संस्कृतिकिताबें हिंदी साहित्य की कवयित्रियों में स्त्री-देह, प्रेम और विद्रोह का विस्तार

हिंदी साहित्य की कवयित्रियों में स्त्री-देह, प्रेम और विद्रोह का विस्तार

हिंदी या फिर उर्दू साहित्य में महिला कवयित्रियों की कविताएं केवल प्रेम और स्त्री देह तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि वह अन्याय, हिंसा और असमानता का विद्रोह भी करती हैं। यह विद्रोह निजी भी है और राजनितिक भी यह उन चुप्पियों को तोड़ने की कोशिश करता है, जिन्हें सदियों से महिलाओं पर थोपा गया है।

भारत का साहित्यिक इतिहास कई साल पुराना है, लेकिन इस इतिहास में महिलाओं का योगदान अक्सर अनदेखा कर दिया गया। जबकि पुरुष लेखकों और कवियों का इसमें ज़्यादा बोलबाला रहा है। लेकिन आज के आधुनिक दौर में महिलाओं की साहित्य के क्षेत्र में उपस्थिति या पहचान केवल महिलाओं के जीवन से जुड़ी असलियत और समस्याओं को ही सामने नहीं लाती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि किस तरह पहले साहित्य का चित्रण पुरुषों की दृष्टि से किया गया था। जिसमें महिलाओं को हमेशा ‘आदर्श महिला’ वाले खांचे में सीमित करके एक अच्छी मां, अच्छी बहु, अच्छी बेटी और अच्छी पत्नी के रूप में दिखाया गया है। जिसमें यह शायद ही कहीं दिखाया गया होगा कि एक महिला प्यार भी कर सकती है। उसका शरीर कोई सामाजिक वस्तु या केवल सुंदरता का प्रतीक नहीं है।  क्योंकि एक महिला के शरीर पर उसका खुद का निर्णय होना बहुत ज़रूरी है और जब कोई बात महिलाओं के मानवाधिकार के विरुद्ध हो तो वह उसके लिए अपनी आवाज़ भी उठा सकती है या विद्रोह भी कर सकती है। यह सब बातें कविताओं और कहानियों में न के बराबर देखने को मिलती हैं।

लेकिन धीरे -धीरे बहुत सी लेखिकाओं और कवयित्रियों ने समाज के पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी नियमों को अपने लेखन के माध्यम से बदलने की कोशिश की है। यही नहीं उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेम, भक्ति, विद्रोह और नारीवाद को भी परिभाषित किया। ताकि महिलाओं को साहित्य में बराबरी का दर्ज़ा मिल सके। महिला कवयित्रियां देह को शर्म, चुप्पी और और पितृसत्तात्मक सीमाओं और नियमों का प्रतीक नहीं मानती बल्कि उसे अनुभव, दर्द और चाहत का स्त्रोत बनाती हैं। इसी तरह वह  प्रेम को भी कोई त्याग और समर्पण का प्रतीक नहीं मानती हैं क्योंकि प्यार तो बराबरी और आत्मसम्मान का प्रतीक है। आज के समय में हर कवयित्री अपने समय की सीमाओं को तोड़ते हुए एक नई दुनिया रचती है। जिसमें महिलाओं के शरीर, प्यार और विद्रोह को एक जगह देने की कोशिश की गई है।  

महिला कवयित्रियां देह को शर्म, चुप्पी और और पितृसत्तात्मक सीमाओं और नियमों का प्रतीक नहीं मानती बल्कि उसे अनुभव, दर्द और चाहत का स्त्रोत बनाती हैं। इसी तरह वह  प्रेम को भी कोई त्याग और समर्पण का प्रतीक नहीं मानती हैं क्योंकि प्यार तो बराबरी और आत्मसम्मान का प्रतीक है।

स्त्री-देह की पुरुष दृष्टि से मुक्ति

पुरुष लेखन में महिलाओं के शरीर को अक्सर सुंदरता, त्याग और सहनशीलता की मूरत बनाकर दिखाया गया जो कि पितृसत्ता की रूढ़िवादी सोच की उपज थी। लेकिन जब महिलाएं लिखने लगीं तो उन्होंने महिलाओं के शरीर को पुरुष दृष्टि वाले लेखन से मुक्त किया और अपने अनुभव और भावनाओं को अपने लेखन के माध्यम से व्यक्त करने लगीं। उन्हीं में से एक कवयित्री हैं, अनामिका जिन्होंने अपने जीवन में महिलाओं के अनुभव से जुड़ी हुई बहुत सी कविताएं लिखी अपनी माटी में छपी उनकी एक कविता कुछ इस तरह से है। ‘सुना गया हमको, यों ही उड़ते मन से, जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने सस्ते कैसेटों पर, ठसाठस्स ठूंसी हुई बस में। सुनो, हमें अनहद की तरह और समझो जैसे समझी जाती है। नयी-नयी सीखी हुई भाषा।’ इसमें कवयित्री का कहना है कि लोग महिलाओं की बात को ध्यान से नहीं सुनते है। वह ऐसे सुनते हैं, जैसे चलती बस में किसी कैसेट का गाना बज रहा हो जिसे बस की भीड़ में बिना किसी रूचि के सुना जाता है।

इसमें वह आग्रह करते हुए कहती हैं कि हमें उस तरह गहराई, सम्मान और संवेदनशीलता से समझो जिस तरह किसी नई भाषा को समझने में मेहनत करते हो। उन्होंने महिलाओं के जीवन से जुड़े हुए हर एक पहलू पर लिखा इसी तरह उनकी एक कविता के कुछ अंश जो महिलाओं के पीरियड से जुड़े हुए हैं। ‘ईसा मसीह औरत नहीं थे वरना मासिक धर्म बारह बरस की उमर से उनको मंदिर के बाहर रखता बेथलहेम और येरूशलम के बीच के कठिन सफर में उनके हो जाते कई तो बलात्कार।’ यह पंक्तियां बताती हैं कि महिला होना आसान नहीं है।

लोग महिलाओं की बात को ध्यान से नहीं सुनते है। वह ऐसे सुनते हैं, जैसे चलती बस में किसी कैसेट का गाना बज रहा हो जिसे बस की भीड़ में बिना किसी रूचि के सुना जाता है। इसमें वह आग्रह करते हुए कहती हैं कि हमें उस तरह गहराई, सम्मान और संवेदनशीलता से समझो जिस तरह किसी नई भाषा को समझने में मेहनत करते हो।

क्योंकि पितृसत्ता, समाज, पुरुष और धर्म उसके लिए कितनी सारी बाधाएं खड़ी कर देते हैं। चाहे फिर वो पीरियड के नाम पर उसे अशुद्ध मानना ही क्यों न हो। या फिर किसी लंबी यात्रा में जाने पर हिंसा या यौन हिंसा का डर हमेशा एक महिला के जीवन का हिस्सा बना रहता है। इसी तरह हिंदवी में छपी, कवियत्री  प्रतिभा कटियार की लिखी हुई एक कविता ‘ओ अच्छी लड़कियों’ भी समाज के उन रूढ़िवादी नियमों को चुनौती देती है, जिसमें महिलाओं को हमेशा अच्छे होने के बोझ तले दबा दिया जाता है। इन पंक्तियों में देखा जा सकता है कि कवयित्री ने कितने खुले तौर पर उन नियमों को तोड़ने के बारे में लिखा है जो सदियों से महिलाओं पर एक बोझ की तरह लाद दिए गए हैं। ‘ओ अच्छी लड़कियों, तुम थक नहीं गयीं क्या, अच्छे होने की सलीब ढोते ढोते सुनो, उतार दो अपने सर से अच्छे होने का बोझ, लहराओ न आसमान तक अपना आंचल उतार दो रस्म-ओ-रिवाज के जेवर, और मुक्त होकर देखो संस्कारों की भारी-भरकम ओढ़नी से’

प्रेम समर्पण के बजाय आत्म-अधिकार का होना है  

कवयित्रियों के लेखन में यह भी देखा और सीखा जा सकता है कि प्रेम केवल समर्पण और त्याग ही नहीं है। बल्कि यह बराबरी, सम्मान और समान अनुभूति का प्रतीक है। इसी तरह अमृता प्रीतम की लिखी हुई एक कविता मैं तुम्हें फिर मिलूंगी’ जिसमें एक महिला के प्रेम और इंतज़ार के बारे में लिखा गया है। ‘मैं तुम्हें फिर मिलूंगी कहां? किस तरह? नहीं जानती, शायद तुम्हारे तख़्ईल की चिंगारी बन कर, तुम्हारी कैनवस पर उतरूंगी  या शायद तुम्हारी कैनवस के ऊपर एक रहस्यमय रेखा बन करख़ामोश तुम्हें देखती रहूंगी’। यह दुख और इंतज़ार की कहानी नहीं है बल्कि प्यार का वो दस्तावेज़ है, जिसमें एक महिला इंतज़ार करते हुए प्यार को खुद का सहारा बना लेती है। वह प्रेम को अपने विस्तार के रूप में देखती है न कि खुद को खत्म करने या समर्पण के रूप में।

  प्रेम का अर्थ किसी दूसरे के लिए खुद को भुला देना नहीं है। बल्कि अपनी इच्छाओं और अधिकारों को स्वीकार करना है और खुद के लिए आज़ादी की मांग करना भी है। क्योंकि पितृसत्ता ने महिलाओं को हमेशा अच्छी बेटी या आदर्श महिला की श्रेणी में कैद करके रखा है। लेकिन अपनी आज़ादी के खुद ही आवाज़ उठानी होगी तब ही प्यार सही मायनों में बराबरी और सम्मान का प्रतीक बन पायेगा ।

इसी तरह कवयित्री किश्वर नाहीद की बहुत ही खूबसूरत कविता ‘क़ैद में रक़्स’ जिसमें उन्होंने बहुत ही सरल तरीके से महिलाओं की व्यथा को व्यक्त किया है। ‘मेरा भी जी नहीं करता कि तुम मेरे बच्चे के बाप बनो, मिरा बदन मेरी ख़्वाहिश का एहतिराम करता है।मैं अपने नीलो नील बदन से प्यार करती हूं। मगर मुझे मक्खी जितनी आज़ादी भी तुम कहां दे सकोगे, तुम ने औरत को मक्खी बना कर बोतल में बंद करना सीखा है।’ इन पंक्तियों से देखा जा सकता है, कि प्रेम का अर्थ किसी दूसरे के लिए खुद को भुला देना नहीं है। बल्कि अपनी इच्छाओं और अधिकारों को स्वीकार करना है और खुद के लिए आज़ादी की मांग करना भी है। क्योंकि पितृसत्ता ने महिलाओं को हमेशा अच्छी बेटी या आदर्श महिला की श्रेणी में कैद करके रखा है। लेकिन अपनी आज़ादी के खुद ही आवाज़ उठानी होगी तब ही प्यार सही मायनों में बराबरी और सम्मान का प्रतीक बन पायेगा। यह कविता हर हर उस महिला के मन में एक गहरा सवाल छोड़ती है जो कहीं न कहीं समाज के बनाए हुए रूढवादी नियमों से मुक्त होना चाहती है। 

पितृसत्ता और अन्याय के खिलाफ आवाज़  

हिंदी या फिर उर्दू साहित्य में महिला कवयित्रियों की कविताएं केवल प्रेम और स्त्री देह तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि वह अन्याय, हिंसा और असमानता का विद्रोह भी करती हैं। यह विद्रोह निजी भी है और राजनितिक भी यह उन चुप्पियों को तोड़ने की कोशिश करता है, जिन्हें सदियों से महिलाओं पर थोपा गया है। इस विषय पर प्रतिभा कटियार की लिखी हुई कविता ‘कामकाजी औरतें’ जिसमें बहुत ही आसान तरीके से बताया गया है कि महिलाओं के काम को किस तरह अनदेखा किया जाता है। चाहे वो बाहर जाकर पैसे भी कमा रही हों। लेकिन फिर भी उसे अपने फैसले खुद लेने का अधिकार नहीं होता है। लेकिन इस कविता के अंत में जो पंक्तियां हैं वो हर एक उस महिला के मन में जीने की एक उम्मीद भर देती हैं, जो महिलाएं काम के बोझ के तले खुद को भूल चुकी होती हैं। ‘मशीन में बदल चुकी कामकाजी औरतें, एक रोज़ तमाम तोहमतों से बेज़ार होकर, जीना शुरू कर देती हैं। थोड़ा सा अपने लिए भी, और तब लड़खड़ाने लगते हैं तमाम, सामाजिक समीकरण।’

हिंदी या फिर उर्दू साहित्य में महिला कवयित्रियों की कविताएं केवल प्रेम और स्त्री देह तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि वह अन्याय, हिंसा और असमानता का विद्रोह भी करती हैं। यह विद्रोह निजी भी है और राजनितिक भी यह उन चुप्पियों को तोड़ने की कोशिश करता है, जिन्हें सदियों से महिलाओं पर थोपा गया है।

इन पंक्तियों में ये साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि जब महिलाएं अपने लिए जीना शुरू कर देती हैं तो पितृसत्ता भी उनके आगे लड़खड़ाने लगती है। इसलिए समाज के रूढ़िवादी नियम महिलाओं को आज़ाद होते हुए नहीं देखना चाहते हैं। इस विषय पर हिंदवी में छपी कवयित्री निर्मला पुतुल की एक कविता जिसका नाम है ‘क्या तुम जानते हो ‘ यह कविता हमारे पितृसत्तात्मक समाज से वो सवाल पूछती है। जो बहुत सी महिलाएं समाज के डर से अपने अंदर ही दवा कर रखती हैं। ‘तन के भूगोल से परे, एक स्त्री के, मन की गांठें खोल कर, कभी पढ़ा है तुमने, उसके भीतर का खौलता इतिहास?अगर नहीं! तो फिर जानते क्या हो तुम, रसोई और बिस्तर के गणित से परे, एक स्त्री के बारे में?’

इस कविता की कुछ पंक्तियां हर पाठक के मन में सवाल खड़ा करती हैं और यह सोचने को मज़बूर करती है कि जो महिला पूरी ज़िंदगी अपने घर परिवार की देखभाल और काम में बिता देती है। लेकिन क्या कभी उसे वो प्यार और देखभाल मिल पाता है, जो उस महिला ने बिना मांगे दूसरों को दिया। इन कवयित्रियों ने साबित किया कि स्त्री-देह, प्रेम और विद्रोह केवल निजी अनुभव नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव की नींव हैं। उन्होंने पुरुष-केंद्रित साहित्यिक परंपराओं को तोड़कर महिलाओं  को उनकी  अपनी भाषा, अपनी इच्छाएं और अपनी आवाज़ वापिस दी। उनके लेखन में यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि हर एक महिला का शरीर उसका अपना है और प्यार सम्मान का प्रतीक है न कि त्याग करने का। इसी वजह से यह कविता-परंपरा आज महिलाओं के लिए साहस, आत्मसम्मान और आज़ादी की नई दुनिया रच रही है। 

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