एक औरत की नोटबुक किताब को कवयित्री और कथाकार सुधा अरोड़ा ने लिखा है, जो स्त्री विमर्श से जुड़े मुद्दों पर लेखन के लिए जानी जाती हैं। किताब की भूमिका में ही लेखिका बताती हैं कि किस तरह से चंद महिलाओं को आगे बढ़ते देखकर समाज में यह धारणा बन जाती है कि महिलाएं अब दोयम दर्ज़े की नहीं रहीं। वे बताती हैं कि महिलाओं को जागरूक करने के लिए अंग्रेजी में तो ढेरों किताबें हैं, लेकिन हिंदी भाषी महिलाओं के लिए किताबें न के बराबर हैं। उनकी किताब एक तरह से घरेलू हिंसा पर हिन्दी में उपलब्ध किताबों की कमी की भरपाई करती है।
इसमें उन्होंने कहानियों और आलेखों के ज़रिए समाज में महिलाओं की स्थिति और उनकी चुनौतियों को उजागर किया है। इनमें से कुछ उनके महिला सलाहकार केन्द्र पर आने वाली महिलाओं की कहानियां हैं। किताब दो खण्डों में बंटी हुई है। पहले खण्ड में एक आलेख और चार कहानियों के ज़रिए घरेलू हिंसा के मुद्दे को उठाया गया है। दूसरे खण्ड में एक आलेख और छह कहानियों में मानसिक हिंसा के मुद्दे को उठाया गया है। अन्त में उनका एक साक्षात्कार भी दिया गया है।
वे प्रतिष्ठित महिलाओं और उनके पतियों के उदाहरण देते हुए बताती हैं कि किस तरह से उन्होंने भी कभी न कभी अपने पतियों के शोषण या प्रताड़ना के सूक्ष्म रूपों का सामना किया। वे उस मानसिकता को भी उजागर करती हैं, जो घरेलू हिंसा को बढ़ावा देने का काम करती है।
घरेलू हिंसा और उससे जुड़े सच और मिथक
अपने पहले लेख में वे घरेलू हिंसा से जुड़े दो प्रमुख मिथकों का खण्डन करती हैं। वह बताती हैं कि ऐसा नहीं है कि सिर्फ कामगार मजदूर वर्ग के लोग ही घरेलू हिंसा में लिप्त होते हैं। वहीं ऐसा नहीं है कि पुरुष साथी या पति अपने होशोहवास में हिंसा नहीं करता। वे बताती हैं कि किस तरह से केवल मुम्बई के ही महिला संगठनों के आंकड़ों से पता चलता है कि अभिजात्य वर्ग के नामी-गिरामी पुरुष, लेखक, कवि, गीतकार भी हिंसा करते पाए गए हैं। वे प्रतिष्ठित महिलाओं और उनके पतियों के उदाहरण देते हुए बताती हैं कि किस तरह से उन्होंने भी कभी न कभी अपने पतियों के शोषण या प्रताड़ना के सूक्ष्म रूपों का सामना किया। वे उस मानसिकता को भी उजागर करती हैं, जो घरेलू हिंसा को बढ़ावा देने का काम करती है। अमूमन भारतीय समाज में मारने-पीटने को प्यार से जोड़ा जाता है। वे उस मानसिकता पर बात करती हैं कि शादी के बाद तो ससुराल ही महिला का घर है और उसे कैसे भी वहां सामंजस्य बैठाना चाहिए। ये वह मानसिकता है जिसकी वजह से महिलाएं हिंसा सहने पर मजबूर हो जाती हैं।
घरेलू हिंसा के ज़ख्म कितने गहरे होते हैं इसे उनकी कहानी ‘ताराबाई चॉल: कमरा नंबर पैंतीस’ की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है- ‘आईने में देखते हुए उसने वक्ष पर सूखते घाव की पपड़ी को अँगुली से जरा-सा छीला तो उसमें से खून की लाल बूंदे छलछलाने लगीं। उसका भरम था कि घाव सूख रहे हैं। वे अब भी गीले थे।’ लेखिका घरेलू हिंसा से बाहर आने के तरीके पर लिखती हैं कि ‘यातना भी अफीम-सा नशा देती है। हजारों औरतें इस तरह यातना में जीने को रोजमर्रा की रूटीन में स्वीकार कर चलती हैं। जब तक औरत स्वयं न चाहे, कोई स्वैच्छिक संस्था उसे हिंसा से छुटकारा नहीं दिला सकती। राहत पाने के लिए पहला कदम प्रताड़ित औरत को स्वयं उठाना पड़ता है।’ यहां वे महिलाओं की एजेंसी की बात कर रही हैं। घरेलू हिंसा पर आधारित खण्ड में शामिल कहानियां अलग-अलग मुद्दों पर आधारित है। ‘अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी’ एक शादीशुदा औरत के संघर्ष को बयां करती है, जबकि ‘बड़ी हत्या, छोटी हत्या’ भ्रूण हिंसा के मुद्दे पर आधारित है।
लेखिका लिखती हैं कि शारीरिक हिंसा के निशान तो साफ़-साफ़ नज़र आ जाते हैं, लेकिन मानसिक हिंसा के निशान दिखते नहीं। दुखद बात तो यह है कि महिलाएं खुद भी मानसिक प्रताड़ना को समझ नहीं पातीं। वे लिखती हैं कि पन्द्रह सालों की काउंसलिंग के दौरान हमारे संगठन में मानसिक हिंसा का एक भी मामला दर्ज़ नहीं हुआ।
मानसिक प्रताड़ना और महिलाओं पर असर
इस किताब में मानसिक प्रताड़ना के जुड़े कई पहलुओं को उजागर किया गया है। लेखिका लिखती हैं कि शारीरिक हिंसा के निशान तो साफ़-साफ़ नज़र आ जाते हैं, लेकिन मानसिक हिंसा के निशान दिखते नहीं। दुखद बात तो यह है कि महिलाएं खुद भी मानसिक प्रताड़ना को समझ नहीं पातीं। वे लिखती हैं कि पन्द्रह सालों की काउंसलिंग के दौरान हमारे संगठन में मानसिक हिंसा का एक भी मामला दर्ज़ नहीं हुआ। किताब में वे मानसिक हिंसा के कई रूपों और महिलाओं पर इसके प्रभाव की बात करती हैं। वे बताती हैं कि किस तरह पति का उसकी पत्नी से बातचीत न करना, उसे बात-बात पर कमतर या कमअक्ल होने के ताने मारना, उसे सेक्स से वंचित रखना, या यह कहना कि तुम दिन भर करती ही क्या हो, भी मानसिक हिंसा है। वे बताती हैं कि किस तरह से रोज़-रोज़ कमतर या कमअक्ल होने का ताना सुनने वाली महिला खुद को वाकई में वैसा मानने लगती है और अवसाद से घिर जाती है।
उसका शरीर बीमारियों का घर बन जाता है। वे लिखती हैं कि ‘अपने साथी की निर्मम चुप्पी और सायास संवादहीनता भी हिंसा का ही एक प्रकार है और चूंकि शरीर पर इसके निशान दिखाई भी नहीं देते, इसलिए यह भीतर ही भीतर देह को अमूर्त बीमारियों से लैस कर देती है। इस तरह के अनचीन्हे मानसिक तनाव शारीरिक बीमारियों को जन्म देते हैं। हर शरीर का जो अंग कमजोर होता है, वह इस तनाव से अवसाद ग्रस्त हो जाता है। कुछ औरतों की दमे की बीमारी जोर पकड़ लेती है। अपच और एसिडिटी जैसी पाचनक्रिया से संबंधित बीमारियां फौरन शरीर को प्रभावित करती है। पाइल्स, पेट में अल्सर, साइनस या माइग्रेन जैसी बीमारियां शरीर में एड्रेनल ग्रंथि के नकारात्मक रिसाव से पैदा होती हैं और यह क्रिया सीधे मानसिक अस्तव्यस्तता से और तनाव से जुड़ी हुई हैं।’
वे लिखती हैं कि ‘अपने साथी की निर्मम चुप्पी और सायास संवादहीनता भी हिंसा का ही एक प्रकार है और चूंकि शरीर पर इसके निशान दिखाई भी नहीं देते, इसलिए यह भीतर ही भीतर देह को अमूर्त बीमारियों से लैस कर देती है।
मानसिक हिंसा के ही खण्ड में शामिल कहानी ‘रहोगी तुम वही’ एकालाप की तरह प्रस्तुत की गई है। यह एकालाप एक पति का एक पत्नी से है और गौर से देखने पर इसमें सूक्ष्म प्रताड़ना छिपी दिखती है। वहीं ‘सत्ता संवाद’ में वे एक पत्नी के एकालाप को प्रस्तुत करते हुए बताती हैं कि किस तरह से पति या पत्नी में जो भी आर्थिक रूप से ज़्यादा मज़बूत होता है वह दूसरे पर हावी हो जाता है। लेकिन पत्नी के एकालाप में फिर भी एक नरमी दिखती है और संवाद में यह नरमी लेखिका ने जानबूझकर बरती है। ‘डर’ कहानी एक ऐसी औरत की कहानी है जो अपने घर को बचाना चाहती है और ऐसी हरेक समस्याजनक चीज़ को छिपा देना चाहती है जिससे यथास्थिति में खलल पड़े।
इस किताब की भाषा सरल है और मुद्दों की कहानी के रूप में प्रस्तुति उन्हें काफी रोचक बनाती है। यह किताब आपको कचोटती है, झंझोड़ती है और सोचने पर मजबूर करती है। कहीं-कहीं कुछ शब्द आज के सन्दर्भ में थोड़े समस्याजनक लगते हैं। मसलन, नौकरीपेशा महिलाओं के लिए कामकाजी औरतें शब्द उतना सटीक नहीं प्रतीत होता क्योंकि कामकाजी तो सभी औरतें होती हैं चाहे वे घर के बाहर काम कर रही हों या नहीं। वैचारिक स्तर पर यह किताब काफी गंभीर मुद्दों को प्रस्तुत करती है। इसे पढ़कर आपको लगेगा कि ये तो हमारे आस-पास की, हमारे ही घरों की कहानियां हैं। सुधा केवल समस्याओं की बात नहीं करती बल्कि उनसे निकलने का रास्ता भी सुझाती हैं। वे बताती हैं कि आर्थिक आत्मनिर्भरता ही औरतों को इस काबिल बना सकती है कि वे अपने साथ हो रही शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना से बाहर आने के रास्ते तलाश सकें।
इसे पढ़कर आपको लगेगा कि ये तो हमारे आस-पास की, हमारे ही घरों की कहानियां हैं। सुधा केवल समस्याओं की बात नहीं करती बल्कि उनसे निकलने का रास्ता भी सुझाती हैं। वे बताती हैं कि आर्थिक आत्मनिर्भरता ही औरतों को इस काबिल बना सकती है कि वे अपने साथ हो रही शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना से बाहर आने के रास्ते तलाश सकें।
यह किताब न सिर्फ महिलाओं के लिए, बल्कि पुरुषों के लिए भी एक ज़रूरी किताब है। जैसा कि लेखिका ने अपने साक्षात्कार में बताया है कि उनकी कुछ कहानियों को पढ़कर कई पुरुषों ने आत्मचिन्तन किया और उनसे कहा कि वे अपने रवैये को सुधारेंगे। इससे ही इस किताब की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है। यह किताब साल 2010 में प्रकाशित हुई थी, लेकिन पन्द्रह साल बाद आज भी महिलाओं की स्थिति में कुछ खास बदलाव नहीं आए हैं और उन्होंने इस किताब में शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना के जिन रूपों की बात की है उनका सामना महिलाएं आज भी करती हैं। इस किताब में शामिल स्त्री प्रताड़ना के किस्से एक तरफ़ हमें निराश करते हैं। लेकिन साथ ही इसमें महिलाओं के उस हिंसा और प्रताड़नाओं से बाहर आने के किस्से भी हैं। इसलिए यह किताब एक उम्मीद जगाती है।
एक औरत की नोटबुक केवल घरेलू और मानसिक हिंसा का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि स्त्री अनुभवों की एक ईमानदार और संवेदनशील पड़ताल है। सुधा अरोड़ा हिंसा को किसी अपवाद या निजी समस्या की तरह नहीं, बल्कि एक सामाजिक संरचना के रूप में सामने रखती हैं। यह किताब महिलाओं की पीड़ा को दृश्य बनाती है, लेकिन वहीं रुकती नहीं है। यह एजेंसी, आत्मनिर्भरता और बाहर निकलने की संभावना की भी बात करती है। यह किताब उम्मीद भी जगाती है कि पहचान, सवाल और आर्थिक आज़ादी के ज़रिए बदलाव संभव है। इसलिए यह किताब केवल पढ़ी जाने वाली नहीं, बल्कि सोचने और आत्मचिंतन के लिए ज़रूरी किताब है।

