‘श्रृंखला की कड़ियां’ नामक पुस्तक महादेवी वर्मा की अनेक प्रभावशाली निबंधों का संकलन है। यह संग्रह महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने की प्रेरणादायक कोशिश है। यह पुस्तक साल 1942 में प्रकाशित हुई थी, और इसमें शामिल कई निबंध पहले ‘चाँद’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हो चुके थे। हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए महादेवी वर्मा का परिचय देना आवश्यक नहीं है, लेकिन जो पाठक उनके लेखन से अब तक परिचित नहीं हैं, उनके लिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि जब यूरोपीय देशों में नारीवादी विचारधाराओं का विकास हो रहा था, उसी दौर में भारत में भी कुछ साहित्यकारों के मन में ऐसे विचार पनप रहे थे। महादेवी उन महत्वपूर्ण लेखिकाओं में शामिल थीं, जिन्होंने महिलाओं के अधिकार, उसकी पीड़ा और उसकी स्वतंत्रता को अपने लेखन के माध्यम से बेहद सशक्त रूप में प्रस्तुत किया।
उन्होंने बिना किसी शोर-शराबे के, शांत लेकिन प्रभावशाली ढंग से समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव और स्त्री की दोयम स्थिति को चुनौती दी। उनका लेखन केवल संवेदना से भरा नहीं है, बल्कि उसमें संघर्ष का स्वर, चेतना की मशाल और बदलाव की आकांक्षा भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। ‘श्रृंखला की कड़ियां’ उनके इसी दृष्टिकोण और लेखकीय प्रतिबद्धता की सशक्त अभिव्यक्ति है, जो आज भी प्रासंगिक और प्रेरणास्पद है। श्रृंखला की कड़ियां उनकी लिखित एक महत्वपूर्ण किताब है, जिसमें उन्होंने महिला जीवन की उन परिस्थितियों का संवेदनशीलता और प्रखर दृष्टि से वर्णन किया है, जो आज भी हमारे समाज में प्रासंगिक बनी हुई हैं। इस पुस्तक की एक विशेष बात यह है कि इसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘लिंक्स इन द चेन’ के नाम से सोहानी नीरा कुकरेजा ने किया है।
उन्होंने बिना किसी शोर-शराबे के, शांत किंतु प्रभावशाली ढंग से समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव और स्त्री की दोयम स्थिति को चुनौती दी। महादेवी वर्मा का लेखन केवल संवेदना से परिपूर्ण नहीं है, बल्कि उसमें संघर्ष का स्वर, चेतना की मशाल और बदलाव की आकांक्षा भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
पुस्तक में कुल 11 निबंध शामिल हैं, जो विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत पहलुओं को उजागर करते हैं। इन निबंधों के अंशों को विशेष रूप से रेखांकित करना ज़रूरी है क्योंकि वे पाठकों को गहराई से जोड़ते हैं और पुस्तक की गहराई से मौजूद एकता को बनाए रखते हैं। हर निबंध अपने-अपने दृष्टिकोण से पाठकों को परिचित कराता है, जिससे उनके बीच का जुड़ाव अंत तक बना रहता है। महादेवी की भाषा शैली हालांकि थोड़ी कठिन प्रतीत हो सकती है, लेकिन उनकी भावनात्मक अभिव्यक्ति इतनी प्रभावशाली है कि पाठक स्वयं को उससे जुड़ा हुआ महसूस करने लगते हैं। वे अन्याय के प्रति असहनशील थीं, और यह भावना उनके लेखन में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उनके निबंधों में आक्रोश की गूंज स्वाभाविक रूप से सुनाई देती है, परंतु वे केवल क्रोध को ही समाधान नहीं मानतीं। वे मानती थीं कि क्रोध के साथ विवेक और संवेदना भी ज़रूरी हैं।
महिलाओं के अधिकार की बात

महादेवी का मानना था कि महिलाओं को केवल उनकी बाहरी पहचान या सामाजिक भूमिकाओं तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। उनके अनुसार, महिलाओं को मानसिक रूप से भी सशक्त होना आवश्यक है। जबतक महिलाएं घर की सीमाओं से बाहर निकलकर अपने लिए सोचेंगी नहीं, अपने फैसले खुद नहीं लेंगी, तबतक वे समाज में अपना वास्तविक स्थान नहीं प्राप्त कर पाएंगी। वह स्पष्ट रूप से कहती हैं कि अधिकार कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो मांगने या लड़कर हासिल की जाए, बल्कि यह कुछ ऐसा है जिसे हम अपनी योग्यता और आत्मबल से अर्जित करते हैं। हमें पहले खुद को मूल्यवान बनाना होगा, तभी अधिकार भी खुद ही प्राप्त होंगे।
अपनी कृति ‘श्रृंखला की कड़ियां’ के पहले अध्याय में वे समाज में महिलाओं की दो प्रकार की छवियों का उल्लेख करती हैं—या तो उन्हें देवी बनाकर पूजा जाता है, या फिर उन्हें ‘बुरी’ कहकर समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। इन दोनों ही स्थितियों में महिलाओं की वास्तविकता, उनकी ज़रूरतें और उनके मानवीय अधिकार दरकिनार हो जाते हैं। वह लिखती हैं कि समाज में वही व्यक्ति सम्मान का अधिकारी होता है, जिसमें सोचने, समझने और निर्णय लेने की क्षमता हो—और यह क्षमता महिलाओं में भी पुरुषों के समान ही होती है। वे यहां तक कहती हैं कि महिलाओं में पुरुषों की तुलना में अधिक संवेदनशीलता और बुद्धिमत्ता होती है। उनका मानना है कि समाज की अधूरी संरचना को पूर्ण करने के लिए पुरुष और महिला दोनों के व्यक्तित्व समान रूप से ज़रूरी हैं।
वे अन्याय के प्रति असहनशील थीं, और यह भावना उनके लेखन में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उनके निबंधों में आक्रोश की गूंज स्वाभाविक रूप से सुनाई देती है, परंतु वे केवल क्रोध को ही समाधान नहीं मानतीं। वे मानती थीं कि क्रोध के साथ विवेक और संवेदना भी ज़रूरी हैं।
दुर्भाग्यवश, हमारा पारंपरिक समाज महिलाओं के मानसिक विकास को रोकता रहा है। महिलाओं को उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व की बजाय पुरुषों की छाया बनने के लिए बाध्य किया गया। इतिहास में शायद ही कहीं यह देखने को मिले कि कोई पुरुष अपनी पत्नी की छाया बनकर रहा हो या उसके निर्देशों पर चला हो, लेकिन समाज हमेशा महिलाओं से यही अपेक्षा करता आया है। उनका स्त्री दृष्टिकोण आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उन्होंने महिलाओं को केवल सामाजिक बराबरी ही नहीं, मानसिक स्वतंत्रता का भी संदेश दिया—जो किसी भी सशक्तिकरण की पहली शर्त है।
महिलाओं की दासता और लेखिका का नजरिया

महादेवी वर्मा ने अपनी किताब ‘श्रृंखला’ की दूसरी कड़ी में महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर तीखा सवाल उठाया है। वे महिलाओं की अज्ञानता को ही उनकी गुलामी का कारण मानती हैं और इस पर नाराजगी भी जाहिर करती हैं। उनका मानना है कि जब तक व्यक्ति अपने अधिकारों को समझना नहीं सीखेगा, तब तक उसका विकास संभव नहीं है। महिलाओं की स्थिति पर कटाक्ष करते हुए वे लिखती हैं कि जिस तरह बच्चे के बिना खिलौनों की कोई अहमियत नहीं होती, वैसे ही पुरुष के बिना महिला को निरर्थक मानना समाज की बड़ी भूल है। वे परंपराओं के नाम पर थोपे गए रूढ़िवादी नियमों का विरोध करती हैं।
वह बताती हैं कि कैसे बचपन से ही बेटियों को घर की चारदीवारी में सीमित किया जाता है—खेलने के लिए गुड़िया और किचन सेट देकर, जबकि बेटों को बाहर जाने की आज़ादी होती है। यही फर्क आगे चलकर महिलाओं को घर तक सीमित कर देता है और समाज का आधा हिस्सा निष्क्रिय बना देता है। उनका मानना है कि महिलाएं अगर अपने अधिकारों को जानें और उनके लिए आवाज़ उठाएं, तो वे समाज में पुरुषों से भी आगे बढ़ सकती हैं। वे जागरूक महिलाओं से अपील करती हैं कि वे दूसरों को भी साथ लेकर चलें, ताकि महिलाएं बिना आदर वाली मां और बिना अधिकार वाली पत्नी की भूमिका से बाहर निकल सकें।
अपनी कृति श्रृंखला की कड़ियां के पहले अध्याय में वे समाज में महिलाओं की दो प्रकार की छवियों का उल्लेख करती हैं—या तो उन्हें देवी बनाकर पूजा जाता है, या फिर उन्हें ‘बुरी’ कहकर समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। इन दोनों ही स्थितियों में महिलाओं की वास्तविकता, उनकी ज़रूरतें और उनके मानवीय अधिकार दरकिनार हो जाते हैं।
आखिर महिलाओं को क्यों रोका जाता है
महादेवी वर्मा ने अपने लेखों ‘युद्ध और नारी’, ‘नारीत्व का अभिशाप’ और ‘आधुनिक नारी’ में महिलाओं की भूमिका और उनकी स्थिति पर गहरी चिंता जताई है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि महिलाओं को अपनी सहज बुद्धि, करुणा और ममता के कारण युद्ध से दूर माना जाता है, जबकि पुरुषों को हिंसक प्रवृत्तियों का प्रतीक बताया गया है। वह मानती हैं कि परिवार की नींव महिलाओं की समझदारी और सृजनात्मकता पर टिकी है, लेकिन वही महिलाएं समाज में अपने अस्तित्व और अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष करती हैं। उनके अनुसार, महिलाएं समाज और घर दोनों ही स्थानों से जुड़ी हैं, लेकिन फिर भी उन्हें सम्मानजनक स्थान नहीं मिलता।
यह स्थिति समाज की संरचना में गहरी जड़ें जमा चुकी है, और महिलाओं को उनका हक पाने के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ता है। ‘आधुनिक नारी’ में वह लिखती हैं, कि ‘गतिवान को पंगु बनाकर रखना सबसे बड़ी क्रूरता है।’ इस कथन के माध्यम से उन्होंने यह व्यक्त किया कि किसी भी सक्षम और गतिशील महिला को जानबूझकर रुकने के लिए मजबूर करना, अमानवीय है। महादेवी महिलाओं से यह आह्वान करती हैं कि वे अपनी शक्ति को पहचानें और समाज में अपनी सार्थक भूमिका निभाने के लिए अपनी सीमाओं को तोड़ें।
वह मानती हैं कि परिवार की नींव महिलाओं की समझदारी और सृजनात्मकता पर टिकी है, लेकिन वही महिलाएं समाज में अपने अस्तित्व और अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष करती हैं। उनके अनुसार, महिलाएं समाज और घर दोनों ही स्थानों से जुड़ी हैं, लेकिन फिर भी उन्हें सम्मानजनक स्थान नहीं मिलता।
महिलाओं और पुरुषों के बीच वैचारिक भेद
महादेवी वर्मा ने ‘घर और बाहर’ में यह व्यक्त किया है कि अधिकतर पुरुष पढ़ी-लिखी महिलाओं से विवाह करने से डरते हैं, जबकि अशिक्षित महिलाएं ज्यादा पढ़े-लिखे पुरुषों से विवाह करने से नहीं डरतीं। इसका कारण पुरुषों का यह भय है कि शिक्षित महिलाएं अब उनकी आज्ञा का पालन नहीं करेंगी, जो समाज में पुरुष प्रधान मानसिकता को चुनौती देता है। वर्मा के अनुसार, यह भय समाज की चिंता है, क्योंकि पुरुषों को डर है कि यदि महिलाएं अपने हक की मांग करती हैं, तो उनका प्रभुत्व खत्म हो जाएगा। उनका यह मानना है कि शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता से महिलाओं को मानसिक और सामाजिक गुलामी से मुक्ति मिलती है, जिससे वे समाज के उपयोगी हिस्से बन सकती हैं।
वह यह भी कहती हैं कि महिलाएं और पुरुषों के बीच के भेद को मिटाने के लिए महिलाओं को अपनी असली पहचान या स्वभाव बदलने की आवश्यकता नहीं है। समाज में महिलाओं को बिना किसी लैंगिक भेदभाव के अपने नारीत्व के साथ समान स्थान मिलना चाहिए। उन्होंने इस पुस्तक के माध्यम से उन महिलाओं को जागरूक करने की कोशिश की है, जो अपने अधिकारों के प्रति सचेत नहीं हैं। इस रचना में उन्होंने महिलाओं की कठिन परिस्थितियों, उनके अधिकारों और उनके संघर्षों को बारीकी से विश्लेषित किया है।