतर समझ पाते हैं, बल्कि अपने जीवन की दिशा भी तय कर सकते हैं। यह साहित्य हमारे मानसिक द्वंद्व को समझने और सुलझाने में सहायक होता है। हम इन सभी लेखिकाओं के प्रति सदैव ऋणी रहेंगे, जिन्होंने स्त्री दृष्टिकोण को स्वर दिया और साहित्य के माध्यम से एक संवेदनशील सामाजिक विमर्श खड़ा किया।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content