हिंदी सिनेमा में 80 का दशक सामाजिक और व्यक्तिगत संघर्षों को नए ढंग से दिखाने का समय था। इसी दौर में साल 1982 में महेश भट्ट की फिल्म ‘अर्थ’ आई, जिसने रिश्तों और स्त्री-जीवन को एक नई दृष्टि से परदे पर रखा। यह फिल्म सिर्फ एक विवाह या त्रिकोणीय प्रेम की कहानी नहीं है, बल्कि इसमें एक महिला के दर्द, अकेलेपन, संघर्ष और आत्मसम्मान को बेहद संवेदनशील तरीके से दिखाया गया है। फिल्म यह संदेश देती है कि जब एक महिला का पति उसके साथ नहीं रहता है, तो हो सकता है वो भावनात्मक तौर पर आहत हो, टूट भी जाए लेकिन बिखरती नहीं। वह अपने भीतर की ताक़त को पहचानती है और नए रास्ते तलाशने का साहस जुटाती है।
क्या है फिल्म की कहानी
फिल्म की शुरुआत बहुत शांत और साधारण ढंग से होती है। पूजा (शबाना आज़मी) एक साधारण और समझदार महिला है, जो अपने पति इंद्रजीत (कुलभूषण खरबंदा) से बहुत प्यार करती है। इंद्रजीत एक सफल फिल्म निर्देशक है। पूजा एक ऐसी महिला है जो अपने जीवन को साधारण, संतुलित और स्नेह से भरे परिवार के रूप में देखना चाहती है। अपना घर, बच्चे और एक स्थिर जीवन। लेकिन उसका पति इंद्रजीत, जो पेशे से फ़िल्म निर्देशक है ,स्वभाव से चंचल और उलझन में रहने वाला व्यक्ति है। वह अक्सर अपने काम को लेकर लोगों से उलझ जाता है, जिसके चलते उन्हें बार-बार अपना अपार्टमेंट छोड़ना पड़ता है। पूजा इन स्थितियों से मानसिक रूप से थक चुकी होती है, लेकिन इंद्रजीत को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
फिल्म की शुरुआत बहुत शांत और साधारण ढंग से होती है। पूजा (शबाना आज़मी) एक साधारण और समझदार महिला है, जो अपने पति इंद्रजीत (कुलभूषण खरबंदा) से बहुत प्यार करती है। इंद्रजीत एक सफल फिल्म निर्देशक है। पूजा एक ऐसी महिला है जो अपने जीवन को साधारण, संतुलित और स्नेह से भरे परिवार के रूप में देखना चाहती है।
कुशल गृहिणी के सपने से इंडिपेंडेंट महिला तक
पूजा हमेशा एक कुशल गृहिणी की तरह जीवन बिताना चाहती थी। जब इंद्रजीत ने उसे एक घर दिलाया और कहा कि वह फ़िल्म की शूटिंग के सिलसिले में बाहर रहेगा, लेकिन उससे मिलने आता रहेगा, तब पूजा को लगा कि शायद अब चीज़ें ठीक हो जाएंगी। शुरुआत में उसके मन में उम्मीद भी बनी रही, लेकिन जल्द ही इंद्रजीत का घर आना बंद हो गया। फिर एक दिन उसने साफ़ शब्दों में कह दिया कि वह जो चाहे उसे दिला देगा, पर उसके साथ उस घर में नहीं रह सकता। यह सुनकर पूजा अंदर तक टूट गई। हमने समाज में अक्सर ऐसी महिलाओं की कहानियां सुनी हैं जो अपने पति की कितनी भी गलतियां क्यों न हों, फिर भी उन्हें माफ़ कर देती हैं। वे अपने पति का इंतज़ार करती है, चाहे वह लौटे या नहीं। उनके लिए पति से अलग होना, ऐसा होता है जैसे वे अपने आत्मसम्मान या अपनी पहचान से समझौता कर रही हों। ऐसे में वे अपना दर्द छुपाकर रिश्ते को निभाती रहती हैं। समाज ने उन्हें यही सिखाया है कि एक ‘अच्छी’ और ‘सच्ची’ पत्नी वही होती है, जो अपने पति के हर व्यवहार को चुपचाप सहन करे। पूजा के आस-पास भी ऐसे ही उदाहरण मौजूद हैं।
वहीं दूसरी ओर पूजा की घरेलू कामगार लक्ष्मी का पति शराबी है और दूसरी औरतों के संबंध रखता है। यह बात लक्ष्मी को पता है कि उसके पति का संबध दूसरी औरतों के साथ है। लेकिन फिर भी वो साथ रहते हैं। लक्ष्मी दूसरे घरों में घरेलू कामगार के तौर पर काम करती है। इससे उनके घर का खर्चा चलता है। लेकिन, उसका पति उसके साथ हमेशा शारीरिक हिंसा करता है। हिंसा और अपमान सहने के बाद भी लक्ष्मी यही कहती है कि ‘वह मेरा पति है, मैं उसे छोड़ नहीं सकती।’ यह उस दौर की सच्चाई को सामने लाता है, जब औरतें शादी को ही अपनी पहचान मानती थीं। पति चाहे जैसा भी हो, उससे अलग होना उन्हें समाज और परिवार दोनों की नज़र में गलत ठहराता था। इस एक वाक्य से पता चलता है कि किस तरह औरतें रिश्ते बचाने के लिए खुद को तकलीफ़ देती रहीं, क्योंकि उन्हें लगता था कि पति के बिना उनका अस्तित्व अधूरा है। यह बात सुनकर पूजा चौंक जाती है। वह सोचती है कि पैसे कमाना ही सब कुछ नहीं होता है। महिला का आत्मसम्मान भी बहुत जरूरी है।
पूजा की घरेलू कामगार लक्ष्मी का पति शराबी है और दूसरी औरतों के संबंध रखता है। यह बात लक्ष्मी को पता है कि उसके पति का संबध दूसरी औरतों के साथ है। लेकिन फिर भी वो साथ रहते हैं।
भावनात्मक हिंसा से आत्मसम्मान की ओर
पूजा को जब पता चलता है कि उसके पति इंद्रजीत का रिश्ता किसी कविता नामक महिला (स्मिता पाटिल) से है, तो उसकी दुनिया एक झटके में बदल जाती है। धीरे-धीरे पूजा को यह एहसास होने लगता है कि इंद्रजीत अब कभी लौटकर नहीं आएगा। शुरुआत में वह इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाती। लेकिन जब समय बीतता है और इंद्रजीत की दूरी बढ़ती जाती है, तो पूजा भीतर से टूटने के बजाय खुद को संभालने लगती है। वह स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू कर देती है ताकि अपनी जरूरतें खुद पूरी कर सके। एक-एक कदम के साथ वह आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ती है। अब पूजा किसी सहारे की तलाश नहीं करती। वह हर उस मदद या प्रस्ताव को ठुकरा देती है जो किसी पुरुष की दया या नियंत्रण से जुड़ा हो।
वह पूरे आत्मविश्वास से कहती है—”अब मुझे किसी मर्द की ज़रूरत नहीं है।” उसके लिए अब सबसे जरूरी चीज़ है, आत्मसम्मान और अपनी पहचान। इस बीच उसकी घरेलू कामगार लक्ष्मी की ज़िंदगी में एक बड़ा हादसा हो जाता है। सालों तक मारपीट और अपमान झेलते-झेलते आखिरकार वह बिंदु भी आ जाता है जब सहना संभव नहीं रह जाता। एक दिन लक्ष्मी अपने शराबी और हिंसा कर रहे पति की हत्या कर देती है। यह घटना साफ़ दिखाती है कि किसी भी स्त्री की सहनशीलता की एक सीमा होती है। जब अत्याचार हद से आगे बढ़ जाए, तो वही स्त्री जो अब तक चुपचाप सब सह रही थी, विद्रोह करने पर मजबूर हो जाती है।
कहानी का अंतिम मोड़ तब आता है जब इंद्रजीत अचानक वापस लौटता है और पूजा से रिश्ते को फिर से जोड़ने की गुज़ारिश करता है। लेकिन पूजा अब पहले जैसी नहीं रही। वह शांत और आत्मविश्वासी होकर इंद्रजीत से ऐसा सवाल करती है, जिससे साफ़ हो जाता है कि उनका रिश्ता बराबरी पर कभी खड़ा ही नहीं था।
इस घटना से पूजा भीतर तक हिल जाती है। वह जानती है कि लक्ष्मी की छोटी-सी बेटी अब बेसहारा हो चुकी है। ऐसे हालात में पूजा उसे गोद लेने का फैसला करती है, ताकि वह उसे एक सुरक्षित बचपन और बेहतर भविष्य दे सके। यह पूजा के व्यक्तित्व में एक बड़ा बदलावा आता है कि एक ऐसी औरत जो अब न केवल खुद के लिए खड़ी है, बल्कि दूसरों की भी ज़िंदगी संवारने की ताकत रखती है। कहानी का अंतिम मोड़ तब आता है जब इंद्रजीत अचानक वापस लौटता है और पूजा से रिश्ते को फिर से जोड़ने की गुज़ारिश करता है। लेकिन पूजा अब पहले जैसी नहीं रही। वह शांत और आत्मविश्वासी होकर इंद्रजीत से ऐसा सवाल करती है, जिससे साफ़ हो जाता है कि उनका रिश्ता बराबरी पर कभी खड़ा ही नहीं था। यह पल दिखाता है कि एक औरत कितनी भी टूटे, अगर वह अपने आत्मसम्मान को पहचान ले, तो किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं होती। यह इस दृश्य का असली बात लोगों को सीखा जाती है।
अर्थ 1980 के दशक की वह फिल्म है, जब समाज में महिलाओं के अधिकार और आज़ादी को लेकर ज़्यादा जागरूकता नहीं थी। उस दौर में अगर कोई औरत अपने पति से अलग हो जाती थी, तो उसे दोषी मान लिया जाता था। लोग सोचते थे कि पति के बिना औरत अधूरी है, और शादी टूटना किसी गुनाह से कम नहीं। औरतों को तरह-तरह के इलज़ाम का सामना करना पड़ता था। कहा जाता था कि पति को खुश नहीं रख पाई होगी, या इसमें ही कोई कमी रही होगी। भले ही गलती पुरुष की क्यों न हो, या रिश्ते में बरबरी न हो, लेकिन कटघरे में हमेशा औरत ही खड़ी होती थी। ऐसे समाज और ऐसे माहौल में अर्थ जैसी फिल्म का आना बहुत अहम था। इसने उन महिलाओं को हिम्मत दी, जिनके पति ने किसी कारण से उनका साथ छोड़ दिया। पूजा का किरदार उनके लिए एक उम्मीद बना। कई महिलाओं ने उससे प्रेरणा लेकर काम करना शुरू किया, अपने पैरों पर खड़ी हुईं और समाज में इज़्ज़त के साथ जीने लगीं। फिल्म का सबसे बड़ा संदेश यही है कि एक औरत को जीने के लिए किसी मर्द के सहारे की ज़रूरत नहीं। अगर वह ठान ले, तो अकेले भी अपनी पहचान बना सकती है और नई ज़िंदगी की शुरुआत कर सकती है।

