समाजकैंपस गांवों में बच्चे आज भी लिखना-पढ़ना और गणित क्यों नहीं जानते हैं? 

गांवों में बच्चे आज भी लिखना-पढ़ना और गणित क्यों नहीं जानते हैं? 

आर्यन के माता-पिता का कहना है कि उसे उन्होंने लगातार स्कूल भेजा। लेकिन आर्यन को स्कूल में अच्छी तरह नहीं पढ़ाया गया। वहीं आर्यन के साथ पढ़ते कुछ बच्चे पढ़ने में तेज हैं। सवाल उठता है कि एक ही व्यवस्था में कैसे कुछ बच्चे प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ लेते हैं और कुछ बच्चे नहीं पढ़ पाते।

अगर भारतीय शिक्षा व्यवस्था के पूरे जमीनी प्रारूप का लेखा-जोखा देखें, तो भारतीय ग्रामीण शिक्षा की स्थिति हमें बहुत नहीं चौकाती। यह स्थिति कोई नयी घटना नहीं है। लेकिन ये चिंता की बात है। असर की 2023 की रिपोर्ट में ये पाया गया कि ग्रामीण भारत में 14-18 वर्ष के आधे से अधिक बच्चे सरल विभाजन नहीं कर सकते। अध्ययन में शिक्षा की इस बदहाली के बहुत अलग-अलग बिंदु दिखे। इसमें वर्ग से लेकर जाति और जेंडर से संबंधित कारणों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इन दिनों ग्रामीण प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति को देखा जाए, तो उसमें जो सबसे बड़ी दिक्कत है, वह है विद्यालयों में बहुत कम शिक्षकों का होना।

लेकिन जो सबसे प्रभावी कारण दिखा वो समाज में वर्गीय अंतर है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की भूमिका शैक्षिक आधार पर भी कमजोर दिखी। समाज में वर्गीय ढाँचा मनुष्य की हर तरह की भूमिका को बहुत सीमा तक निर्धारित करता है। उत्तरप्रदेश के कौशाम्बी जिले में रहने वाले आर्यन कक्षा 5 में पढ़ते हैं। आर्यन को गिनती-पहाड़ा तो आता है। लेकिन आर्यन अपनी हिंदी और अंग्रेजी किताबों को नहीं पढ़ पाते हैं। आर्यन के माता-पिता का कहना है कि उसे उन्होंने लगातार स्कूल भेजा। लेकिन आर्यन को स्कूल में अच्छी तरह नहीं पढ़ाया गया। वहीं आर्यन के साथ पढ़ते कुछ बच्चे पढ़ने में तेज हैं। सवाल उठता है कि एक ही व्यवस्था में कैसे कुछ बच्चे प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ लेते हैं और कुछ बच्चे नहीं पढ़ पाते।

शुभ की होमवर्क की कॉपी को देखने से पता चलता है कि वह बहुत ही छोटे अक्षर में लिखता है। उसके छोटे अक्षर पढ़ना भी मुश्किल है। लेकिन टीचर्स होमवर्क की कॉपी पर बस सही होने का निशान बना दे रहे हैं। ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति उतनी नहीं होती, जितनी निजी स्कूलों में होती है।

शैक्षिक स्तर खराब होने के क्या है कारण

इसके अलग-अलग कारण हो सकते हैं। एक तो सारे बच्चों की बौद्धिक क्षमता एक सी नहीं होती। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण होता है कि शिक्षक का ऐसे बच्चों से सामंजस्य स्थापित करना, जो पढ़ाई में कमजोर हैं। उनसे ज्यादा संवेदनशील व्यवहार करना। ये क्लास में पीछे छूटते बच्चे हमेशा पढ़ाई में पीछे रह जाते हैं क्योंकि तब वे पढ़ाई से कटने लगते हैं। इस तरह शिक्षा को लेकर एक तरह की आत्महीनता का बोध मन में बैठ जाता है। बच्चों की प्राथमिक शिक्षा पर जोर देना आवश्यक होता है क्योंकि वहीं से उनकी रुचि और कौशल क्षमता का भी निर्धारण शुरू होता है। अगर  2023 की असर रिपोर्ट को देखते हुए प्राथमिक शिक्षा के स्तर का आकलन किया जाए, तो ये महज सरकारी स्कूलों की बात नहीं है।

तस्वीर साभार: India Today

निजी स्कूलों के आंकड़े भी निकाले जाए तो वहां भी इस तरह के आंकड़े निकलकर आ रहे हैं। निजी स्कूलों में बच्चों को ढेर सारे होमवर्क तो दिए जाते हैं। लेकिन उससे बच्चे बहुत ज्यादा सीख नहीं पाते। कक्षा तीन में पढ़ने वाले शुभ नौ साल के हैं। शुभ की होमवर्क की कॉपी को देखने से पता चलता है कि वह बहुत ही छोटे अक्षर में लिखता है। उसके छोटे अक्षर पढ़ना भी मुश्किल है। लेकिन टीचर्स होमवर्क की कॉपी पर बस सही होने का निशान बना दे रहे हैं। ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति उतनी नहीं होती, जितनी निजी स्कूलों में होती है।

गांवों में ज्यादातर निजी स्कूलों में भी कोई बुनियादी सुविधाएं नहीं होती है। ज्यादातर तो बहुत कम जगह और असुविधाओं पर और अयोग्य शिक्षकों के माध्यम से संचालित हो रहे हैं। जहां निजी स्कूल में अभिवावक बच्चों पर खुद ध्यान देते है, वहीं सरकारी स्कूल के लिए अधिकतर अभिवावक उदासीन ही रहते हैं।  

उसका सबसे बड़ा कारण बनता है अभिवावकों का अंग्रेजी भाषा से मोह। उनको लगता है निजी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम की बेहतर शिक्षा दी जाती है। लेकिन कई बार देखा जाता है कि वहां भी शिक्षा की महज खानापूर्ति होती है। गांवों में ज्यादातर निजी स्कूलों में भी कोई बुनियादी सुविधाएं नहीं होती है। ज्यादातर तो बहुत कम जगह और असुविधाओं पर और अयोग्य शिक्षकों के माध्यम से संचालित हो रहे हैं। जहां निजी स्कूल में अभिवावक बच्चों पर खुद ध्यान देते है, वहीं सरकारी स्कूल के लिए अधिकतर अभिवावक उदासीन ही रहते हैं।  

ग्रामीण स्तर पर स्कूलों में होती जाति और लिंग भेद

ग्रामीण क्षेत्रों में अभी जाति और लैंगिकता का प्रभाव बहुत जटिल है। यहां बच्चों के जाति और लैंगिक आधार पर बहुत सारे भेदभाव होते हैं जिनका सीधा असर बच्चों की शिक्षा पर पड़ता है। हमने कई प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों के अभिवावकों और शिक्षकों से बातचीत की। इसमें हमने पाया कि वर्ग से लेकर जाति और लैंगिक असमानताओं का यहाँ की पूरी शिक्षा व्यवस्था पर बड़ा प्रभाव है। जातिगत भेदभाव के आधार पर कई ऐसी घटनाएं होती हैं, जो देखने पर आम लगे पर होती नहीं हैं। प्रतापगढ़ जिले के एक प्राथमिक विद्यालय की बच्चियों का कहना है कि उन्हें जाति के आधार पर उनकी महिला टीचर दंडित करती है जबकि शारीरिक दंड देना स्कूलों में कब का खत्म कर दिया गया है।

जातिगत भेदभाव के आधार पर कई ऐसी घटनाएं होती हैं, जो देखने पर आम लगे पर होती नहीं हैं। प्रतापगढ़ जिले के एक प्राथमिक विद्यालय की बच्चियों का कहना है कि उन्हें जाति के आधार पर उनकी महिला टीचर दंडित करती है जबकि शारीरिक दंड देना स्कूलों में कब का खत्म कर दिया गया है।

आज सरकारी स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति शिक्षकों के लिए  बड़ा टास्क बन चुकी है। सबसे पहले तो सरकारी स्कूलों को लेकर आम लोगों में ऐसी धारणा बन गयी है कि सरकारी स्कूलों में अच्छी शिक्षा नहीं दी जाती। साथ ही, अंग्रेजी माध्यम पर हर वर्ग के अभिवावकों का जोर बढ़ा है। इसका असर इतना व्यापक पैमाने पर हुआ है कि आज सरकारी स्कूलों में ज्यादातर निम्नवर्गीय या हाशिये के वर्ग से ही बच्चे पढ़ने आते हैं।

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नये समय में अभिवावक बच्चों की शिक्षा को लेकर जागरूक हैं। निम्न आय वाले अभिवावक भी अपने बच्चे को निजी स्कूलों में अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा देकर पढ़ा रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनका बच्चा बेहतरीन शिक्षा पाये। हालांकि वहां शिक्षा का अर्थ उनका बच्चा पढ़-लिख कर एक सुविधाजनक जीवन प्राप्त करने की इच्छा को लेकर ज्यादा प्रबल है। कई मजदूर अभिवावकों से बातचीत करने से यह स्पष्ट होता है कि ज्यादातर अभिवावक किसी भी परिस्थिति में अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा मुहैया कराना चाहते हैं। ग्रामीण क्षेत्र ही नहीं शहरी क्षेत्रों में भी ज्यादातर निम्नवर्गीय माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं।

आखिर शिक्षा का स्तर बेहतर क्यों नहीं

सुधा प्रयाग जिले में ग्रामीण क्षेत्र के एक सरकारी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में पढ़ाती हैं। वह बहुत परिश्रम से अपने स्कूल के बच्चों को पढ़ाती हैं। लेकिन बच्चों और उनके अभिवावकों में शिक्षा के प्रति उदासीनता को लेकर निराश हैं। वह कहती हैं, “छोटे बच्चों को लोग स्कूल भेजते हैं जबकि उन्हें संभालना मुश्किल होता है। उन बच्चों को पढ़ाने और सलीका सिखाने में वक्त लगता है। जैसे ही बच्चा एक दो साल में होशियार होता है, तो माता-पिता निजी स्कूल में डाल देते हैं। अंग्रेजी मीडियम का ऐसा महिमाण्डन है कि सरकारी स्कूल की शिक्षा पर वे भरोसा नहीं करते। शिक्षा के स्तर और असर 2023 की शिक्षा रिपोर्ट पर बात करते हुए वह कहती हैं, “ज्यादातर बच्चों के स्कूल छोड़ने के मामलों इन वर्गों में गरीबी और अशिक्षा का प्रभाव है। यहां ज्यादातर अभिवावक बच्चों की शिक्षा को लेकर उदासीन रहते हैं। जहां थोड़ी सी आर्थिक स्थिति ठीक है वहां लोग बच्चों की शिक्षा को लेकर जागरूक हैं। उनके यहां स्कूल में किसी बच्चे के घर पर काम है या मेहमान आ रहे हैं तो घर के लोग स्कूल में सीधे आकर कह देते हैं कि उनका बच्चा स्कूल नहीं जायेगा।”

जहां थोड़ी सी आर्थिक स्थिति ठीक है वहां लोग बच्चों की शिक्षा को लेकर जागरूक हैं। उनके यहां स्कूल में किसी बच्चे के घर पर काम है या मेहमान आ रहे हैं तो घर के लोग स्कूल में सीधे आकर कह देते हैं कि उनका बच्चा स्कूल नहीं जायेगा।

स्कूलों में शिक्षकों की कमी

तस्वीर साभार: Medium

आज प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की बेहद कमी है। कितने ही स्कूल ऐसे हैं, जहां महज एक अध्यापक ही है। साथ ही, पढ़ाने के अतिरिक्त उनसे इतने सारे अतिरिक्त काम कराए जाते हैं कि उसके बोझ से ही त्रस्त होते हैं। इस विषय पर शालिनी कहती हैं, “मुझे हमेशा से बच्चों को पढ़ाने का बहुत शौक था। लेकिन जब नियुक्ति हुई, तो पढ़ाने के अतिरिक्त इतना सारा काम करना पड़ता है कि पढ़ाने का सारा उत्साह ही खत्म हो जाता है। इन अतिरिक्त कामों के बाद स्कूल में लिपिक कामों को भी अध्यापकों को ही करना पड़ता है। अध्यापकों की कमी को लेकर विभाग हमेशा प्रथम मानक का ही हवाला देता है। उनका प्रथम मानक है कि सौ बच्चों पर एक अध्यापक है। हालांकि इससे इतर दूसरे और तीसरे मानक भी हैं जिसमें अध्यापक की संख्या को बढ़ाने की बात है। लेकिन विभाग उन मानकों पर काम नहीं कर रहा है। साथ ही जांच विभाग का दंडात्मक दृष्टिकोण भी शिक्षकों की पढ़ाने की इच्छाशक्ति को कमजोर कर रहा है। स्कूल में जाँच के लिए जो भी आता है, नकारात्मक प्रतिक्रिया ही देकर जाता है। शिक्षक अपनी तरफ से कोई लापरवाही नहीं बरतते लेकिन उनका दृष्टिकोण स्कूल व्यवस्था को लेकर नकारात्मक ही रहता है।”

मुझे हमेशा से बच्चों को पढ़ाने का बहुत शौक था। लेकिन जब नियुक्ति हुई, तो पढ़ाने के अतिरिक्त इतना सारा काम करना पड़ता है कि पढ़ाने का सारा उत्साह ही खत्म हो जाता है। इन अतिरिक्त कामों के बाद स्कूल में लिपिक कामों को भी अध्यापकों को ही करना पड़ता है।

ग्राम शिक्षा समिति का लापरवाह रवैया

गांवों में हर पंचायत में स्कूलों के लिए ग्राम-शिक्षा समिति का गठन हुआ है। समिति के सदस्य छात्रों के अभिवावक ही चुने जाते हैं। समिति का काम स्कूलों में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाना और देख-रेख है। लेकिन ज्यादातर गाँव के समिति सदस्य शिक्षा को लेकर उदासीन रहते हैं। पिछले साल  की असर रिपोर्ट के अनुसार देश के 25 फीसद 14 से 18 आयु वर्ग के विद्यार्थी कक्षा दो की क्षेत्रीय भाषा की पुस्तक पढ़ने में असमर्थ हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि ये किसी न किसी शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ते हैं। यानि निजी हो या सरकारी, शिक्षकों का और शिक्षा व्यवस्था का एक सा हाल है।

अगर राज्य शिक्षा व्यवस्था के प्रति वास्तव में गम्भीर हो, तो हालात में सुधार होने की पूरी गुंजाइश है। शिक्षा व्यवस्था में सुधार का यही एकमात्र विकल्प भी है  कि राज्य शिक्षकों के ऊपर शिक्षण के अतिरिक्त और तमाम कामों का बोझ न डाला जाए। शिक्षक होने की गरिमा और उसका महत्व, उन्हें उनके जिम्मेदारी का अभ्यास भी कराते रहे। ये बात तय है कि इस पूरी व्यवस्था में हाशिये के लोगों के लिए आज भी सरकारी स्कूल वो जगह है, जहां बच्चे पढ़ने जाते हैं। निजी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कठिन है।

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