शरणकुमार लिंबाले समकालीन दलित साहित्य के एक सशक्त और प्रभावशाली स्वर हैं। उनका जन्म 1 जून 1956 को हुआ और उन्होंने 40 से अधिक पुस्तकों का लेखन और संपादन किया है। उनके उपन्यास ‘सनातन’ को साल 2020 में प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान प्राप्त हुआ। लिंबाले के साहित्य में सदियों से उपेक्षित, उत्पीड़ित और बहिष्कृत दलित जीवन की पीड़ा ही नहीं, बल्कि उसके कारणों के विरुद्ध प्रतिरोध भी दर्ज है। उन्होंने ‘भोगे हुए यथार्थ’ को दलित लेखन की मूल दृष्टि माना और आत्मकथा को एक सशक्त माध्यम के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी चर्चित आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ इसका प्रमाण है। लेकिन, उनका साहित्य केवल आत्मकथा तक सीमित नहीं है। कहानी, कविता, उपन्यास जैसी अन्य विधाओं में भी उनका लेखन गहरा प्रभाव छोड़ता है। कहानी-संग्रह ‘छुआछूत’ में उन्होंने जातिगत हिंसा, सामाजिक विषमता और दलित जीवन की जटिलताओं को अत्यंत संवेदनशीलता और प्रतिरोध के साथ प्रस्तुत किया है।
आत्मकथा से आगे: दलित जीवन का कलात्मक चित्रण
शरणकुमार लिंबाले की पहचान केवल आत्मकथा लेखक की नहीं है। उन्होंने कविता, आलोचना और कहानी जैसी विधाओं में भी अपनी छाप छोड़ी है। ‘अक्करमाशी’ ने आत्मकथा को विमर्श का केन्द्र बनाया, लेकिन ‘छुआछूत’ जैसी रचनाओं में उन्होंने कलात्मकता और यथार्थ का गहरा संतुलन दिखाया। इन कहानियों में पीड़ा केवल वर्णन नहीं, बल्कि चेतना और कार्रवाई का रूप लेती है। दलित साहित्य यहां केवल ‘दुख का दस्तावेज़’ नहीं, बल्कि क्रांति की संभावनाओं से जुड़ता है। कहानी संग्रह की पहली कहानी ‘नाग पीछा कर रहे हैं’ में लिंबाले दलितों की अमानवीय स्थिति को उजागर करते हैं। लेखक लिखते हैं, “हमारा खानदान कोंड्या को ही नहीं, उसकी सत्तरह पीढ़ियों को पालतू जानवरों की तरह पालता आ रहा था।”

यह लाइन न केवल सामाजिक असमानता की गहराई को दिखाती है, बल्कि यह भी स्पष्ट करती है कि जाति व्यवस्था ने दलितों को इंसान तक नहीं समझा। यहां तक कि एक कुत्ता घर में घूम सकता था, पर कोंड्या को सिर्फ़ सीढ़ी तक आने की इजाज़त थी। यह पशु से भी हीन स्थिति सामाजिक व्यवस्था की क्रूरता को उजागर करती है।
लिंबाले का साहित्य धर्म के पोषित जातिगत हिंसा की तीखी आलोचना करता है। वे लिखते हैं “सोचता हूं, इन धर्मग्रंथों के पन्ने-पन्ने पर टट्टी कर देनी चाहिए… इन्हीं मंत्रों ने हमारी आदमियत को नकारा है।” यह आक्रोश सवर्ण धर्मशास्त्रों के दलितों के मानवाधिकारों को नकारे जाने पर है। ‘
लोकतांत्रिक उम्मीद, धर्म और शोषण की आलोचना
इन कहानियों में डॉ भीमराव अंबेडकर की विचारधारा गहराई से रची-बसी है। ‘क्रांतिपर्व’ कहानी में त्रिमुख अपनी माँ की हड्डियां बेचकर उस पैसे से अंबेडकर की मूर्ति की निधि में योगदान करता है। यह प्रतीकात्मक रूप से बताता है कि दलित समुदाय ने अपने इतिहास, पीड़ा और आत्मसम्मान को अंबेडकर के विचारों से जोड़कर देखा है। चुनावों के ज़रिये बदलाव की उम्मीद को कहानियों में दिखाया गया है। ‘क्रांतिपर्व’ में ही लेखक लिखते हैं “गांव के चुनाव में सर्जेराव ने पटेल की पार्टी को हरा दिया। चुनाव में महारबाड़े ने पटेल के विरोध में मतदान किया था।” यह लोकतंत्र में विश्वास और दलित चेतना के जागरण का संकेत है।
लिंबाले का साहित्य धर्म के पोषित जातिगत हिंसा की तीखी आलोचना करता है। वे लिखते हैं “सोचता हूं, इन धर्मग्रंथों के पन्ने-पन्ने पर टट्टी कर देनी चाहिए… इन्हीं मंत्रों ने हमारी आदमियत को नकारा है।” यह आक्रोश सवर्ण धर्मशास्त्रों के दलितों के मानवाधिकारों को नकारे जाने पर है। ‘समाधि’ कहानी में मंदिर में दो लाशें—एक कोतवाल साबणे की और दूसरी भगवान की—हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। साबणे की हत्या उन्हीं लोगों ने की जो अब उन्हें भगवान मानते हैं। यह विडंबना बताती है कि किस तरह अमूमन जातिगत हिंसा को बाद में धार्मिक प्रतीक बनाकर भुनाया जाता है। ‘हरिजन’ में लिंबाले बताते हैं कि दलितों के लिए उनकी जाति ही उनकी सबसे पहली और आखिरी पहचान बन जाती है, चाहे वे कितनी भी मेहनत करें या कितने भी योग्य हों।
वह लिखते हैं- “हरिजन मास्टर अच्छा पढ़ाते थे। उनका पढ़ाना और उनकी जाति को भूलना किसी के लिए संभव नहीं था।” यह वाक्य बताता है कि दलितों को ‘आरक्षण से आया है’ जैसे जुमलों से कैसे उनकी काबिलियत को लगातार चुनौती दी जाती है। लिंबाले की कहानियां केवल दलित पीड़ा का वर्णन नहीं करतीं, वे प्रतिरोध की ज़मीन तैयार करती हैं।
वह लिखते हैं- “हरिजन मास्टर अच्छा पढ़ाते थे। उनका पढ़ाना और उनकी जाति को भूलना किसी के लिए संभव नहीं था।” यह वाक्य बताता है कि दलितों को ‘आरक्षण से आया है’ जैसे जुमलों से कैसे उनकी काबिलियत को लगातार चुनौती दी जाती है। लिंबाले की कहानियां केवल दलित पीड़ा का वर्णन नहीं करतीं, वे प्रतिरोध की ज़मीन तैयार करती हैं। उनकी रचनाएं सामाजिक सच्चाइयों को सामने लाने का साहस करती हैं। डॉ अंबेडकर की चेतना से प्रेरित ये कहानियां दलित अनुभवों को केवल साहित्यिक विषय नहीं, बल्कि सामाजिक आंदोलन का हिस्सा बनाती हैं। लिंबाले का साहित्य हमें यह सोचने को मजबूर करता है कि क्या लोकतंत्र, धर्म और शिक्षा सभी के लिए एक समान हैं?
अंबेडकर के विचार, जागरूकता और प्रतिरोध की भावना

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जब हिंदू धर्म में मौजूद जातिगत भेदभाव, जाति व्यवस्था और अन्य सामाजिक बुराइयों से तंग आकर बौद्ध धर्म अपनाया, तो यह सिर्फ व्यक्तिगत निर्णय नहीं था, बल्कि शोषणकारी धार्मिक सत्ता के खिलाफ एक ऐतिहासिक विद्रोह था। उनके साथ हज़ारों दलितों ने भी यह कदम उठाया। उन्होंने उस धर्म को त्यागा था जिसके नाम पर सदियों से उनका उत्पीड़न किया जाता रहा था। लिंबाले की कहानी ‘जोहार’ इसी विद्रोही तेवर की प्रतिनिधि कहानी है। यह कहानी इस संग्रह का केंद्रीय स्वर रचती है। इसमें एक पात्र कहता है- “अब पलटकर सवाल करने की ताक़त हममें आ चुकी थी। चुपचाप थूक झेलने के दिन अब लद चुके थे। हमें आज़ादी मिल गई थी। अधिकार मिल गए थे।” यह स्वर सिर्फ़ कहानियों में नहीं, आज के सामाजिक यथार्थ में भी गूंजता है।
लिंबाले की कहानी ‘जोहार’ इसी विद्रोही तेवर की प्रतिनिधि कहानी है। यह कहानी इस संग्रह का केंद्रीय स्वर रचती है। इसमें एक पात्र कहता है- “अब पलटकर सवाल करने की ताक़त हममें आ चुकी थी। चुपचाप थूक झेलने के दिन अब लद चुके थे। हमें आज़ादी मिल गई थी। अधिकार मिल गए थे।” यह स्वर सिर्फ़ कहानियों में नहीं, आज के सामाजिक यथार्थ में भी गूंजता है।
प्रेमचंद के गोदान में होरी की ट्रेजेडी यही थी कि वह ऋण चुकाते-चुकाते खुद अपने ही खेत में मजदूर बन गया था। भारत में कथित तौर पर असंख्य दलित परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी सवर्णों की ग़ुलामी में जकड़े हुए हैं, क्योंकि उनके किसी पूर्वज ने कभी साहूकार से ऋण लिया था, जिसे चुकाया नहीं जा सका। एक जगह यह पीड़ा इस तरह से व्यक्त की गई है “बाप द्वारा लिया हुआ साहूकार का ऋण। उस ऋण के बढ़े-चढ़े ब्याज का रूप हैं हम। यह ऋण जो कभी चुकाया नहीं जा सकता है। और यह ब्याज जो हमेशा बढ़ता ही जाता है।” शोषण कई बार इतनी गहराई और बारीकी से होता है कि शोषित व्यक्ति खुद को शोषित मानने से इनकार कर देता है। उसे लगता है कि अपने ‘मालिक’ के खिलाफ़ कुछ बोलना अपराध है। ‘मालिक का रिश्तेदार’ कहानी में एक लड़का, जो पीढ़ियों के ऋण को चुकाने के लिए होटल में बाल मजदूरी कर रहा है, अपने शोषण को पहचान ही नहीं पाता। जब यूनियन वाले उससे सवाल करते हैं, तो वह कह उठता है – “मैं मालिक का रिश्तेदार हूं।”
पूंजीपतियों और फासिस्ट ताकतों का विरोध
लेखक समकालीन साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों के स्वरूप को लेकर सजग हैं। आजकल जो बड़े साहित्यिक समारोह होते हैं, वे अक्सर पूंजीपतियों और फासिस्ट ताकतों के प्रायोजित होते हैं। वे कहते हैं कि ऐसे आयोजनों का विरोध होना चाहिए और प्रगतिशील लेखकों को इनसे दूरी बनानी चाहिए। ‘अपनी-अपनी सीमाएं’ कहानी में वे आर.एस.एस. के आयोजित कार्यक्रम में शामिल होने पर आपत्ति जताते हैं। वे चेतावनी देते हैं कि वे लोग तुम्हें हजम कर डालेंगे। तुम्हारा तीखापन ख़त्म हो जाएगा। इस तरह के आयोजनों की असलियत को उजागर करते हुए वे दलित लेखकों की भागीदारी पर सवाल उठाते हैं– “तुम दलित लेखक उनके घर जाकर रहने लगते हो और उनकी प्रगतिशीलता में चार चांद लग जाते हैं। समझ गए? वे इसी गांव में रहनेवाले दलित आदमी को मामूली भीख तक नहीं देंगे।”
अमूमन दलित साहित्य पर अश्लीलता का भी आरोप लगाया जाता है। उनकी भाषा और शैली को लेकर सवाल उठते हैं। आलोचक कहते हैं कि यह साहित्य गालियों से भरा है, द्वेषपूर्ण है और उसमें सौंदर्य का अभाव है। लिंबाले इस आलोचना का करारा जवाब अपनी कहानी ‘संबोधि’ में देते हैं।
दलित साहित्य पर अश्लीलता के आरोप का प्रतिरोध

अमूमन दलित साहित्य पर अश्लीलता का भी आरोप लगाया जाता है। उनकी भाषा और शैली को लेकर सवाल उठते हैं। आलोचक कहते हैं कि यह साहित्य गालियों से भरा है, द्वेषपूर्ण है और उसमें सौंदर्य का अभाव है। लिंबाले इस आलोचना का करारा जवाब अपनी कहानी ‘संबोधि’ में देते हैं। वे लिखते हैं– “दलित साहित्य को अश्लील कहकर नये विचारों को बेड़ियों में जकड़ने की कोशिश है यह। साहित्य में तो वासना का नंगा नाच चल रहा है। वह तुम्हें पसंद आता है। रुचि लेकर पढ़ते हो। साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि दलित साहित्य का विद्रोही स्वर तुम्हें पसन्द नहीं है।”
यह कहानी संग्रह दलित अनुभवों के भीतर जन्मे प्रतिरोध का दस्तावेज है। इसमें शोषण की तमाम परतों को उघाड़ा गया है। यह अस्मिता की लड़ाई है, आत्मसम्मान की पुकार है और अधिकारों के लिए लड़ी जाने वाली जिद का प्रतीक है। यह संग्रह उन दलितों की चेतना को स्वर देता है, जो अब खामोश नहीं हैं। यह केवल साहित्य नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की एक मज़बूत जमीन है। इन कहानियों को पढ़ना आज की सामाजिक संरचना को समझने और उसे चुनौती देने का एक ज़रिया है। यह एक बेहतर और न्यायपूर्ण समाज की कल्पना करने वालों का साहित्य है।