संस्कृतिसिनेमा ‘फुले’: जाति और जेंडर आधारित अन्याय के ख़िलाफ़ एक ज़रूरी सिनेमाई दस्तावेज़

‘फुले’: जाति और जेंडर आधारित अन्याय के ख़िलाफ़ एक ज़रूरी सिनेमाई दस्तावेज़

फिल्म में यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि फुले ने सामाजिक बदलाव का इतना बड़ा बीड़ा क्यों उठाया। उनके निजी अनुभव, जो उनके विचारों और संघर्षों की नींव बने, नैरेटिव से लगभग गायब हैं।

बॉलीवुड में दलित समुदाय की कहानियां कम ही कही गई और उनमें भी दलित उत्थान की कहानियां न के बराबर हैं। अगर हैं भी तो ये कहानियां ‘उच्च जाति सेवियर’ ट्रोप के इर्द-गिर्द बुनी हुई हैं। ऐसे में समाज में दलित चेतना जगाने वाले, समानता और सामाजिक न्याय की अलख जगाने वाले व्यक्तित्व फुले दंपत्ति की यह कहानी बेहद ज़रूरी जान पड़ती है। यह कहानी न केवल सिनेमा में दलित किरदारों के सालों से चले आ रहे प्रचलित चित्रण के खांचों को तोड़ता है, बल्कि इसके चित्रण की नई संभावनाओं को जगह देता है। काफ़ी विवादों के बीच रिलीज़ हुई यह फ़िल्म कब पर्दे पर आई और कब चली भी गई, इसका पता भी दर्शकों को नहीं चल पाया। ऐसा लग रहा है मानो इस फ़िल्म को दरकिनार करने की भरपूर कोशिश हो रही है। समझ लीजिए कि जितना संघर्ष अपने पूरे जीवन में फुले दंपत्ति ने इस फ़िल्म का विषयवस्तु बनने के लिए किया, उससे कहीं ज़्यादा संघर्ष ये फ़िल्म पर्दे पर चलने के लिए कर रही है।

अनंत नारायण महादेवन की निर्देशित इस हिस्टॉरिकल ड्रामा की कहानी समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले और भारत की पहली शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है। फ़िल्म उनके जीवन में घटने वाली  महत्वपूर्ण घटनाओं और समाज में उनके किए अद्वितीय योगदान को अपनी विषयवस्तु बनाती है। फ़िल्म की कहानी सदियों पुरानी जातिवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने, उसके प्रति भारतीय समाज की अंधी श्रद्धा वाली मानसिकता को चुनौती देने और दलितों और महिलाओं को शिक्षा रूपी औज़ार थमाकर आत्मसम्मान और गरिमामय जीवन जीने के लिए प्रेरित करने के किए गए उनके तमाम प्रयासों को खुलकर, बिना किसी झिझक के दिखाती है। इन क्रांतिकारी समाज सुधारकों पर फ़िल्म बनी, यह अपनेआप में एक बड़ी बात है। लेकिन, फ़िल्म में कई और अच्छी चीज़ें हुई हैं। फ़िल्म का इंटरसेक्शनल एप्रोच इसे ख़ास बनाता है जिसमें न सिर्फ़ दलितों के अधिकारों और हितों की बात होती है, बल्कि किरदार महिलाओं के हक़ की बात भी मुखर होकर करते हैं।

“शिक्षित मां ही अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकती है।” यह कथन स्त्री शिक्षा को मातृत्व और पारिवारिक दायित्व तक सीमित कर देता है। यह दृष्टिकोण नारीवादी सोच के बिल्कुल विपरीत है। फुले जैसा विचारक अपनी पत्नी को केवल इसीलिए पढ़ाना चाहेंगे, यह कल्पना भी मुश्किल है।

कैसी रही कहानी

फिल्म में जाति, लिंग और धर्म आधारित भेदभाव को प्रभावी ढंग से दर्शाया गया है। बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह जैसे सामाजिक मुद्दों को भी जगह दी गई है। ब्राह्मणवादी पाखंड को बेनकाब करते हुए दिखाया गया है कि कैसे दलितों को अपवित्र मानते हुए भी उनसे काम करवाया जाता है। बच्चों की बड़ी संख्या में मौजूदगी स्क्रीन पर ताजगी देती है। शरद केलकर की आवाज़ में नरेशन फिल्म को एक मजबूत फ्रेम देता है। हालांकि लेखन में कुछ कमजोरियां हैं, फिर भी संवाद काफी प्रभावशाली हैं। मौज़्ज़म बेग़ के संवाद समकालीन सच्चाइयों से जुड़ते हैं, जैसे—”खाना बनाना, घर संभालना इतना आसान नहीं है…”। कई दृश्यों में लंबे संवादों की कमी खलती है, जिससे किरदारों की गहराई अधूरी रह जाती है। शायद यही वजह है कि प्रतीक गांधी और पत्रलेखा अपने प्रयासों के बावजूद वो प्रभाव नहीं छोड़ते जो ‘फुले’ जैसी ऐतिहासिक शख्सियतों से अपेक्षित है। फिल्म की सॉफ्ट टोन भी कहीं-कहीं असर को हल्का कर देती है।

तस्वीर साभार: The Indian Express

फिल्म में कुछ संवाद असहज भी करते हैं। उदाहरण के लिए—“शिक्षित मां ही अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकती है।” यह कथन स्त्री शिक्षा को मातृत्व और पारिवारिक दायित्व तक सीमित कर देता है। यह दृष्टिकोण नारीवादी सोच के बिल्कुल विपरीत है। फुले जैसा विचारक अपनी पत्नी को केवल इसीलिए पढ़ाना चाहेंगे, यह कल्पना भी मुश्किल है। पूरी फिल्म में यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि स्त्री शिक्षा को लेकर फुले का दृष्टिकोण क्या था। करीब दो घंटे की सीमित अवधि में कई अहम पहलुओं को बस छूकर निकल जाया गया है। जैसे, दलितों को झाड़ू और मटका बांधकर चलने की अमानवीय प्रथा या फिर फुले के अपने जातिगत अनुभवों का बस हल्का सा उल्लेख—इन विषयों को गहराई से नहीं दिखाया गया। इस तरह की सतही प्रस्तुति दर्शकों को फुले के संघर्षों से पूरी तरह जोड़ नहीं पाती। कई सवाल उठते हैं—जिनका जवाब फिल्म में नहीं मिलता। यही चीज़ फिल्म के नैरेटिव को थोड़ा कमजोर कर देती है।

फिल्म में उनका व्यक्तित्व उस दौर के हिसाब से नहीं, बल्कि आज के नज़रिये से गढ़ा गया है। लिखावट और स्टोरीटेलिंग भी उसी हिसाब से की गई है। ये सब और ज़्यादा गहराई से, संतुलन के साथ दिखाया जा सकता था।

फुले दम्पत्ति और कहानी में जुड़ाव की कमी  

फिल्म में यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि फुले ने सामाजिक बदलाव का इतना बड़ा बीड़ा क्यों उठाया। उनके निजी अनुभव, जो उनके विचारों और संघर्षों की नींव बने, नैरेटिव से लगभग गायब हैं। केवल थॉमस पाइन की किताब ‘द राइट्स ऑफ़ अ मैन’ का बार-बार ज़िक्र होता है, लेकिन इससे फुले के विचारों की जड़ें या उनके भीतर का आक्रोश दर्शकों तक नहीं पहुंच पाता। नतीजतन, कहानी सतही लगती है और वह जुनून महसूस नहीं होता जो हम उनके बारे में पढ़ते समय महसूस करते हैं।

फिल्म में यह भी नहीं बताया गया कि क्यों कुछ उच्च जाति के लोग उस दौर में फुले का साथ दे रहे थे—जबकि यह आम बात नहीं थी। सावित्रीबाई के पास भी संघर्ष में शामिल होने का कोई स्पष्ट कारण नजर नहीं आता; ऐसा लगता है मानो वे सिर्फ ज्योतिबा के कहने पर आगे बढ़ीं। वहीं, ब्राह्मण समाज या ऊंची जातियों के विरोध को भी बहुत हल्के ढंग से दिखाया गया है। विरोध करने वाले पात्र प्रभाव नहीं छोड़ते—न कोई सस्पेंस है, न गहराई। अच्छे कलाकार होने के बावजूद ये किरदार केवल मज़ाक का रूप ले लेते हैं।

फिल्म में अंग्रेजी का प्रभाव

फिल्म में अंग्रेज़ी भाषा को कुछ ज़्यादा ही महत्व दिया गया है। बाकी समाज सुधारकों की तरह ही, ज्योतिबा फुले पर भी यह आरोप लगता रहा है कि वे ब्रिटिश हुकूमत के समर्थक थे। फिल्म में इस पहलू का ज़िक्र तो किया गया है, लेकिन उसे बस सतही तौर पर दिखाकर नजरअंदाज कर दिया गया। जबकि इस मुद्दे को थोड़ा गहराई से दिखाकर कहानी में सस्पेंस और जटिलता लाई जा सकती थी। मेकर्स ने शायद सब कुछ जस का तस दिखाने की कोशिश की, लेकिन इस कोशिश में कहानी से रचनात्मकता लगभग गायब हो गई। फुले दंपत्ति को एकदम सकारात्मक और आदर्श रूप में पेश किया गया है—जैसे उनमें कोई खामी थी ही नहीं। फिल्म में उनका व्यक्तित्व उस दौर के हिसाब से नहीं, बल्कि आज के नज़रिये से गढ़ा गया है। लिखावट और स्टोरीटेलिंग भी उसी हिसाब से की गई है। ये सब और ज़्यादा गहराई से, संतुलन के साथ दिखाया जा सकता था।

फिल्म में यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि फुले ने सामाजिक बदलाव का इतना बड़ा बीड़ा क्यों उठाया। उनके निजी अनुभव, जो उनके विचारों और संघर्षों की नींव बने, नैरेटिव से लगभग गायब हैं। केवल थॉमस पाइन की किताब ‘द राइट्स ऑफ़ अ मैन’ का बार-बार ज़िक्र होता है, लेकिन इससे फुले के विचारों की जड़ें या उनके भीतर का आक्रोश दर्शकों तक नहीं पहुंच पाता।

कहानी का कमज़ोर पक्ष

तस्वीर साभार: MSN

कई बार ऐसा लगता है कि फिल्म के मेकर्स यह मानकर चलते हैं कि दर्शकों को सारी बातें पहले से पता हैं, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं होता। मसलन, हम अक्सर पढ़ते-सुनते आए हैं कि सावित्रीबाई फुले रोज़ स्कूल जाते वक्त दो साड़ियां साथ लेकर जाती थीं, ताकि अगर कोई रास्ते में उन पर गोबर या कीचड़ फेंके, तो वे कपड़े बदलकर पढ़ा सकें। फिल्म में गोबर फेंकने का एक दृश्य ज़रूर है, लेकिन उस संघर्ष की यह अहम झलक विस्तार से नहीं दिखाई गई। ऐसे कई मौके हैं जब लगता है कि फिल्म कुछ महत्वपूर्ण विवरणों को छोड़ देती है। एक दर्शक के तौर पर आप वो सब देखना चाहते हैं जो आपने वर्षों से पढ़ा-सुना है। जब ऐसा नहीं होता, तो थोड़ी निराशा ज़रूर होती है। पूरी फिल्म में घटनाएं इस तरह एक के बाद एक आती हैं कि किसी एक पल को समझने या महसूस करने का समय नहीं मिलता। यह फिल्म कई बार महज़ घटनाओं की सूची जैसी लगने लगती है। ज़रूरी सामाजिक बदलावों को कई बार अख़बारों की हेडलाइंस के ज़रिए दिखाया गया है—जो अधिकतर ब्रिटिश शासन से जुड़ी नीतियों पर केंद्रित हैं। लेकिन, फुले दंपति के समकालीन अन्य सामाजिक सुधारकों या सहयोगियों का ज़िक्र लगभग नहीं के बराबर है।

फिल्म में कलाकारों का अभिनय

फिल्म में लगभग सभी कलाकारों ने प्रभावशाली अभिनय किया है। प्रतीक गांधी ने ज्योतिबा फुले की भूमिका में गहराई से काम किया है। सावित्रीबाई के किरदार में पत्रलेखा सशक्त नजर आती हैं। विनय पाठक ने गोविंदराव फुले के रूप में सीमित समय में भी एक पिता और समाज के दबावों के बीच फंसे व्यक्ति का गहराई से चित्रण किया है। उनका अभिनय इतना प्रभावी है कि दर्शक उनके कॉमिक किरदारों को भूल जाएंगे। फ़ातिमा शेख़ के रोल में अक्षया ने अच्छा काम किया है, हालांकि इस किरदार को और विस्तार मिल सकता था। यह किरदार उन महिलाओं में से एक है जिन्होंने पितृसत्ता और सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई थी—उनकी कहानियां कभी साधारण नहीं हो सकतीं। जयेश मोरे (उस्मान शेख़), दर्शील सफारी (यशवंत), जॉय सेनगुप्ता और अमित बहल जैसे कलाकार भी अपने-अपने रोल में फिट बैठे हैं। स्क्रीन पर आए बच्चों का अभिनय भी सहज और प्रभावशाली है।

फिल्म ने फुले युग और उस दौर के महाराष्ट्र को बखूबी जीवंत किया है। फिल्म में दो से तीन गाने हैं। ‘साथी’ गाना, जिसे मोनाली ठाकुर ने गाया है, बेहद मधुर है। बीच-बीच में कुछ गवैये फुले के विचारों को गीतों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं, जो फिल्म के प्रचारक तत्व को मजबूती देते हैं।

कॉस्ट्यूम, सेट डिज़ाइन और संगीत

कॉस्ट्यूम और मेकअप ने किरदारों में जान डाल दी है। सभी अभिनेता अपने लुक में पूरी तरह फिट नजर आते हैं। इस बेहतरीन काम के लिए कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर अपर्णा शाह की तारीफ ज़रूरी है। फिल्म ने फुले युग और उस दौर के महाराष्ट्र को बखूबी जीवंत किया है। फिल्म में दो से तीन गाने हैं। ‘साथी’ गाना, जिसे मोनाली ठाकुर ने गाया है, बेहद मधुर है। बीच-बीच में कुछ गवैये फुले के विचारों को गीतों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं, जो फिल्म के प्रचारक तत्व को मजबूती देते हैं। हालांकि फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। अगर इस पर और मेहनत की जाती, तो यह फिल्म की कुछ कमजोरियों को दूर किया जा सकता था। ‘फुले’ फिल्म एक ऐसे दौर की याद दिलाती है, जब जातिवाद, लैंगिक भेदभाव और सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ़ खड़े होना किसी क्रांति से कम नहीं था।

यह फिल्म एक जरूरी प्रयास है, जो दर्शकों को फुले दंपति के साहसिक कार्यों और सामाजिक बदलाव के संघर्ष से परिचित कराती है। हालांकि, इसकी प्रस्तुति में कई कमियां हैं—जैसे गहराई की कमी, सतही पटकथा और ऐतिहासिक विवरणों का अधूरा चित्रण। इसके बावजूद, यह फिल्म एक शुरुआत है—ऐसी कहानियों के लिए जो दलितों, महिलाओं और वंचित तबकों की वास्तविकता को मुख्यधारा के सिनेमा में जगह देती हैं। यह ज़रूरी है कि आने वाले समय में इन ऐतिहासिक पात्रों की कहानियां और भी अधिक शोध, संवेदना और कला की दृष्टि से कही जाएं। फुले दंपति की तरह ही इस फिल्म का भी सफर संघर्षों से भरा रहा, लेकिन यह प्रयास खुद में क्रांतिकारी है—और शायद यही इसकी सबसे बड़ी जीत है।

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