संस्कृतिसिनेमा पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पड़ताल करती फिल्म ‘कोर्ट: स्टेट वर्सेस अ नोबडी’

पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पड़ताल करती फिल्म ‘कोर्ट: स्टेट वर्सेस अ नोबडी’

फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे एक मां, जो खुद इन पुराने और गलत नियमों में फंसी है, अपनी बेटी की भी पूरी तरह मदद नहीं कर पाती। फिल्म इस पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहे दुख को अच्छे तरीके से सामने लाती है और इसी के लिए तारीफ की हकदार है।

जब हम न्याय की बात करते हैं, तो हमें सबसे पहले न्यायालय की मुश्किलों का डर सताने लगता है। एक आम इंसान शायद पुलिस, अदालत और कानून की उलझनों से डरता है। इसका कारण यह है कि कानून की भाषा और उसके नियम आम लोगों को समझ में नहीं आते। जो लोग इन बातों को समझते हैं, वे अक्सर इसका इस्तेमाल हाशिये के समुदायों को दबाने के लिए करते हैं। निर्देशक राम जगदीश की फिल्म ‘कोर्ट: स्टेट वर्सेस अ नोबडी’ इस बात को बहुत अच्छी तरह से दिखाने की कोशिश करती है। यह तेलुगु भाषा की एक अदालत की कहानी है, जो सच्ची घटनाओं पर आधारित है।

यह फिल्म दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है कि कानून की पढ़ाई किसके लिए है और किसके खिलाफ़ इस्तेमाल होती है। मार्च 2025 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म में साफ़ तौर पर दिखाया गया है कि कानून के ज़रिए न्याय पाना जितना ज़रूरी है, उतना ही मुश्किल भी है। ख़ासकर तब जब पितृसत्तात्मक ताक़तें और उच्च सामाजिक वर्ग के लोग अपने संसाधनों का इस्तेमाल करके संस्थाओं को अपने पक्ष में झुका लेते हैं जो दरअसल महिलाओं और हाशिए पर खड़े लोगों की सुरक्षा के लिए बनी होती हैं।

फ़िल्म की शुरुआत कोर्ट के सीन से होती है, जहां एक 19 वर्षीय लड़के को पॉक्सो ऐक्ट के साथ ही तमाम गंभीर धाराएं लगाकर कोर्ट में पेश किया जाता है। कहानी चंद्रशेखर उर्फ़ चंदू (हर्ष रोशन) और 17 वर्षीय जाबिली (श्रीदेवी) के प्रेम संबंध के इर्द-गिर्द घूमती है।

जब कानून का किया जाता है गलत इस्तेमाल

फ़िल्म की शुरुआत कोर्ट के सीन से होती है, जहां एक 19 वर्षीय लड़के को पॉक्सो ऐक्ट के साथ ही तमाम गंभीर धाराएं लगाकर कोर्ट में पेश किया जाता है। कहानी चंद्रशेखर उर्फ़ चंदू (हर्ष रोशन) और 17 वर्षीय जाबिली (श्रीदेवी) के प्रेम संबंध के इर्द-गिर्द घूमती है। चंदू एक मेहनतकश तबके से आता है जबकि जाबिली तथाकथित उच्च सामाजिक वर्ग से है। इस लव स्टोरी का विलेन जाबिली के चाचा- मंगापती (शिवाजी) हैं जिसे इस रिश्ते के बारे में पता चलते ही, वो अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कर चंदू पर पॉक्सो और संबंधित गंभीर आरोपों को औज़ार के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

तस्वीर साभार: The Hindu

यह कहानी साल 2013 की है। इसलिए याद रहे कि पॉक्सो एक्ट 2012 में आया था। इस हिसाब से 2013 तक भी ये काफ़ी नया था, जिसके अंतर्गत आने वाले मामलों में ख़ासी सख़्ती बरती जाती। चंदू और जाबिली के प्रेम प्रसंग को रोकने, समाज में अपनी इज़्ज़त बरक़रार रखने और चंदू और उसके परिवार को सबक सीखाने की मंशा से वो ऐसा करता है। मंगापती की यह पितृसत्तात्मक रणनीति न केवल उनके आपसी सहमति से बने रिश्ते को पॉक्सो के ज़रिए आपराधिक करार देती है बल्कि एक लड़की की आजादी पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण को भी मज़बूती देती है। 

यह मामला महज दो प्रेमी युवाओं के खिलाफ़ नहीं है, बल्कि यह उस पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ़ भी है, जो लड़कियों की मर्जी और पसंद को कुचलने के लिए कानून को हथियार बना लेती है। कैसे एक सुरक्षात्मक कानून भी, जो बच्चों की सुरक्षा के लिए बने हैं, ताकतवर लोगों के हाथों शोषण का औज़ार बन सकते हैं, फ़िल्म इसको बख़ूबी दिखाती है। व्यवस्थाएं सड़-गल और खोखली हो चुकी हैं कि जिन्हें हाशिए के समुदायों के साथ न्याय करना चाहिए, वे भी उस तरफ़ हैं जिनका पलड़ा पहले से भारी है। ऐसे में जूनियर वकील सूर्या तेजा (प्रियदर्शी पुलिकोंडा) इस अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होते हैं। निर्देशक जगदीश ने सावधानीपूर्वक एक ऐसी कहानी गढ़ी है जो दर्शकों को यह पैटर्न पहचानने का पूरा मौक़ा देती है। यह फिल्म बताती है कि कैसे पितृसत्तात्मक संस्थाएं न्याय को बनाए रखने का दावा करते हुए उसे गुमराह कर खराब कर सकती हैं। 

महिलाओं की अधूरी आज़ादी और न्याय व्यवस्था

फ़िल्म में अदालती कार्यवाही इस बात को भी उजागर करती है कि हमारे देश की न्याय व्यवस्था में पहले से ऐसे नियम हैं, जो महिलाओं के खिलाफ होते हैं। कानून खुद को निष्पक्ष यानी सबके लिए बराबर कहता है, लेकिन असल में वह पितृसत्ता यानी पुरुषप्रधान सोच को और मजबूत करता है। फिल्म में जाबिली की मां, सीता का किरदार बहुत अहम है जिससे हमें समझ आता है कि शोषण सिर्फ जाबिली पर नहीं हो रहा, बल्कि औरतों की कई पीढ़ियां इस तरह के दर्द से गुजरती है। सीता की चुप्पी और उसका अंदरूनी संघर्ष उन सभी औरतों की कहानी है, जो सालों से पितृसत्तात्मक समाज में जी रही हैं और खुलकर विरोध नहीं कर पातीं।

फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे एक मां, जो खुद इन पुराने और गलत नियमों में फंसी है, अपनी बेटी की भी पूरी तरह मदद नहीं कर पाती। फिल्म इस पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहे दुख को अच्छे तरीके से सामने लाती है और इसी के लिए तारीफ की हकदार है। हालांकि फिल्म कई ज़रूरी सवाल उठाती है, लेकिन यह भी साफ है कि इसमें महिला किरदार अब भी पूरी तरह आज़ाद और आत्मनिर्भर नहीं दिखाए गए हैं। वे अब भी पुरुषों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। चाहे बात जाबिली की हो या किसी और महिला की। यानी महिलाओं की असली आज़ादी अभी भी एक अधूरा सपना बनी हुई है।

यह मामला महज दो प्रेमी युवाओं के खिलाफ़ नहीं है, बल्कि यह उस पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ़ भी है, जो लड़कियों की मर्जी और पसंद को कुचलने के लिए कानून को हथियार बना लेती है। कैसे एक सुरक्षात्मक कानून भी, जो बच्चों की सुरक्षा के लिए बने हैं, ताकतवर लोगों के हाथों शोषण का औज़ार बन सकते हैं, फ़िल्म इसको बख़ूबी दिखाती है।

यह फिल्म राम जगदीश के साथ वंशीधर सीरिगिरी और कार्तिकेय श्रीनिवास ने मिलकर लिखी है। इनकी कहानी आसान भाषा में यह दिखाने में कामयाब होती है कि भारतीय समाज में सत्ता किसके पास है, कौन इंसाफ पा सकता है और कौन नहीं। यह भी दिखाया गया है कि जब कोई हाशिए पर खड़ा इंसान न्याय की मांग करता है, तो उसे बार-बार सिस्टम के शोषण का सामना करना पड़ता है। साथ ही, फिल्म यह जरूरी सवाल भी उठाती है कि हमारे समाज में किसे प्यार करने की आज़ादी है और किसे नहीं। हमारे सिस्टम और कानून में कहां-कहां कमजोरियां हैं, और कथित तौर पर संसाधनों तक पहुंच रखने वाले लोग कैसे उसका फायदा उठाते हैं, फिल्म इन बातों को बताने की कोशिश करती है। जैसाकि फ़िल्म में सूर्या का डायलॉग भी है रिकॉर्ड्स के मुताबिक़ आज जाबिली की उम्र 17 साल, 11 महीने और 10 दिन है। अगर ये वारदात कहीं 20 दिन बाद हुई होती तो ये केस बनता ही नहीं। 17वें साल के 364वें दिन पर जिसे जुर्म माना जाता है, 18वें साल के पहले दिन पर वो सही हो जाता है। पर यहां मुझे सिर्फ़ एक बात समझ नहीं आती, जो मैच्योरिटी आज नहीं है वो एक दिन बाद आ जाएगी? ये कोई इंस्टेंट डिलीवरी तो नहीं है न? ये बहुत सब्जेक्टिव मैटर है।

कानून की बुनियादी जानकारी की बात करती फिल्म

फिल्म में सूर्या तेजा का एक और डायलॉग है, जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करता है। वह कोर्ट और आम लोगों से यह अपील करते हैं कि हर किसी को कानून की बुनियादी जानकारी होनी चाहिए। आखिर जिस कानून से देश चलता है और लोगों पर फैसले होते हैं, उसे समझना हर नागरिक का हक़ और ज़रूरत दोनों है। फ़िल्म के डायलॉग इतने असरदार हैं कि वे दर्शकों को कहानी से जोड़ कर रखते हैं, और इसका श्रेय पूरी तरह लेखकों को जाता है। हालांकि, चंदू और जाबिली की लव स्टोरी थोड़ी लंबी और खिंची हुई लगती है, क्योंकि कोर्टरूम ड्रामा होने के बावजूद कोर्ट के सीन कम दिखाए गए हैं। अगर चंदू और जाबिली की कहानी को थोड़ा कम समय दिया जाता, तो शायद कोर्ट के सीन और जांच से जुड़ी चीज़ें ज़्यादा अच्छी तरह दिखाई जा सकती थीं।

तस्वीर साभार: Deccan Chronicle

सभी कलाकारों ने खासकर शिवाजी ने बहुत अच्छा काम किया है। उन्होंने अपने किरदार को इतने अच्छे से निभाया है कि स्क्रीन पर उन्हें देखकर सच में गुस्सा आने लगता है। उनकी गुस्से वाली नज़रों को आप फिल्म खत्म होने के बाद भी याद रखेंगे। प्रियदर्शी पुलिकोंडा को अब तक हमने मज़ाकिया रोल्स में देखा है, लेकिन इस फिल्म में उन्होंने सूर्या तेजा का किरदार बहुत गंभीरता के साथ निभाया है। जिस तरह का दबाव और गहराई इस किरदार में होनी चाहिए थी, वो सब उन्होंने बहुत अच्छे से दिखाया है।

चंदू और जाबिली की लव स्टोरी थोड़ी लंबी और खिंची हुई लगती है, क्योंकि कोर्टरूम ड्रामा होने के बावजूद कोर्ट के सीन कम दिखाए गए हैं। अगर चंदू और जाबिली की कहानी को थोड़ा कम समय दिया जाता, तो शायद कोर्ट के सीन और जांच से जुड़ी चीज़ें ज़्यादा अच्छी तरह दिखाई जा सकती थीं।

नई प्रतिभाओं की अदाकारी और कहानी से तालमेल

फिल्म में नई-नई प्रतिभाओं को देखना बहुत अच्छा लगा, खासकर इस बात का ध्यान रखा गया कि किरदारों की उम्र के अनुसार ही कलाकार चुने गए हैं। ये कास्टिंग का बहुत अच्छा काम है। हर्ष और श्रीदेवी ने चंदू और जाबिली के रोल में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है। शायद यह उनका पहला मौका है, लेकिन उन्होंने बेहतरीन काम किया है। सहायक भूमिकाओं में भी सभी ने काफ़ी बढ़िया काम किया है। फिल्म के गाने बहुत पसंद किए जा रहे हैं, जो यह दिखाता है कि म्यूज़िक कितना अच्छा है। म्यूज़िक विजय बुलगानिन ने दिया है। फिल्म की कहानी और कलाकारों का अभिनय इतना अच्छा है कि अच्छी म्यूज़िक होने के बावजूद भी दर्शक फिल्म की कहानी और लेखन पर ज्यादा ध्यान देंगे। बैकग्राउंड म्यूज़िक कई जगहों पर दर्शकों को कहानी से जोड़ने की कोशिश करता है।

ऐसे समय में जब कानून का दुरुपयोग चरम पर है, इस फ़िल्म का आना अपने आप में सराहनीय है। यह फ़िल्म कई मायनों में एक दर्शक के रूप में आपको सोचने पर मजबूर करती है। इसमें दिखाई गई समाज की सच्चाई आपको झकझोर कर व्यवस्थाओं में व्याप्त विकारों को दूर करने और एक समावेशी विकल्प खोजने के लिए प्रेरित करती है, जिससे एक बेहतर समाज का निर्माण किया जा सके। राम जगदीश की यह फिल्म एक ऐसी कहानी है, जो हमें न्याय व्यवस्था की कमी और समाज में कानून का गलत इस्तेमाल दिखाती है। फिल्म बताती है कि कैसे प्रेम को अपराध मानकर महिलाओं और हाशिए पर रहने वाले लोगों की आज़ादी पर रोक लगाई जाती है। साथ ही, यह बात भी साफ होती है कि हमारे कोर्ट और कानून में असमानताएं कितनी गहरी हैं, जो महिलाओं और कमजोर समूहों को नुकसान पहुंचाती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात, फिल्म हर नागरिक के लिए कानून की बुनियादी समझ की जरूरत पर जोर देती है। यह याद दिलाती है कि न्याय केवल कानून की किताबों में नहीं, बल्कि उसके सही और निष्पक्ष प्रयोग में है। यह फिल्म जरूर देखी जानी चाहिए, खासकर उन लोगों के लिए जो समाज के हाशिये पर रह रहे हैं और न्याय की लड़ाई को समझना चाहते हैं।

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