साल 2025 भारतीय न्यायपालिका के लिए एक ऐसा साल साबित हुआ, जिसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने कई ऐतिहासिक निर्णय दिए, जो कानूनी व्यवहार को गहराई से प्रभावित करने का वादा करते हैं। साथ ही अदालतों ने कई ऐसे निर्णय भी दिए जोकि समाज में भरी हुई पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी मानसिकता को उजागर करते हैं। इस लेख में हम भारत के सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों के दिए गए कुछ, ऐसे ही निर्णयों के बारे में बात करेंगे जो कि रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक मनोदशा को बताते हैं।
1- महिला वकीलों पर लागू नहीं होगा पॉश एक्ट
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने जुलाई महीने में दिए अपने एक फैसले में कहा था, कि कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, साल 2013 (पॉश अधिनियम) के प्रावधान, महिला वकीलों का अपने पुरुष समकक्षों के खिलाफ़ की गई शिकायतों पर लागू नहीं होते हैं। क्योंकि अधिवक्ताओं और बार काउंसिल के बीच कोई ‘नियोक्ता-कर्मचारी’ संबंध नहीं है। यह निर्णय यह बताता है कि महिला वकील, न्याय व्यवस्था में प्रमुख भूमिका निभाने के बावजूद, अन्य व्यवसायों की महिलाओं के समान सुरक्षा की हकदार नहीं हैं।
यह निर्णय एक खतरनाक मिसाल कायम करता है कि कानूनी पेशेवर क्षेत्रों में जुड़ी, महिलाओं को सम्मान और सुरक्षा की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों के दायरे से बाहर रखा गया है। यह निर्णय कानूनी पेशे की कार्यप्रणाली के बारे में एक बुनियादी ग़लतफ़हमी को दिखाता है। हालांकि यह तथ्य है कि वकील बार काउंसिल के ‘कर्मचारी’ नहीं हैं, फिर भी वे एक कामकाजी माहौल में रहते है। वे चैंबर्स, अदालतों, बार एसोसिएशनों और मेंटरशिप संरचनाओं के भीतर काम करते हैं, जिनसे पेशेवर निर्भरता, सहकर्मी गतिशीलता और सत्ता का पदानुक्रम पैदा होता है।
2- बलात्कार आरोपी का सर्वाइवर से शादी कराना बलात्कार का हल
जून 2025 में,ओडिशा उच्च न्यायालय ने बलात्कार के एक 26 वर्षीय कथित आरोपी को 22 वर्षीय सर्वाइवर से शादी करने के लिए एक महीने की जमानत प्रदान की। न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए कहा कि उनका संबंध सहमति से था। महिला की शिकायत पर साल 2023 में पोक्सो एक्ट के तहत उस व्यक्ति को जेल भेजा गया था, जिसमें उसने कहा था कि व्यक्ति ने शादी का वादा करके 2019 से उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए थे। उसने शिकायत की थी कि वह साल 2020 और 2022 में दो बार गर्भवती हुई और दोनों बार उसने उसे अबॉर्शन कराने के लिए मजबूर किया। इसके वाद उस व्यक्ति ने अंतरिम जमानत के लिए अदालत का रुख किया था, जिसमें दावा किया गया था कि उसके और सर्वाइवर के परिवार इस बात पर सहमत हो गए हैं कि याचिकाकर्ता व्यक्ति को महिला से शादी करनी चाहिए।
हालांकि यह पहला मामला नहीं है, जिसमें किसी भारतीय न्यायालय ने इस प्रकार का फैसला सुनाया है। इससे पहले भी कई बार भारतीय न्यायालय इस तरह के रूढ़िवादी फैसले सुनाते रहे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने इसी साल मार्च के महीने में बलात्कार, शोषण और सर्वाइवर की तस्वीरें ऑनलाइन साझा करने के मामले में कथित आरोपी को इस शर्त पर जमानत दे दी, कि वह जमानत पर बाहर आने के तीन महीने के भीतर उस महिला से शादी करेगा और सबूतों का गलत इस्तेमाल नहीं करेगा।
3- त्याग करने वाली महिला को अदालत का ‘आदर्श भारतीय पत्नी’ कहना
अगस्त महीने में, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने पति के दो दशकों तक त्याग को सहन करने वाली ‘आदर्श भारतीय पत्नी’ की सराहना की। अदालत ने कहा कि यह एक अनोखा मामला है, जो एक विशिष्ट भारतीय महिला के रूप में पत्नी की निष्ठा को दिखाता है, जो अपने पारिवारिक जीवन को बचाने के लिए अपना पूरा प्रयास करती है। अदालत की इस टिप्पणी से मनुवाद की संस्कृति को दोहराया जा रहा है। जबकि हम रोज़ाना दहेज हत्या और यौन हिंसा के मामले देखते हैं।
न्यायालय ने कहा कि परित्याग के दर्द के बावजूद, पत्नी अपने पत्नी धर्म में दृढ़ रही। अपने पति की अनुपस्थिति के बावजूद, वह अपने ससुराल वालों के प्रति समर्पित रही। वह उनकी देखभाल और स्नेह से सेवा कर रही है। वह अपने कष्टों का उपयोग सहानुभूति के लिए नहीं करती। इसके बजाय, उसने इसे अपने भीतर प्रवाहित किया। उसने अपनी शादी और परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी की भावना को कड़वाहट या निराशा से कम नहीं होने दिया। वह न तो अपने पति की वापसी की भीख मांगती है, न ही उसे बदनाम करती है, बल्कि अपने शांत धैर्य और नेक आचरण से अपनी ताकत का परिचय देती है।
4- बलात्कार और यौन हिंसा के बीच में फंसे न्यायालय के फैसले
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 19 मार्च न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा द्वारा दिए गए फैसले में कहा गया था कि ‘किसी लड़की के स्तन को पकड़ना और उसकी पैंट की डोरी तोड़ना बलात्कार का प्रयास नहीं है, बल्कि यौन उत्पीड़न का प्रयास है।’ यह फैसला साल 2021 में उत्तर प्रदेश के कासगंज इलाके में हुई एक घटना के संदर्भ में आया था। जब दो लोगों ने 11 साल की एक बच्ची पर हमला किया था। उन्होंने उसकी ब्रेस्ट को पकडा, उसकी सलवार का नाड़ा तोड़ा और उसे पुल के नीचे धकेलने की कोशिश की। हालांकि, कुछ राहगीरों के समय पर हस्तक्षेप से बच्ची को बचा लिया गया।
बाद में बच्ची की माँ ने मुकदमा दायर किया, जिसके बाद आरोपियों ने राहत के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। इस तरह के फैसले संविधान के मूल सिद्धांतों की घोर अस्वीकृति हैं। ये महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों को कमज़ोर करने और कम करके आंकने का एक बड़ा प्रयास हैं, और इस तरह पितृसत्तात्मक विचारधारा को और अधिक संस्थागत और वैध बनाते हैं, जो महिलाओं को केवल इस्तेमाल और दुर्व्यवहार की वस्तु बनाकर पनपती है।
5- प्रवेश-स्तरीय न्यायिक पदों के लिए अनिवार्य तीन वर्ष की कानूनी प्रैक्टिस
मई 2025 में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने प्रवेश-स्तरीय न्यायिक पदों के लिए आवेदन करने वाले उम्मीदवारों, के लिए तीन साल की कानूनी प्रैक्टिस की आवश्यकता को बहाल कर दिया। कानूनी विश्लेषकों का तर्क है कि शादी और पारिवारिक समय-सीमा से जुड़े सामाजिक दबावों और पुरुष-प्रधान कानूनी पेशे में मौजूदा लैंगिक पूर्वाग्रहों के कारण यह महिलाओं पर असमान रूप से प्रभाव डालता है, जिससे न्यायपालिका में प्रवेश करने वाली महिलाओं की संख्या में संभावित रूप से कमी आ सकती है। न्यायपालिका के हर स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व मुख्य रूप से कम है ।
द प्रिंट में छपी साल 2025 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ज़िला न्यायाधीशों में उनकी संख्या केवल 38.3फीसदी, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में 11 . 4 फीसदी और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में मात्र 6 फीसदी है। आज़ादी के 75 से ज़्यादा सालों में, किसी भी महिला को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त नहीं किया गया है। यह उन व्यवस्थागत बाधाओं की एक कड़ी याद दिलाता है।जो महिलाओं को सर्वोच्च न्यायिक पदों से दूर रखती हैं। फिर भी, इस नई नीति से महिला उम्मीदवारों की संख्या और कम होने का ख़तरा है, जिससे पहले से ही स्पष्ट लैंगिक अंतर और बढ़ जाएगा। इस विडंबना को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है।
6- पत्नी की इच्छा के बिना बनाये गए यौन-सम्बन्ध बलात्कार की श्रेणी में नहीं आते
फ़रवरी महीने में, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी पुरुष का अपनी पत्नी के साथ बिना सहमति के यौन संबंध बनाना भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के अंतर्गत अपराध या बलात्कार नहीं है। इस फैसले ने एक बड़ी बहस और आलोचना को जन्म दिया है। यह फैसला पत्नी की इच्छा के विरुद्ध जबरन यौन संबंध बनाने वाले पतियों को संरक्षण प्रदान करता है, जिससे विवाहित महिलाओं के अपने शरीर के साथ क्या करना है। यह तय करने के अधिकार और भारत में लंबे समय से चली आ रही पितृसत्तात्मक परंपराओं को लेकर गंभीर चिंताएं पैदा होती हैं। यह फैसला उस पुरानी मान्यता को मज़बूत करता है, कि शादी के बाद महिलाएं सहमति का अधिकार खो देती हैं, जो आधुनिक वैश्विक, कानूनी और सामाजिक मान्यता के विपरीत है। जो साथी की सहमति को मौलिक अधिकार मानती है।
अदालत ने बलात्कार और अप्राकृतिक यौन अपराध के दोषी एक पति को बरी कर दिया। पति ने कथित तौर पर अपनी पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाए। उसने कथित तौर पर अपनी पत्नी के मलाशय में हाथ डाला, जिसके बाद दर्द की शिकायत के चलते पत्नी को सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। डॉक्टरों के अनुसार, पत्नी की मृत्यु पेरिटोनाइटिस और मलाशय में छेद के कारण हुई। पत्नी ने मृत्यु पूर्व बयान दर्ज कराया, जिसके आधार पर निचली अदालत ने पति को 10 साल की कैद की सजा सुनाई।
7 -धर्म परिवर्तन के बिना अंतरधार्मिक शादियों को अवैध माना जाएगा
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था, कि धर्म परिवर्तन के बिना किए गए अंतरधार्मिक विवाह अवैध हैं। यह टिप्पणी आर्य समाज मंदिर में एक नाबालिग लड़की के कथित अपहरण के आरोप और विवाह से संबंधित याचिका की सुनवाई के दौरान की गई। हालांकि याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसने आर्य समाज मंदिर में लड़की से शादी की थी और अब वह बालिग है। चूंकि वे साथ रह रहे हैं, इसलिए उसने तर्क दिया कि आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दी जानी चाहिए। इस याचिका का विरोध करते हुए राज्य सरकार ने तर्क दिया कि दोनों व्यक्ति अलग-अलग धर्मों के थे और उन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया था। इसलिए, शादी कानूनी रूप से मान्य नहीं थी। हालांकि अदालत का यह फैसला कुछ हद तक सही सकता था। अगर वो दोनों एक दूसरे के साथ नहीं रहना चाहते। लेकिन इस मामले में दोनों एक दूसरे के साथ रह रहे थे अपनी मर्ज़ी से। इससे साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि इस तरह के फैसले अंतरधार्मिक शादी को और भी मुश्किल बना देते हैं।

