क्या आपको भी कभी ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया पर किसी के बच्चे की तस्वीर देखकर अपने बच्चे की फोटो पोस्ट करने का मन करता है? क्या हर त्योहार, जन्मदिन, पिकनिक या बच्चे के हर छोटे-बड़े माइलस्टोन को शेयर करने का एक दबाव महसूस होता है? अगर हां, तो आप अकेले नहीं हैं। आज सोशल मीडिया सिर्फ बातचीत का ज़रिया नहीं रहा, बल्कि हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है। धीरे-धीरे यह एहसास बनने लगा है कि अगर एक दिन भी सोशल मीडिया से दूर रहे, तो कुछ छूट गया। इसका असर हमारे फैसलों पर भी पड़ता है।
अब बात सिर्फ हमारी नहीं रहती, हम अपने बच्चे के लिए भी लाइक्स और तारीफ़ की उम्मीद करने लगते हैं। सबसे चिंता की बात यह है कि बच्चा दुनिया को समझना शुरू ही करता है और हम उसके साथ उस पल में रहने के बजाय हर लम्हे को कैमरे में कैद करने लगते हैं। हम उसकी पहली मुस्कान, पहला कदम या पहला शब्द सोशल मीडिया पर साझा करने को लेकर तत्पर रहते हैं। अक्सर हम यह सोचते हैं कि फोटो अच्छी है या नहीं, कपड़े ठीक हैं या नहीं, बैकग्राउंड सही है या नहीं। लेकिन उस पल को महसूस करना पीछे छूट जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पेरेंटिंग अब एक अनुभव नहीं, बल्कि एक परफॉर्मेंस बनती जा रही है और जब बात बच्चे की हो, तो उसकी सहमति इस डिजिटल दुनिया में आखिर कैसे और कब मायने रखती है?
मुझे अपने बच्चों की उपलब्धियां सबके साथ साझा करने का मन करता है। कभी-कभी मैं इंस्टाग्राम पर बच्चों की तस्वीरें पोस्ट करती हूं। लेकिन दो बच्चों की देखभाल और घर के कामों में मेरा ज़्यादातर समय निकल जाता है। ऐसे में सोशल मीडिया के लिए अलग से वक्त निकालना मुश्किल है।
पेरेंटिंग का बदलता चेहरा
पेरेंटिंग दुनिया के सबसे मुश्किल और ज़रूरी कामों में से एक है। यही प्रक्रिया एक बच्चे को धीरे-धीरे सक्षम, आत्मनिर्भर और संवेदनशील इंसान बनाती है। लेकिन आज पेरेंटिंग का मतलब बदलता जा रहा है। यह बच्चों की परवरिश से ज़्यादा सोशल मीडिया पर खुद को साबित करने की दौड़ बनती जा रही है। हम भूलते जा रहे हैं कि पेरेंटिंग कोई प्रदर्शन नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी और समझ है। सोशल मीडिया के दबाव में हम अनजाने में अपने बच्चों को और ज़्यादा असहाय बना रहे हैं। हर छोटे फैसले के लिए बाहरी मान्यता तलाशने की आदत बढ़ गई है। यह दबाव धीरे-धीरे इतना सामान्य हो गया कि हमें इसका एहसास भी नहीं होता। डिजिटल 2025 इंडिया रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी 2025 तक भारत में लगभग 491 मिलियन सक्रिय सोशल मीडिया यूज़र थे। यह दिखाता है कि सोशल मीडिया हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का कितना बड़ा हिस्सा बन चुका है।
अब यह हमें बताने लगा है कि बच्चे को क्या खिलाना है, क्या पहनाना है और किस उम्र में क्या सही है। कई बार मां-बाप बच्चे की ज़रूरत समझने से पहले रील्स देख लेते हैं। जबकि सच यह है कि सोशल मीडिया के बिना भी बच्चे बड़े होते थे। स्क्रॉल में छपी एक रिपोर्ट अनुसार साल 2025 के एक सर्वे में पाया गया कि जहां 60 प्रतिशत माता-पिता ने आइडेंटिटी थेफ़्ट जैसे रिस्क के बारे में जानकारी होने का दावा किया, वहीं सिर्फ़ 42.7 प्रतिशत ने रेगुलर तौर पर प्राइवेसी सेटिंग्स को एडजस्ट किया, और लगभग एक-तिहाई ने कभी उनका इस्तेमाल नहीं किया, जिससे समझ और बचाव के बीच एक बड़ा अंतर पता चलता है। साफ तौर पर अमूमन पेरेंट्स में डिजिटल सेफ़्टी की जागरूकता की कमी है और वे ये नहीं समझते कि कब, कौन सी और कितना कंटेन्ट पोस्ट करना चाहिए या किया जा सकता है।
स्क्रॉल में छपी एक रिपोर्ट अनुसार साल 2025 के एक सर्वे में पाया गया कि जहां 60 प्रतिशत माता-पिता ने आइडेंटिटी थेफ़्ट जैसे रिस्क के बारे में जानकारी होने का दावा किया, वहीं सिर्फ़ 42.7 प्रतिशत ने रेगुलर तौर पर प्राइवेसी सेटिंग्स को एडजस्ट किया, और लगभग एक-तिहाई ने कभी उनका इस्तेमाल नहीं किया, जिससे समझ और बचाव के बीच एक बड़ा अंतर पता चलता है।
सोशल मीडिया और महिलाओं का अनुभव
देश में अलग-अलग वर्ग, समुदायों या धर्म की माताओं के लिए पेरेंटिंग का डिजिटल अनुभव अलग है। जैसे, मेट्रो शहरों में रहने वाली माताओं पर सोशल मीडिया का दबाव अक्सर ज़्यादा होता है। इसकी एक वजह ज़्यादा एक्सपोज़र और ऐसा सामाजिक दायरा होता है, जहां सोशल मीडिया को महत्व दिया जाता है। इसके साथ ही उनके पास स्मार्टफोन, इंटरनेट, फोटो के लिए अनुकूल घर और सोशल मीडिया की समझ भी ज़्यादा होती है, जो अक्सर ग्रामीण या छोटे शहरों की महिलाओं से अलग होती है। इस विषय पर दुबई की श्रद्धा, जो पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट और लेखिका हैं, कहती हैं, “यह सच है कि बच्चों की तस्वीरें डालना अब एक ट्रेंड बन चुका है और इसका दबाव भी महसूस होता है। लेकिन हमें इसमें संतुलन बनाने की ज़रूरत है, क्योंकि इस चक्कर में पेरेंटिंग के असली और सुखद पल कहीं खो सकते हैं। लेकिन, हमारे बचपन की बहुत कम तस्वीरें होती थीं, वहीं हमारे बच्चों के पास तस्वीरों की पूरी लाइब्रेरी होगी जो वे बड़े होकर देख पाएंगे।”
वहीं बिहार की ललिता का अनुभव बिल्कुल अलग है। वे दो साल पहले काम की तलाश में दिल्ली आई थीं और अब सफ़ाई का काम करती हैं। उनका बेटा पांच साल का है। वह बताती हैं, “दिल्ली आने के बाद मैंने स्मार्टफोन लिया और मुझे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म चलाना नहीं आता। पर मुझे ऐसा कोई प्रेशर महसूस नहीं होता कि बच्चे की फोटो सोशल मीडिया पर डालनी है। ज़्यादा से ज़्यादा हम फ़ैमिली ग्रुप में फोटो भेज देते हैं या बच्चों के दादा-दादी से वीडियो कॉल करवा देते हैं।” छोटे शहरों की मिडल क्लास माताओं की स्थिति कुछ अलग होती है। वे सोशल मीडिया पर खुद को अभिव्यक्त करना तो चाहती हैं, लेकिन परिवार, रिश्तेदार और पड़ोस क्या कहेंगे, इस डर में भी रहती हैं। इसके साथ नज़र लगने जैसी कई अंधविश्वासी बातें उन्हें घेरे रखती है। अगर वे कुछ पोस्ट करती भी हैं, तो उनका सोशल मीडिया खुशी और डर, दोनों का मिला-जुला अनुभव बन जाता है।
दिल्ली आने के बाद मैंने स्मार्टफोन लिया और मुझे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म चलाना नहीं आता। पर मुझे ऐसा कोई प्रेशर महसूस नहीं होता कि बच्चे की फोटो सोशल मीडिया पर डालनी है। ज़्यादा से ज़्यादा हम फ़ैमिली ग्रुप में फोटो भेज देते हैं या बच्चों के दादा-दादी से वीडियो कॉल करवा देते हैं।
चंडीगढ़ की होममेकर अनु सोनी हैं, “मुझे अपने बच्चों की उपलब्धियां सबके साथ साझा करने का मन करता है। कभी-कभी मैं इंस्टाग्राम पर बच्चों की तस्वीरें पोस्ट करती हूं। लेकिन दो बच्चों की देखभाल और घर के कामों में मेरा ज़्यादातर समय निकल जाता है। ऐसे में सोशल मीडिया के लिए अलग से वक्त निकालना मुश्किल है। फिर भी, जब मैं दूसरों की इंस्टाग्राम प्रोफाइल और उनके बच्चों की पोस्ट देखती हूं, तो मन में ख्याल आता है कि मुझे भी कुछ ऐसा पोस्ट करना चाहिए।” वहीं कुरुक्षेत्र की ड्रॉइंग टीचर उर्वशी कहती हैं, “मैंने एक समय बेटी का अलग सोशल मीडिया पेज बनाने के बारे में सोचा था। लेकिन मन में इतने सवाल और डर था कि यह विचार छोड़ दिया। नौकरी, घर और बच्चे की ज़िम्मेदारी अपने आप में बहुत भारी होती है। ऐसे में सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना मुझ पर और दबाव डाल देता है। कई बार तो अपने लिए भी वक्त नहीं मिल पाता।”
प्राइवेसी, कॉन्सेंट और मानसिक स्वास्थ्य
इस पूरे मुद्दे में एक अहम सवाल है कि क्या हम बच्चे की तस्वीरें और उसकी ज़िंदगी ऑनलाइन डालने से पहले उसकी सहमति के बारे में सोचते हैं? आज के दौर में, जब एआई, फेशियल रिकग्निशन और डेटा चोरी का खतरा बढ़ रहा है, तब ये तस्वीरें सिर्फ यादें नहीं रह जातीं। ये किसी भी एल्गोरिदम, कंपनी या गलत इरादे वाले व्यक्ति के हाथ लग सकती हैं। सोशल मीडिया का दबाव भले मामूली लगे लेकिन इसका असर बहुत गहरा होता है। हम दिन भर यह सोचते रहते हैं कि अब कौन-सी रील बनानी है, कौन-सा ट्रेंड चल रहा है और बच्चे का कौन-सा पल पोस्ट किया जाए। यह लगातार चलता मानसिक शोर हमें यह महसूस ही नहीं होने देता कि हम कब थकान, चिड़चिड़ाहट और खुद से असंतोष की स्थिति में पहुंच जाते हैं। जब इतनी मेहनत से बनाई गई रील उम्मीद के मुताबिक नहीं काम करती, तो निराशा और तनाव बढ़ जाता है। कई बार अनजाने में यही भावनाएं बच्चे तक भी पहुंचती हैं। यह दबाव सिर्फ हमें नहीं थकाता, बल्कि हमारे पेरेंटिंग पर भी सवाल खड़े करता है, असुरक्षित बनाता है और पूरे परिवार को प्रभावित कर सकता है।
शेयरेंटिंग से आगे का रास्ता
यह सच है कि सोशल मीडिया आज की ज़िंदगी का हिस्सा है। बच्चों को इससे पूरी तरह दूर रखना न सही है और न मुमकिन। लेकिन, ज़रूरी है कि संतुलन बनाए रखें। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन में इटली में शेयरेंटिंग पर एक पायलट स्टडी के विषय पर शोध प्रकाशित की गई। शेयरेंटिंग का मतलब है माता-पिता द्वारा अपने बच्चों की फोटो, वीडियो और निजी जानकारी सोशल मीडिया पर साझा करना। इस अध्ययन में पाया गया कि 65.7 फीसद माता-पिता अपने बच्चों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा करते हैं। कितनी बार और किस उम्र में यह साझा किया जाता है, इसका असर इस बात पर पड़ता है कि माता-पिता इसे उपेक्षा या दुर्व्यवहार मानते हैं या नहीं। ज़्यादातर माता-पिता ने यादें संजोने को इसका मुख्य कारण बताया, लेकिन कई लोग निजता के ख़तरों को लेकर चिंतित भी थे। इस स्टडी में शामिल 73.3 फीसद लोगों ने माना कि ज़रूरत से ज़्यादा शेयरेंटिंग बच्चे की उपेक्षा और दुर्व्यवहार का रूप हो सकती है। असल में आज माता-पिता को जागरूक करने के लिए भी शिक्षा और रोकथाम से जुड़े कार्यक्रमों की ज़रूरत है। लाइक्स और वायरल रील्स हो सकते हैं लेकिन विशेष कर नाबालिग बच्चों के ये जरूरी नहीं कि सही हो और उनके शुरुआती दिन लौटकर नहीं आएंगे।

