Uncategorized महिलाओं की आवाज़ को मौन करती जेंडर बेस्ड सेंसरशिप

महिलाओं की आवाज़ को मौन करती जेंडर बेस्ड सेंसरशिप

लैंगिक आधार पर होने वाली सेंसरशिप का मुख्य रूप उनकी सार्वजनिक आवाज़ को दबाने का प्रयास है। इसमें महिलाओं को उनके राजनीतिक विचारों, उनके लेखन, उनके कलात्मक कार्यों, उनके सामाजिक योगदान आदि के कारण सेंसर किया जाता है।

लड़कियों को इन समस्याओं का सामना नहीं करना चाहिए। लड़कियों या महिलाओं को खुद को ऐसी स्थिति में नहीं डालना चाहिए जहां उन्हें पुलिस के पास जाना पड़े। उन्हें अपनी निजी जानकारी नहीं देनी चाहिए और अपनी मूल तस्वीरें इंटरनेट पर पोस्ट नहीं करनी चाहिए। इंटरनेट पर मौजूद फोटो को कोई भी छीन सकता है और अपने काम के लिए इस्तेमाल कर सकता है। संभावित अपराधों से बचने के लिए व्यक्ति को ये काम करने चाहिए। यह बयान साल 2013 मुंबई साइबर पुलिस सेल के एक प्रतिनिधि का है। इस तरह के विचार केवल अपराध से बचने के लिए एक सलाह या बचाव का तरीका नहीं है यह लैंगिक आधार पर होने वाला एक भेदभाव और सेंसर करने का एक तरीका है। 

पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं, लड़कियों और अन्य जेंडर माइनॉरिटी पर उनकी लैंगिक पहचान के कारण अनेक तरह के प्रतिबंध लगाए जाते हैं। इस तरह से महिलाओं और अन्य जेंडर माइनॉरिटी के दायरों को पुरुषों द्वारा सीमित करना है। अक्सर उनकी सुरक्षा की चिंता और नैतिकता की रक्षा जैसे कारण बताते हुए इस तरह की सेंसरशिप को उचित ठहराया जाता है। इस तरह के उपाय उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी को प्रतिबंधित करते है। मीडिया और राजनीति का पुरुष प्रधान चरित्र जेंडर के आधार पर होने वाली सेंसरशिप को बहुत आसानी से स्थापित करता है। महिलाओं और अन्य लैंगिक पहचान वाले लोगों के विचारों पर रोक लगाने का काम करता है।

महिला विश्व संगठन ने लैंगिक आधारित सेंसरशिप को सामाजिक तंत्र की एक श्रृंखला के रूप में परिभाषित किया है जो महिलाओं की आवाज़ को दबाने का काम करती है। यह उनके अनुभवों को नकारने और वैध मानने से इनकार करता है।

लैंगिक आधार पर होने वाली सेंसरशिप का मुख्य रूप उनकी सार्वजनिक आवाज़ को दबाने का प्रयास है। इसमें महिलाओं को उनके राजनीतिक विचारों, उनके लेखन, उनके कलात्मक कार्यों, उनके सामाजिक योगदान आदि के कारण सेंसर किया जाता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत प्रत्येक नागरिक को मौलिक अधिकार के तौर पर बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। महिलाओं और अन्य लैंगिक अल्पसंख्यकों को उनकी बौद्धिक विचारों के साथ-साथ उनकी शारीरिक स्वायत्तता को नैतिकता और सामाजिक संस्कृति के तहत दायरे में रहने के लिए सेंसर किया जाता है।

तस्वीर साभारः Per Research Center

जेंडर बेस्ड सेंसरशिप क्या है

अधिकार, साहित्य और विकास के लिए महिला विश्व संगठन ने लैंगिक आधारित सेंसरशिप को सामाजिक तंत्र की एक श्रृंखला के रूप में परिभाषित किया है जो महिलाओं की आवाज़ को दबाने का काम करती है। यह उनके अनुभवों को नकारने और वैध मानने से इनकार करता है। उन्हें राजनीतिक बहसों से बाहर निकालने का काम करती है। यह सामाजिक संस्कृति पुरुषों को वरीयता देकर उनके विचारों को मान्यता देने का काम करती है और महिलाओं की आवाज़ को चुप करती है। लैंगिक आधार पर होने वाली सेंसरशिप केवल फिल्म पर पाबंदी, महिलाओं के शरीर को लेकर सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के समान नहीं दिखती है बल्कि यह बहुत ढांचागत रूप से स्थापित है। सभी तरह की जेंडर बेस्ड सेंसरशिप का स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए हानिकारक है।

लैंगिक आधारित सेंसरशिप पत्रकारिता में महिलाओं और अल्पसंख्यक लैंगिक पहचान वाले लोगों की आवाज़ को भी हाशिये पर रखने में क्रम को बनाए रखती है। जो महिलाएं राजनीति के मुद्दों पर लिखती हैं उन्हें उन्हीं तरीकों से चुप करा दिया जाता है जिन तरीकों का इस्तेमाल विरोध में पुरुषों को चुप कराने के लिए किया जाता है, लेकिन व्यवहार में सेंसरशिप के ये रूप भी जेंडर से प्रभावित है। जेंडर बेस्ड सेंसरशिप में हम यह भी देखते है यह बहुत संगठित और आधिकारिक दमन अधिक व्यापक होता है। महिलाओं की राजनीति के विचारों को चुप कराते हुए उनकी उपस्थिति को नज़रअंदाज कर देता है। इसका उद्देश्य महिलाओं के जीवन में पितृसत्ता को बरकरार बनाए रखना है। साथ ही महिलाओं को इस तरह टॉर्गेट करके अन्य महिलाओं के भीतर डर भी बनाने से है। अन्य महिलाओं को आगे आकर लिखने या अन्य काम करने से रोकता है।  

‘ए रूम ऑफ वन्स ओन’ में वर्जीनिया वुल्फ सवाल करती है कि साहित्यिक और बौद्धिक जगत महिलाओं द्वारा लिखे गए कामों को लेकर इतना उदासीन क्यों है। वह निष्कर्ष निकालती है कि समाज पर अपने नियंत्रण को उचित ठहराने के लिए पुरुषों को यह भरोसा करने की ज़रूरत है कि महिलाएं उन्हें श्रेष्ठ प्राणी के रूप में देखें इसलिए महिलाओं के मूल विचारों को स्वीकारा नहीं गया है। महिला लेखकों को चुप करना पितृसत्ता को बनाए रखना है। इसी तरह द वॉयर के प्रकाशित लेख में मृणाल पांडे की किताब ‘द जर्नी ऑफ हिंदी लैंग्वेज जर्नलिज़म इन इंडिया फ्रॉम राज टू स्वराज एंड मोर’ के हवाले से कहा गया है कि हिंदी पट्टी की सामाजिक और राजनीतिक संस्कृति ने हमेशा यह सुनिश्चित किया है प्रकाशन तथाकथित उच्च जाति केंद्रित और स्त्री विहीन रहे।

सेंसरशिप पर बात करते समय महिलाओं को चित्रित करने के तरीके पर बात करना भी उतना ही आवश्यक है। ख़ासतौर पर सिनेमा के परिदृश्य से। इस विषय पर हुए एक अध्ययन के अनुसार महिलाओं को जिस तरह से सिनेमा में चित्रित किया जाता है वह सेक्सुअलिटी और पितृसत्ता का रूप है जिसे पुरुष द्वारा तय किया गया है। बड़े स्तर पर महिलाओं की स्वायत्तता को पुरुषों के लैंस से सेंसर करना इसमें शामिल है। महिलाओं के शरीर को ऑब्जेक्टिफाई करना और अश्लील रूप से प्रदर्शित करना है। महिलाओं की छवि को एक किस्म से तय करके प्रचलित करना है। अच्छी या बुरी महिला दो खांचों में बांटकर इसे दिखाया जाता है। इससे अलग एक स्त्री के रूपों और इच्छाओं पर बात न होना भी सेंसरशिप का ही रूप है जिससे स्त्रीत्व के अन्य रूप और स्वायत्तता को प्रचारित नहीं किया गया है और उसकी एक तय छवि की स्थापना कर दी जाती है। 

मीडिया द्वारा लैंगिक हिंसा की ख़बरों को सेंसर करना

मीडिया का चेहर पूरी तरह से पुरुषवादी है। यहां ख़बरों का चरित्र तय करने वाले पुरुष है इसलिए मीडिया में विशेष तौर पर लैंगिक हिंसा से जुड़ी ख़बरों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। यह ख़बरों में लैंगिक आधार पर होने वाली सेंसरशिप है जिसमें बहुत आसानी सी लैंगिक हिंसा के मुद्दे को कम महत्व दिया जाता है। मीटू अभियान के तहत भारत में मेनस्ट्रीम मीडिया का रवैया इसे साफ दिखाता है। मिस मैंग्जीन में प्रकाशित लेख के अनुसार मीडिया द्वारा लैंगिक हिंसा की ख़बरों को कवरेज का कम चलन है। इस तरह की ख़बरों पर कम ध्यान दिया जाता है। इससे अलग अगर अन्य पहलूओं पर बात करे तो मीडिया अपनी ख़बरों में महिलाओं से संबंधित अन्य मुद्दों को भी सेंसर करता है। महिला स्वास्थ्य के बारे में भ्रामक जानकारियां दी जाती है और उनके शरीर के बारे में रूढ़िवाद और पूर्वाग्रहों को भी स्थापित करने का काम करता है। 

जेंडर बेस्ड सेंसरशिप में हम यह भी देखते है यह बहुत संगठित और आधिकारिक दमन अधिक व्यापक होता है। महिलाओं की राजनीति के विचारों को चुप कराते हुए उनकी उपस्थिति को नज़रअंदाज कर देता है। इसका उद्देश्य महिलाओं के जीवन में पितृसत्ता को बरकरार बनाए रखना है।

इंटरनेट पर भी महिलाओं के ख़िलाफ़ सेंसरशिप अलग तरीके से काम करती है। इंटरनेट पर महिलाओं को ट्रॉल्स के साथ जो संघर्ष करना पड़ता है वह अधिक दुर्व्यवहार पूर्ण और हिंसक होता है। महिलाओं को इंटरनेट पर लिखने और उनकी वैचारिक स्वायत्ता को कुचलने के लिए व्यवस्थित तरीके से काम किया जाता है। इसके अलावा यौनिकता और शारीरिक आजादी को भी भिन्न तरीके से देखा जाता है। महिलाओं के ब्रेस्ट पिक्चर को बैन करना इसी के तहत आता है। महिलाओं को उनके विचार रखने के अनेक तरह के खतरे उठाने पड़ते है जिसका प्रभाव अन्य महिलाओं पर सेल्फ सेंसरशिप के तौर पर पड़ता है। इस तरह से वे खुद को पीछे रखना शुरू कर देती हैं।

किसी भी लोकतंत्र में आजादी के प्रति प्रतिबद्धता को इस तरह से नापा जा सकता है कि वह हाशिये के समुदाय के प्रति कैसा व्यवहार करता है। वे लोग जिनकी स्तिथि निम्न है। वे जिनकी आवाज़ बहुत सीमित है। लैंगिक आधारित सेंसरशिप का विरोध करने की वजह से महिलाओं को बलात्कार और यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। सेंसरशिप के मुद्दे के ख़िलाफ़ लामबंद होना बहुत ज़रूरी है यह न केवल लैंगिक असमानता को बढ़ती है बल्कि लोकतंत्र को भी खतरे में डालती है।


सोर्स

  1.  Catalysmcgill.com

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