उत्तर प्रदेश के बलिया की मिट्टी लोकगीत, सुरों और परंपराओं की जीवंत धरोहर मानी जाती है। इसी भूमि ने भारत की एक ऐसी प्रतिभा को जन्म दिया, जिसने लोकसंगीत को न केवल नई पहचान दी, बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया। यह नाम है, डॉ. शैलेश श्रीवास्तव जो कि एक प्रशिक्षित लोकगीत गायिका, दूरदर्शन की टॉप-ग्रेड आर्टिस्ट और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) की प्रतिष्ठित सांस्कृतिक राजदूत हैं। इन्होंने फिल्म ‘बनारस’ और फिल्म ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ के गानों में अपनी आवाज़ दी। सिविल सेवा से संगीत साधना तक, एक बहुमुखी कलाकार के रूप में उन्होंने ‘फेमिनिज़्म इन इंडिया’ के साथ विस्तार से अपनी प्रेरणादायी कहानी साझा की है।
फेमिनिज़्म इन इंडिया: आपका जन्म यूपी के बलिया में हुआ, जो हर ऐतिहासिक दृष्टि से हमेशा से हाशिए पर रहा है। बचपन में कला, संगीत, या संस्कृति में आपकी रुचि कैसे जगी? कोई खास घटना या व्यक्ति जिससे आपको प्रेरणा मिली हो?
डॉ. शैलेश श्रीवास्तव: मैं बलिया की एकमात्र प्रमुख महिला गायिका हूं। वहां से बहुत सारे बड़े-बड़े लोग साहित्य जगत में आए, जैसे डॉ. केदारनाथ सिंह, कवि अमरनाथ सिंह, हजारी प्रसाद द्विवेदी, मेरे पिता आदि। मेरे पिता एक अच्छे लेखक और कवि थे जिन्होनें मुझे प्रोत्साहित किया कि मैं गायन की ओर जाऊं और गायिका बनूं। इस मामले में मेरे पिता ने मेरा बहुत साथ दिया। उन्होंने मुझे बचपन में ही कहा था, ‘तुम गायन की ओर जाओ और एक अच्छी गायिका बनो।’ मुझे अभी भी याद है, इस मामले में कई दफा मेरी मां से उनकी बहस भी हुआ करती थी।
मेरी मां यह कहती थीं कि यह लड़की है, इसे क्यों गाने देते हो? यह गायिका बन जाएगी तो घर कैसे संभालेगी, इसकी शादी कैसे होगी? लेकिन पिताजी हमेशा मेरी तरफदारी करते और आज 40-50 साल बाद जब हम अपने समाज को देखते हैं। तो हर कोई यह चाहता है कि उसका बेटा या बेटी एक अच्छी गायिका या गायक बने, जबकि पहले के जमाने में ऐसा नहीं था।
मेरी मां यह कहती थीं कि ‘यह लड़की है, इसे क्यों गाने देते हो? यह गायिका बन जाएगी तो घर कैसे संभालेगी, इसकी शादी कैसे होगी?’ लेकिन पिताजी हमेशा मेरी तरफदारी करते और आज 40-50 साल बाद जब हम अपने समाज को देखते हैं। तो हर कोई यह चाहता है कि उसका बेटा या बेटी एक अच्छी गायिका या गायक बने, जबकि पहले के जमाने में ऐसा नहीं था। जब भी घर में कोई कार्यक्रम होता, तो शादी-ब्याह में सब महिलाएं ढोलक बजाकर गाती थीं। पिताजी कहते थे कि यही लोकगीत है, इसे अच्छे से सुनो और गाने की कोशिश करो। तब हमें बड़ा अजीब लगता था कि यह क्या ढोलक बजाकर गाया जाता है? लेकिन बाद में इस बात का एहसास हुआ कि लोकगीत और शास्त्रीय संगीत एक अलग तरह की कला है, जिसे सीखना हर किसी के बस की बात नहीं। इसके लिए बहुत साधना की जरूरत होती है।
वहां के एक शिक्षक किरण ओझा जो कि हमारे पहले शिक्षक थे, जिन्होंने मेरी आवाज को निखारा और मुझे संगीत और लोकगीत की दुनिया से रूबरू करवाया। फिर बाद में पंडित काशीनाथ मिश्रा, पंडित नरेंद्र शर्मा मेरे पिता के पास आए और उन्होंने कहा कि हम आपकी बेटी को सिखाना चाहते हैं।फिर इसी तरह से इन सभी शिक्षकों के प्यार और आशीर्वाद के चलते मैं संगीत की दुनिया में चलती चली गई। इन सभी चीजों के लिए मुझे हमेशा इस मैदान में आगे बढ़ाने के लिए प्रेरणा दी। मुझे अभी याद है, अपने बहुत शुरुआती करियर में ही बलिया के अलग-अलग संगीत प्रतियोगिताओं में आठ गोल्ड मेडल मिले। इसी तरह धीरे -धीरे मैं आगे बढ़ती चली गई और आज आपके सामने मौजूद हूं। एक टॉप ग्रेड गायिका के तौर पर अखिल भारतीय रेडियो और दूरदर्शन की मान्यता प्राप्त, बनारस घराने की प्रशिक्षित कलाकार।
वहां के एक शिक्षक किरण ओझा जो कि हमारे पहले शिक्षक थे, जिन्होंने मेरी आवाज को निखारा और मुझे संगीत और लोकगीत की दुनिया से रूबरू करवाया। फिर बाद में पंडित काशीनाथ मिश्रा, पंडित नरेंद्र शर्मा मेरे पिता के पास आए और उन्होंने कहा कि हम आपकी बेटी को सिखाना चाहते हैं।
फेमिनिज़्म इन इंडिया: दूरदर्शन की ‘टॉप’ ग्रेड गायिका बनने का सफर कैसा था?
डॉ. शैलेश श्रीवास्तव: बलिया से मेरे पिताजी की पोस्टिंग दिल्ली में हो गई और वहां जाने के बाद मैंने अपना अभ्यास जारी रखा। फिर वहां मुझे छोटेलाल जो कि म्यूजिक कंपोजर थे दूरदर्शन में उन्होंने सिखाया। इसके बाद पंडित राजन-सजन मिश्रा ने बहुत बारीकी से मेरा मार्गदर्शन किया। मैं जो सुगम संगीत गाती थी। उन्होंने बारीकी से सिखाया कहां रुकना है। कहां कितना गाना है, साहित्य की समझ कैसी होनी चाहिए गाने के लिए। वह सब कुछ मुझे बताया और यह भी कहा, जब तुम इन सब चीजों को समझते हुए इनका अभ्यास करते हुए आकाशवाणी में जाओगी तो जरूर तुम्हारा सिलेक्शन होगा।
इसके साथ दूरदर्शन में मेरी नियुक्ति हुई।मैंने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान पर एक डॉक्यूमेंट्री भी की ‘ए पीयरलेस पाइपर ऑफ़ वाराणसी’ के नाम से। इसे बहुत सराहा गया और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने भी मुझे बहुत सराहा। मुझे अभी भी याद है। उन्होंने मेरा गाना सुनकर कहा था कि कितनी सुरीली है, माशाल्लाह! साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि बेटा, तुम गाओ, मैं शहनाई बजाऊंगा उस्ताद की यह बातें मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं थीं। दूरदर्शन में मैंने एक बहुत महत्वपूर्ण और लोकप्रिय प्रोग्राम ‘रंगोली’ के नाम से किया, जिसमें कई सारे दर्शक विदेश से भी हमारे साथ जुड़े। इस कार्यक्रम में हम दर्शकों और श्रोताओं से पूछते थे, अब आप क्या देखना चाहते हैं? और उसमें हम फिल्मी गाने दर्शकों की सिफारिश पर लगाया करते थे।
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने भी मुझे बहुत सराहा। मुझे अभी भी याद है। उन्होंने मेरा गाना सुनकर कहा था, कितनी सुरीली है, माशाल्लाह! साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि बेटा, तुम गाओ, मैं शहनाई बजाऊंगा। उस्ताद की यह बातें मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं थीं।
फेमिनिज़्म इन इंडिया: केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी और यूपी संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार जीतने का सबसे यादगार पल क्या था?
डॉ. शैलेश श्रीवास्तव: जो संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मुझे उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार का मिला। यह मेरे लिए बहुत ज्यादा सौभाग्य की बात है। मैं उस पल को अपने जीवन में हमेशा यादगार पल के तौर पर मानती हूं। नोट: ये पुरस्कार उनको लोक धरोहर संरक्षण के लिए मिला है, वे आईसीसीआर की एम्पैनल्ड आर्टिस्ट हैं और साल 1993 में मॉरीशस, साल 1996 में बाली, साल 2003 में अमेरिका, साल 2005 में त्रिनिदाद-टोबैगो जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं।
फेमिनिज़्म इन इंडिया: एक शास्त्रीय गायक के रूप में, आप संगीत को आज के आधुनिक संदर्भ में कैसे देखती हैं? युवा कलाकारों को शास्त्रीय संगीत की ओर आकर्षित करने के लिए आपका कोई सुझाव है?
डॉ. शैलेश श्रीवास्तव: शास्त्रीय संगीत या क्लासिकल म्यूजिक को सिखाना या उसकी साधना करना थोड़ा सा कठिन जरूर है। लेकिन नामुमकिन नहीं है। इसलिए जो भी नए कलाकार या गायक आ रहे हैं, या वे लोग जो क्लासिकल संगीत में अपने कैरियर बनाना चाहते हैं। मैं उनसे यही कहना चाहूंगी कि सबसे पहले अपने अभ्यास को मजबूत करें। इस मामले में कोई शॉर्टकट न लें, बल्कि अच्छी साधना करें और प्रयास करें कि किसी गुरु के मार्गदर्शन में इसे सीखें, खूब अभ्यास करें। तब कहीं जाकर यह समझ आएगा कि आपको कौन से शब्द को किस तरह से गाना है। किस शब्द का हक कैसे अदा करना है। इन सब अभ्यास के नतीजे में आपको समझ आएगा कि ‘सा’ को कैसे गाना है, ‘रा’ को कैसे गाना है। मुझे अब भी याद है कि आशा जी हर रियलिटी शो में हमेशा यह कहा करती थीं कि ‘मुंह खोल के गाओगे तो संगीत आकार और इकार का होता है।’
जो क्लासिकल संगीत में अपने कैरियर बनाना चाहते हैं। मैं उनसे यही कहना चाहूंगी कि सबसे पहले अपने अभ्यास को मजबूत करें। इस मामले में कोई शॉर्टकट न लें, बल्कि अच्छी साधना करें और प्रयास करें कि किसी गुरु के मार्गदर्शन में इसे सीखें, खूब अभ्यास करें। तब कहीं जाकर यह समझ आएगा कि आपको कौन से शब्द को किस तरह से गाना है। किस शब्द का हक कैसे अदा करना है।
आज लोग मुंह ही नहीं खोलते। पहले देखिए, गंगूबाई हंगल जी जब गाती थीं तो उस समय माइक नहीं होता था, और थिएटर के लिए ऐसा सिखाया जाता था कि आप गाएं तो पीछे वाले ऑडियंस तक आवाज जाए। यानी शास्त्रीय संगीत का रियाज ऐसा होता था। पंडित भीमसेन जोशी जी, यह सब बहुत प्रसिद्ध गायक थे। इसीलिए अगर आप फिल्मों में भी गाना चाहते हैं। तो बिना शास्त्रीय संगीत के बारे में जाने आप अच्छे गायक नहीं बन सकते और लोक संगीत से ही आया है। शास्त्रीय संगीत जब कुछ नहीं था तो लोक संगीत था। यह बात पंडित रविशंकर जी से लेकर सभी बड़े गायक मानते हैं। मैं भी यही मानती हूं। नोट: डॉ. श्रीवास्तव ने पॉप और फोक को फ्यूज करते हुए कई आधुनिक रचनाएं की हैं, जैसे हिंदी, उर्दू, भोजपुरी, अवधी आदि भाषाओं में।
फेमिनिज़्म इन इंडिया:आप एक लेखक और शोधकर्ता हैं। सिविल सेवा, संगीत, और लेखन तीन अलग-अलग क्षेत्रों में एक साथ संतुलन बनाना कैसे संभव हुआ?
डॉ. शैलेश श्रीवास्तव: देखिए, जब हम दूरदर्शन में काम करते थे तो मीडिया की नौकरी तो इस प्रकार होती है कि आपको 24 घंटे तैयार रहना होता है। कब कौन सी आफत आ जाए, यह क्या हो जाए इस बात का कोई भरोसा नहीं होता था। कार्यक्रम हमेशा जारी रहता था। अक्सर यह होता था कि हम रात में देरी से आते थे। लेकिन जैसे मैंने कहा, कि अगर संगीत में अपना कैरियर बनाना हो और शास्त्रीय संगीत व सुगम संगीत को अच्छा बनाना हो, तो अभ्यास जरूरी होता है। बिल्कुल उसी तरह से जब हम नौकरी पर थे और रात को देरी से घर आते थे तो सुबह का समय हमारा होता था। हम सुबह-सवेरे अपना रियाज करते थे, साधना करते थे और अपने ‘सा’ को पुकारते थे। तो इसे कह सकते हैं कि हम अपनी नौकरी और दूसरे कामों के साथ-साथ संगीत को भी हमेशा प्राथमिकता में रखते थे।
मैं संगीत नाटक अकादमी के पुस्तकालय में जाकर बेगम की गजलों की रिकॉर्डिंग सुनती और उसे नोट करती थी कि वह किस तरह से शब्दों की बारीकियां कर रही हैं। उनके गले की खराश कैसी है, किस तरह से वह गजलों को डिलीवर कर रही हैं।
फेमिनिज़्म इन इंडिया: नई दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में काम करने का अनुभव कैसा रहा? शहरों में अपनी कलात्मक दृष्टि को कैसे आकार दिया?
डॉ. शैलेश श्रीवास्तव: बिल्कुल, बड़े शहर अपने आप में आपको बड़े अवसर देते हैं। वैसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। जब मैं दिल्ली में थी तो मुझे पंडित राजन-सजन मिश्रा, छोटेलाल जैसे गुरुओं के मार्गदर्शन में बहुत कुछ सीखने को मिला। इस तरह से जब मैं दूरदर्शन में नौकरी किया करती थी। तो कई बड़े संगीत कार्यक्रमों को कवर करने का मौका मिलता था। उस समय भी मैं उनके कार्यक्रमों को कवर करने के साथ-साथ वहां रुककर उन्हें गौर से सुनती भी थी। इससे भी मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। कई बार आपको सुनकर भी बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मैं बेगम अख्तर को सुनती थी कि वो कैसे गाती हैं। मैं संगीत नाटक अकादमी के पुस्तकालय में जाकर बेगम की गजलों की रिकॉर्डिंग सुनती और उसे नोट करती थी कि वह किस तरह से शब्दों की बारीकियां कर रही हैं। उनके गले की खराश कैसी है, किस तरह से वह गजलों को डिलीवर कर रही हैं। साथ ही मैं समय के संगीत के बड़े विशेषज्ञ राघव मिलन जी के पास भी जाया करती थी और उनसे पूछती थी कि कैसे गाया जाए? और उनसे भी मैंने बहुत मार्गदर्शन लिया। इसी के साथ सिंग पल्लू साहब के लिए भी मैंने गाया, जो देश के बहुत नामचीन गायक हैं।
इन सभी चीजों से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला, बहुत सारा अनुभव आया। मैं हमेशा अपना प्रयास और अपना अभ्यास जारी रखती थी। कभी-कभी सरकारी विज्ञापनों के लिए हमें 13 भाषाओं में गाना पड़ता था। इसके लिए मैंने कई सारी भाषाएं भी सीखीं जैसे संस्कृत, हिंदी, उर्दू, भोजपुरी, अवधी, पंजाबी, सिंधी, हरियाणवी, हिमाचली, डोगरी, मराठी आदि। आकाशवाणी उर्दू सर्विस के लिए मैंने काम किया। तो वहां मैंने कई सारे नातिया कलाम भी गाए, जिससे मुझे अपने तलफ़्फ़ुज़ या उच्चारण को सही करने का मौका मिला। यानी कुल मिलाकर यह कि मैं इन बड़े शहरों में न आ पाती तो अपनी कलात्मक दृष्टि को इतना आकार न दे पाती और न ही मुझे इतने बड़े अवसर मिल पाते।
साथ ही मैं समय के संगीत के बड़े विशेषज्ञ राघव मिलन जी के पास भी जाया करती थी और उनसे पूछती थी कि कैसे गाया जाए? और उनसे भी मैंने बहुत मार्गदर्शन लिया। इसी के साथ सिंग पल्लू साहब के लिए भी मैंने गाया, जो देश के बहुत नामचीन गायक हैं।
फेमिनिज़्म इन इंडिया: आज के डिजिटल युग में कला और संस्कृति को संरक्षित करने के लिए क्या चुनौतियां हैं, और आप इसका कोई समाधान बता सकती हैं?
डॉ. शैलेश श्रीवास्तव: इसके लिए मैं यही सुझाव देना चाहूंगी कि अभी जो भी इस युग के बड़े गायक हैं और जीवित हैं, हमें उनसे मिलना चाहिए। हमें उनके संगीत की और उनकी कला की सराहना करनी चाहिए। साथ ही, उनकी कला को आज के डिजिटल दौर में बहुत ही आसानी से और बहुत अच्छे तरीके से संरक्षित किया जा सकता है। उनके साक्षात्कार करके, उनके छोटे-छोटे वीडियो बनाकर, उनकी कला को रिकॉर्ड करके रखा जा सकता है। आज हम देखते हैं कि आज का दौर जिस तरह से टेक्नोलॉजी के कारण सिमटता जा रहा है, जो अच्छे गायक, अच्छे कलाकार हैं, हम सब उनसे दूर होते जा रहे हैं। मीडिया भी ऐसे कलाकारों को नजरअंदाज कर रहा है।
मैंने अभी लोरी पर कुछ काम किया। क्योंकि आज के दौर में माएं अपने बच्चों को लोरियां नहीं सुनातीं हैं, बल्कि अब बच्चों को टीवी और मोबाइल के माध्यम से खाना खिलाया जाता है या उन्हें बहलाया जाता है। परिवार सिमटते जा रहे हैं। पहले यह होता था कि लोग बड़े परिवारों में, जॉइंट फैमिली में रहते थे। जहां बच्चा अपने सभी घर के सदस्यों और रिश्तेदारों के साए में बड़ा होता था। उसे रिश्तों का महत्व मालूम होता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। इन सभी की वजह से रिश्तों का महत्व भी कम होता चला जा रहा है। इन सब चीजों का प्रभाव हमारी संस्कृति पर पड़ रहा है, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। जब यह सब चीजें नहीं होंगी तो कल और संगीत होगा, और उसे संरक्षित किया जाना भी आसान हो जाएगा।
मैंने अभी लोरी पर कुछ काम किया। क्योंकि आज के दौर में माएं अपने बच्चों को लोरियां नहीं सुनातीं हैं, बल्कि अब बच्चों को टीवी और मोबाइल के माध्यम से खाना खिलाया जाता है या उन्हें बहलाया जाता है। परिवार सिमटते जा रहे हैं। पहले यह होता था कि लोग बड़े परिवारों में, जॉइंट फैमिली में रहते थे। जहां बच्चा अपने सभी घर के सदस्यों और रिश्तेदारों के साए में बड़ा होता था।
फेमिनिज़्म इन इंडिया: युवा कलाकार या सिविल सेवक जो कला में रुचि रखते हैं, उन्हें आप क्या सलाह देना चाहेंगीं?
डॉ. शैलेश श्रीवास्तव: मैं उन सभी युवा कलाकारों से यह कहना चाहूंगी कि वे साहित्य को गंभीरता से लें। संगीत में हमेशा से साहित्य की अलग अहमियत रही है, उसे महत्व को हमेशा जिंदा रखें। हम देखते हैं कि आज भी हम पुराने गाने सुनते हुए। जब गाड़ी में कहीं सफर करते हैं तो कई दूर तक चले जाते हैं। लेकिन कल्पना करके देखिए कि वहीं अगर आज के दौर के गाने बजाए जाएं तो वह सफर उस तरह का नहीं होता। उन गानों में जो शब्दों का प्रयोग किया जाता है, उनका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं होता। उन शब्दों को याद रखना भी बेहद मुश्किल होता है।
फेमिनिज़्म इन इंडिया: बलिया के बारे में क्या विचार हैं आपके? अब के बलिया में और आपके बचपन के बलिया में क्या फर्क देखती हैं आप? चाहे वो सांस्कृतिक रूप से हो या सामाजिक रूप से, क्या बदलाव दिखाई देता है?
डॉ. शैलेश श्रीवास्तव: जैसे-जैसे समय बढ़ता गया, बलिया भी बदल गया। मुझे अभी याद है कि वहां एक बाजार हुआ करता था, ‘गुदड़ी बाजार’ जहां हम सब्जियां लेने जाया करते थे। सब्जी वाले से हम खूब मोलभाव करते थे और उसमें खूब मजा आया करता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। सारे चौक-चौराहे, गलियां सब कुछ बदल सा गया है। बलिया वह पुराना बलिया नहीं रहा। पहले लोगों में आपस में जो प्रेम भाव हुआ करता था, जो कनेक्शन एक-दूसरे से था, वह कहीं भंग सा हो गया है। बाजार में लोग निकलकर जब चीजें खरीदते थे तो मोलभाव किया करते थे, इससे लोगों में बातचीत होती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब बाजार आपके घर में, आपके मोबाइल में है। कोई भी चीज मंगानी हो तो आप फौरन मोबाइल से ऑर्डर कर लेते हैं। ज़ोमैटो स्विगी जैसे ऐप्स बलिया में भी हैं, अब लोग इस पर खरीदारी करते हैं।


Very comprehensive interview