शिक्षा को समान अवसर और आर्थिक सशक्तिकरण की बुनियाद माना जाता है। हालांकि संविधान के तहत शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा मिलने के बाद, यह उम्मीद की गई थी कि हर बच्चा न केवल स्कूल तक जाएगा, बल्कि अपनी पढ़ाई भी पूरी कर पाएगा। लेकिन हाल ही में सामने आए आंकड़े इस उम्मीद पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में पिछले पांच सालों में 65.7 लाख से ज़्यादा स्कूली बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया है, जिनमें से आधी संख्या में लड़कियां शामिल हैं। यह इस बात का संकेत है कि शिक्षा व्यवस्था के भीतर संरचनात्मक रूढ़िवादी पहलू गहराई से मौजूद हैं।
यह संकट केवल शिक्षा के क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि यह देश की सामाजिक-आर्थिक रूढ़वादी वास्तविकताओं में गहराई से जुड़ा हुआ है। स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में बड़ी संख्या उन समुदायों की है जो पहले से ही हाशिए पर हैं जैसे गरीब परिवार, दलित, ट्रांस, क्वीयर समुदाय, आदिवासी समुदाय, प्रवासी मजदूरों के बच्चे और खास तौर पर लड़कियां, क्योंकि माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर पहुंचते- पहुंचते आर्थिक दबाव, घरेलू जिम्मेदारियां, असुरक्षा और सामाजिक रुढ़ियां उन्हें स्कूल से बाहर धकेल देती हैं। जिस कारण बहुत से बच्चे अपनी स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर पाते हैं।
इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में पिछले पांच सालों में 65.7 लाख से ज़्यादा स्कूली बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया है, जिनमें से आधी संख्या में लड़कियां शामिल हैं।
राज्यों के बीच बढ़ती असमानता
ड्रॉप आउट की समस्या भारत के सभी राज्यों में एक जैसी नहीं है, बल्कि यह गहरी क्षेत्रीय और संरचनात्मक असमानताओं को सामने लाती है। इंडिया टुडे में छपी एक खबर के मुताबिक, महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री सावित्री ठाकुर के हाल ही में, संसद में दिए गए एक बयान से देश में स्कूली शिक्षा छोड़ने वाले बच्चों की सच्चाई का पता चलता है। पिछले पांच सालों में 65.7 लाख बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया है, जिनमें से लगभग आधे यानी 29.8 लाख किशोरियां थीं। यह आंकड़े हर एक राज्य में अलग – अलग बने हुए हैं । राज्य स्तरीय आंकड़ों के अनुसार, गुजरात में 2025-26 में स्कूल से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या सबसे अधिक रही। राज्य में 24 लाख ऐसे विद्यार्थिओं की पहचान की गई जो अब स्कूल नहीं जा रहे थे, जिनमें किशोरवस्था की 11 लाख लड़कियां शामिल थीं।
गुजरात में स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में अचानक हुई बढ़ोत्तरी ने सबका ध्यान अपनी और खींचा है। साल 2024 में, राज्य में केवल 54,541 बच्चे स्कूल से बाहर थे। जबकि इस साल यह संख्या बढ़कर 24 लाख हो गई है, जो 340 फीसदी से ज़्यादा की बढ़ोतरी को समाने लाती है। इसके बाद असम जहां कुल 1,50,906 बच्चे स्कूल से बाहर थे, जिनमें से 57,409 लड़कियां थीं। उत्तर प्रदेश में 99,218 बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया, जिनमें 56,462 लड़कियां शामिल थीं। इस तरह से बहुत से राज्यों में ड्रॉपआउट के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं। केंद्र ने उन अनेक चुनौतियों को सूचीबद्ध किया है जो लड़कियों के स्कूल छोड़ने में योगदान देती हैं। इनमें प्रवासन, गरीबी, घरेलू जिम्मेदारियां, बाल श्रम और सामाजिक दबाव शामिल हैं। इन समस्याओं के कारण अक्सर लड़कियां अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए पर्याप्त समय तक स्कूल में नहीं रह पाती हैं।
राज्य स्तरीय आंकड़ों के अनुसार, गुजरात में 2025-26 में स्कूल से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या सबसे अधिक रही। राज्य में 24 लाख ऐसे विद्यार्थिओं की पहचान की गई जो अब स्कूल नहीं जा रहे थे, जिनमें किशोरवस्था की 11 लाख लड़कियां शामिल थीं।
लैंगिक असमानता और संरचनात्मक समस्या का असर
गौरतलब है कि ज्यादातर बच्चे स्कूल अचानक नहीं छोड़ते हैं। यह एक धीमी प्रक्रिया होती है, जिसमें कई सामाजिक, आर्थिक और संस्थागत पहलु मिलकर काम करते हैं। जिसमें गरीबी, पारिवारिक ज़िम्मेदारियां, घरेलू काम आदि भी शामिल है, जब परिवार की आय अच्छी नहीं होती तब सबसे पहले बच्चों की पढ़ाई ही इसकी चपेट में आती है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के एक अध्ययन के मुताबिक, ग्रामीण इलाक़ों में स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या ज़्यादा है। स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में से 17,786 ग्रामीण क्षेत्रों से थीं, जबकि 4,065 लड़कियां शहरी इलाक़ों से थीं। इसी तरह, लड़कों में 14,933 ग्रामीण और 5,152 शहरी क्षेत्रों से थे। इसके अलावा जब बाहर जाकर काम करने की ज़रूरत के कारण बच्चों के स्कूल छोड़ने की बात आती है, तो इस श्रेणी में लगभग 6 फीसदी लड़के और 2.5फीसदी लड़कियां शामिल थीं।
कम उम्र में शादी लगभग 7 फीसदी लड़कियों के स्कूल छोड़ने का कारण थी, जबकि लड़कों के लिए यह संख्या केवल 0.3 फीसदी थी। कम से कम 2 फीसदी लड़कियों ने स्कूल में सुरक्षा संबंधी चिंताओं के कारण स्कूल छोड़ दिया। हालांकि गरीब परिवार अक्सर शिक्षा में निवेश करते समय लड़कों को प्राथमिकता देते हैं। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में 119 मिलियन यानी 11 करोड़ 90 लाख लड़कियां स्कूल से बाहर हैं। इनमें से 34 मिलियन लड़कियां प्राथमिक स्कूल जाने की उम्र की हैं । 28 मिलियन लड़कियां निम्न-माध्यमिक स्तर की हैं और सबसे ज़्यादा 58 मिलियन लड़कियां उच्च-माध्यमिक उम्र की हैं, जो पढ़ाई बीच में ही छोड़ चुकी हैं। यह दिखाता है कि जैसे-जैसे लड़कियां बड़ी होती हैं, उनके लिए स्कूल में बने रहना और मुश्किल होता जाता है।
ग्रामीण इलाक़ों में स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या ज़्यादा है। स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में से 17,786 ग्रामीण क्षेत्रों से थीं, जबकि 4,065 लड़कियां शहरी इलाक़ों से थीं। इसी तरह, लड़कों में 14,933 ग्रामीण और 5,152 शहरी क्षेत्रों से थे।
द मुकनायक में छपे साल 2024 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक, 40.9 फीसदी छात्राओं ने स्वीकार किया कि वे पीरियड के दौरान स्कूल जाने से बचना पसंद करती हैं, जिससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि रूढ़िवादी सोच की वजह से और उचित सपोर्ट की कमी सीधे स्कूल उपस्थिति को प्रभावित करती है। सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि 34.4 फीसदी लड़कियों को अपने मासिक चक्र की पूरी जानकारी नहीं थी, जबकि 36.2 फीसदी ने कहा कि उन्हें अपने परिवार के सदस्यों के साथ पीरियड पर चर्चा करने में कठिनाई होती है। स्क्रॉल में छपी राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की साल 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत भर में 15-18 साल की उम्र की 39.4फीसदी लड़कियां स्कूल और कॉलेज छोड़ देती हैं। जबकि स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में से 64.8 फीसदी लड़कियां घरेलू कामों में मजबूर होने या भीख मांगने के कारण स्कूल छोड़ देती हैं। ड्रॉपआउट का पैटर्न समान नहीं है। दलित, आदिवासी, प्रवासी परिवारों के बच्चे और विकलांग बच्चे अधिक असुरक्षित हैं।
सरकारी योजनाएं और उनकी सीमाएं
भारत में स्कूल ड्रॉप आउट की समस्या से निपटने के लिए सरकार ने पिछले सालों में कई महत्वपूर्ण योजनाएं शुरू की हैं जैसे कि वरिष्ठ माध्यमिक स्तर तक नए स्कूल खोलना, अधिक कक्षाएं जोड़ना, कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों का विस्तार करना और मुफ्त वर्दी, किताबें और परिवहन सहायता प्रदान करना और मिड डे मील आदि योजना शामिल है। सरकार ने बच्चों को वापस स्कूल लाने का अभियान भी शुरू किया है और राज्यों, स्कूल प्रबंधन समितियों और स्थानीय निकायों से बच्चों का पता लगाने और उन्हें फिर से स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए मिलकर काम करने का आग्रह किया है।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में 119 मिलियन यानी 11 करोड़ 90 लाख लड़कियां स्कूल से बाहर हैं। इनमें से 34 मिलियन लड़कियां प्राथमिक स्कूल जाने की उम्र की हैं । 28 मिलियन लड़कियां निम्न-माध्यमिक स्तर की हैं और सबसे ज़्यादा 58 मिलियन लड़कियां उच्च-माध्यमिक उम्र की हैं, जो पढ़ाई बीच में ही छोड़ चुकी हैं।
हालांकि इन सभी योजनाओं के बाद भी जमीनी स्तर पर इसका कोई ख़ास असर नहीं दिखता है। क्योंकि विकलांग समुदाय के बच्चों के लिए शिक्षा की स्थिति अभी भी दयनीय बनी हुई है। उदाहरण के लिए टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, झारखंड में 47,920 पंजीकृत विकलांग विद्यार्थी हैं, लेकिन समग्र शिक्षा अभियान के तहत केवल 384 विशेष शिक्षकों की नियुक्ति की गई है। राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार, राज्य में कम से कम 4,800 फीसदी विशेष शिक्षकों की ज़रूरत है।इसके अलावा स्कूलों में बुनियादी ढांचा भी एक बड़ी बाधा है।
बड़ी संख्या में सरकारी स्कूलों में अभी भी समावेशी शौचालय, उचित रैंप, स्पर्शनीय पथ और बाधा-मुक्त कक्षाओं का अभाव है, जिससे कई विकलांग बच्चों के लिए स्कूल पहुंचना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा क्वीयर समुदाय के बच्चे भी भेदभाव और बुलिंग के कारण स्कूल छोड़ने के लिए मज़बूर हो जाते हैं। क्योंकि स्कूलों में बच्चों को इस बारे में कभी शिक्षा नहीं दी जाती है कि लड़का और लड़की के अलावा भी शारीरिक और सामाजिक पहचाने हैं, उन्हें भी शिक्षा की उतनी ही ज़रूरत है। इससे साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि योजनाएं जमीनी तौर पर कितनी समवेशी हैं।
स्क्रॉल में छपी राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की साल 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत भर में 15-18 साल की उम्र की 39.4फीसदी लड़कियां स्कूल और कॉलेज छोड़ देती हैं। जबकि स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में से 64.8 फीसदी लड़कियां घरेलू कामों में मजबूर होने या भीख मांगने के कारण स्कूल छोड़ देती हैं।
आगे का रास्ता
स्कूल ड्रॉपआउट की इस समस्या से निपटने के लिए केवल नाममात्र की योजनाएं काफी नहीं हैं। इसके लिए शिक्षा को समावेशी रूप से देखने की ज़रूरत है, न कि केवल नामांकन और सिमित आंकड़ों के रूप में। शिक्षा नीति को हाशिए पर मौजूद समुदायों, दलित, आदिवासी, ट्रांस, क्वीयर, विकलांग, प्रवासी और गरीब तबकों की असल ज़रूरतों के मुताबिक लागू करने की ज़रूरत है। इसके साथ ही मातृभाषा में शिक्षा को बढ़ावा देना एक ज़रूरी कदम हो सकता है, खास तौर पर आदिवासी और प्रवासी समुदायों के बच्चों के लिए, ताकि भाषा शिक्षा में बाधा न बने। स्कूलों में सेक्स एजुकेशन, पीरियड्स से जुडी जानकारी बच्चों को देना बहुत ज़रूरी है। इसके अलावा स्कूलों के स्ट्रक्चर को हर एक बच्चे की ज़रूरत के हिसाव से डिज़ाइन करने की ज़रूरत है ताकि हर एक बच्चा आसानी से आ जा सके।
इसी तरह, क्वीयर और ट्रांस बच्चों के लिए सुरक्षित और सम्मानजनक स्कूल वातावरण सुनिश्चित करना ज़रूरी है, जहां उनकी पहचान के कारण हिंसा न हो। ताकि उन्हें भी बराबरी के मौके मिल पाएं और वो भी सम्मान के साथ ज़िंदगी जी पाएं। इस तरह भारत में बढ़ते स्कूल ड्रॉप आउट के आंकड़े दिखाते हैं कि शिक्षा का मौलिक अधिकार होना भर ही काफी नहीं है। गौरतलब है कि गरीबी, लैंगिक असमानता, जातिगत भेदभाव, असुरक्षा, विकलांगता और क्वीयर,ट्रांस बच्चों के प्रति भेदभाव आज भी बच्चों को स्कूल से बाहर धकेल रहे हैं। सरकारी योजनाओं के बावजूद ज़मीनी स्तर पर समावेशी ढांचे और संवेदनशील माहौल की कमी साफ़ दिखाई देती है। जब तक शिक्षा नीतियां हाशिए पर मौजूद समुदायों की असल ज़रूरतों को केंद्र में रखकर लागू नहीं होंगी, तब तक समान अवसर और आर्थिक सशक्तिकरण का लक्ष्य अधूरा ही रहेगा।

